पद ०७४


॥ ७४ ॥
ब्रजबधू रीति कलिजुग बिषे परमानँद भयो प्रेम केत॥
पौगंड बाल कैसोर गोपलीला सब गाई।
अचरज कह यह बात हुतौ पहिले जु सखाई॥
नयनन नीर प्रवाह रहत रोमांच रैन दिन।
गदगद गिरा उदार स्याम सोभा भीज्यो तन॥
सारंग छाप ताकी भई श्रवन सुनत आबेस देत।
ब्रजबधू रीति कलिजुग बिषे परमानँद भयो प्रेम केत॥

मूलार्थकेतका अर्थ है पताका, ब्रजबधूका अर्थ है व्रजनारियाँ। कलियुगमें व्रजनारियोंकी प्रीति अर्थात् प्रेमके वर्णनके विषयमें परमानन्द­दासजी मानो प्रेमके केत अर्थात् पताका ही बन गए। भगवान्‌की बाललीला – जो जन्मसे पाँच वर्ष तक मानी जाती है, भगवान्‌की पौगण्डलीला – जो छठे वर्षसे दसवें वर्ष तक मानी जाती है, भगवान्‌की कैशोरलीला – जो ग्यारहवें वर्षसे पन्द्रहवें वर्ष तक संपन्न हुई – ऐसी तीनों लीलाओंको परमानन्द­दासजी महाराजने गाया। इसमें आश्चर्य क्या है? अचरज कह यह बात हुतौ पहिले जु सखाई – परमानन्द­दासजी तो पहले ही भगवान्‌के मित्र थे। यहाँ अचरज शब्दका प्रयोग नाभाजीने इसलिये किया कि सांप्रदायिक मान्यताके अनुसार परमानन्द­दासजी दिनकी गोचारण लीलामें तोक सखा और रातकी गो-चारण लीलामें चन्द्रभागा सखी माने जाते हैं। रातों-दिन परमानन्द­दासजीके नेत्रोंमें जलका प्रवाह अर्थात् प्रेमाश्रु रहते थे। वे सतत दिन-रात रोमाञ्च मुद्रामें रहते थे, और उनकी वाणी गद्गद रहती थी। वे अत्यन्त उदार थे। भगवान् कृष्ण­चन्द्रकी शोभाके रससे परमानन्द­दासजीका शरीर भीगा रहता था। उनकी छाप सारंगकी थी, अर्थात् सारङ्ग कहकरके लोग उन्हें बुलाते थे और सारङ्ग­रागमें ही प्रायशः परमानन्द­दासजी अपने पद गाते थे। भगवन्नामको कानोंसे सुनते ही उन्हें प्रेमका आवेश हो आता था अर्थात् भगवन्नाम कानसे सुनने मात्रसे उन्हें आवेश दे देता था, आविष्ट कर देता था। इन्होंने एक दिन भगवान्‌की ऐसी बाललीला देखी, जहाँ भगवान् कृष्ण­चन्द्र एक कुत्तेके बच्चेको घेर रहे थे। तब परमानन्द­दासजीने कहा – परमानन्द­दास को ठाकुर लाए पिल्ला घेरी