पद ०७६


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श्रीभट्ट सुभट प्रगटे अघट रस रसिकन मनमोद घन॥
मधुरभाव संबलित ललित लीला सुबलित छबि।
निरखत हरषत हृदय प्रेम बरषत सुकलित कबि॥
भव निस्तारन हेतु देत दृढ़ भक्ति सबनि नित।
जासु सुजस ससि उदय हरत अति तम भ्रम श्रम चित॥
आनंदकंद श्रीनंदसुत श्रीवृषभानुसुता भजन।
श्रीभट्ट सुभट प्रगटे अघट रस रसिकन मनमोद घन॥

मूलार्थश्रीभट्टजी ऐसे अघट अर्थात् अजेय सुभट थे, वीर थे, जो भगवद्रसके रसिकोंको मनमें अत्यन्त आनन्द देते रहते थे, अर्थात् जिन्हें देखकर भगवद्रसके रसिकोंके मनमें अत्यन्त आनन्द रहता था। वे मधुरभावसे युक्त और ललित लीलासे संयुक्त भगवच्छविका चिन्तन करते थे। वे भगवान्‌की दिव्य लीलाको देखकर हृदयमें हर्षित हो जाते थे, उनके हृदयमें प्रेमकी वृष्टि होने लगती थी। वे अत्यन्त सुन्दर कमनीय कवि थे। भवसागरसे पार करनेके लिये वे सबको दृढ़ भक्तिका उपदेश देते थे। उनका सुयश रूप चन्द्रमा उदित होकर अत्यन्त तम अर्थात् अज्ञानके अन्धकारको, भ्रमको एवं चित्तके श्रम अर्थात् मानसिक व्याधिको नष्ट कर देता था। श्रीभट्टजी आनन्दकन्द श्रीनन्दनन्दनका एवं श्रीवृषभानुनन्दिनी राधाजीका भजन करते रहते थे। इस प्रकार ऐसे अजेय सुभटके रूपमें श्रीभट्टजी प्रगटे थे, जिनसे भगवद्रसके रसिकोंको मनमें अत्यन्त आनन्द होता था।