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नित्यानन्द कृष्णचैतन्य की भक्ति दसों दिसि बिस्तरी॥
गौडदेस पाखंड मेटि कियो भजन परायन।
करुनासिंधु कृतग्य भये अगतिन गति दायन॥
दसधा रस आक्रांत महत जन चरन उपासे।
नाम लेत निष्पाप दुरित तिहि नर के नासे॥
अवतार बिदित पूरब मही उभय महत देही धरी।
नित्यानन्द कृष्णचैतन्य की भक्ति दसों दिसि बिस्तरी॥
मूलार्थ – श्रीनित्यानन्दजी, जिन्हें निताई भी कहते हैं, और श्रीकृष्णचैतन्यजी जिन्हें निमाई तथा गौराङ्ग महाप्रभु भी कहते हैं – इन दोनों महापुरुषोंकी भक्ति दसों दिशाओंमें विस्तृत हुई अर्थात् फैल गई। गौडदेस अर्थात् बंगालप्रान्तमें पाखण्ड व्याप्त था। उसको मिटाकर नित्यानन्द और कृष्णचैतन्य महाप्रभुने वहाँके संपूर्ण नर-नारियोंको भजनपरायण कर दिया। वे करुणाके सागर थे, कृतज्ञ थे, और अगतिन अर्थात् जिनको कोई गति नहीं दे सकता था, ऐसे पतित लोगोंको भी उन्होंने भगवन्नामका संकीर्तन कराकर गति दे दी। चैतन्य महाप्रभु दशधा रस अर्थात् प्रेमकी दसों दशाओंसे आक्रान्त थे। महापुरुष उनके चरणकमलकी उपासना करते थे अथवा महापुरुषोंके चरणोंकी वे स्वयं उपासना करते थे। उनका नाम लेते ही व्यक्ति निष्पाप हो जाता था, और आज भी निष्पाप हो जाता है। कृष्णचैतन्य महाप्रभुका ध्यान करने मात्रसे अनेक लोगोंके पाप नष्ट हो गए, और आज भी नष्ट हो रहे हैं। पूरब मही अर्थात् पूर्वदेशमें या बंगालप्रान्तमें नित्यानन्दजी बलरामजीके और श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु श्रीकृष्णचन्द्र और राधाजीके मिलित भावके अवतार माने जाते हैं, इस प्रकार प्रसिद्धि है। दोनों महापुरुषोंने अलौकिक शरीर धारण किया।
श्रीचैतन्य महाप्रभुकी माँका नाम था शचीदेवी और उनके पिताका नाम था जगन्नाथ मिश्र। इनका आविर्भाव विक्रम संवत् १५४२में फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमाको हुआ था। उस समय ग्रहण लगा हुआ था। श्रीचैतन्य महाप्रभुके मनमें प्रारम्भसे दिव्य वैराग्य था। एक बार श्रीचैतन्य महाप्रभु अद्वैताचार्यजीके यहाँ आए। वहाँ अद्वैताचार्यजीने भागवतजीके दशम स्कन्धके तेईसवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक पढ़ा –
श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्हधातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे।
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्॥
(भा.पु. १०.२३.२२)
अर्थात् यज्ञपत्नियोंने भगवान्को जब देखा, उस समय भगवान् श्याम वर्णके थे, उन्होंने पीताम्बर धारण किया था, और वनमाला, मयूरमुकुट, धातु, पल्लवादि आभूषणसे सुसज्जित उनका विचित्र नटवेष था। अनुव्रतांसे अर्थात् राधाजीके स्कन्धपर भगवान् कृष्णने अपना वाम हस्त रख रखा था। दक्षिण करकमलसे वे एक कमलपुष्प हिला रहे थे। उनके कानोंमें नीलकमल था। उनकी अलक कपोलपर लटक रही थी। उनके मुखारविन्दपर मन्द-मन्द मुसकान थी। इस श्लोकको सुनकर श्रीचैतन्य महाप्रभुके मनमें प्रथम महाभाव उसी समय आ गया था। इसके पश्चात् तो उनके जीवनमें महाभाव आते ही रहे। सोती हुई अपनी पत्नी विष्णुप्रियाको छोड़कर श्रीचैतन्य महाप्रभु चल पड़े। गङ्गा नदी पारकर फिर उन्होंने संन्यासकी दीक्षा ली, परन्तु यह एक दिखावा मात्र था जिससे जगत्से उनका सम्पर्क टूटा रहे। उन्होंने भिन्न-भिन्न स्थानोंपर जाकर पतितोंका उद्धार किया। जब चैतन्य महाप्रभु भावमें आते थे तो उनकी आँखोंसे इस प्रकार अश्रुधारा निकलती थी जैसे कोई पिचकारी छोड़ता हो। कीर्तन करते-करते वे तन्मय हो जाते थे और भगवान्के सभी अवतारोंका आवेश उनमें आता था। छः वर्ष तक उन्होंने गम्भीरा नामक मठमें एक छोटी-सी कुटीमें ऐसी विरहलीला प्रस्तुत की, जहाँ एक ही व्यक्ति किसी प्रकार लेट सकता है। इस दासने स्पर्श करके उस कुटीके दर्शन किये हैं। अनन्तर अपने जीवनके अड़तालीस वर्ष पूर्ण हो जानेपर आषाढ़ शुक्ल द्वितीया अर्थात् रथयात्राके दिन ही जगन्नाथजीके दर्शन करके दौड़कर चैतन्य महाप्रभुने जगन्नाथजीका आलिङ्गन किया और वे भगवान्के विग्रहमें समा गए।