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रघुनाथ गुसाईं गरुड ज्यों सिंहपौरि ठाढ़े रहैं॥
सीत लगत सकलात बिदित पुरुषोत्तम दीनी।
सौच गए हरि संग कृत्य सेवक की कीनी॥
जगन्नाथ पद प्रीति निरंतर करत खवासी।
भगवत धर्म प्रधान प्रसन नीलाचल वासी॥
उत्कल देस उड़ीसा नगर बैनतेय सब कोउ कहै।
रघुनाथ गुसाईं गरुड़ ज्यों सिंहपौरि ठाढ़े रहैं॥
मूलार्थ – श्रीरघुनाथ गुसाईंजी जगन्नाथजीके सिंहद्वारपर उसी प्रकार सतत खड़े रहते थे जैसे गरुडदेव सिंहद्वारपर निरन्तर विराजते रहते हैं। सीत अर्थात् ठंड लगनेपर रघुनाथ गुसाईंको रातमें स्वयं पुरुषोत्तम भगवान् जगन्नाथजीने सकलात अर्थात् रजाई दे दी। जब रघुनाथजीको संग्रहिणी रोग हुआ और बार-बार उन्हें शौच जाना पड़ता था, तब भगवान्ने सेवककी भाँति उनका संपूर्ण कृत्य किया, अर्थात् जब बार-बार शौच जाते समय उनका शरीर शिथिल हो गया और उनकी लँगोटीमें ही मल गिरने लगा तब भगवान्ने ही सेवककी भाँति उनका सब कुछ धोया और उनको स्नान कराया। ऐसा बहुत दिनों तक भगवान्ने किया। रघुनाथजीके मनमें जगन्नाथजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रीति थी। वे निरन्तर खवासी अर्थात् सेवा करते थे। रघुनाथजी भगवत धर्म प्रधान थे अर्थात् भगवान्का धर्म उनके मनमें प्रधान था, अथवा भगवद्धर्मपरायण भागवत महापुरुषोंमें रघुनाथ गुसाईं प्रधान थे। वे सतत प्रसन्न रहते थे। वे नीलाचल अर्थात् जगन्नाथपुरीमें निवास करते थे। उत्कल देश, उड़ीसा नगरमें सब लोग उनको बैनतेय अर्थात् गरुड कहते थे।
इस छप्पयमें प्रयुक्त सकलात शब्दका अर्थ है रजाई, अथवा रूईकी बनी हुई एक ऐसी लोई जिसे शीतकालमें ओढ़ा जाता है। खवासीका अर्थ है सेवा। बैनतेयका अर्थ है विनताके पुत्र गरुड।