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तत्त्वा जीवा दच्छिन देस बंसोद्धर राजत बिदित॥
भक्ति सुधा जल समुद भए बेलावलि गाढ़ी।
पूरबजा ज्यों रीति प्रीति उतरोतर बाढ़ी॥
रघुकुल सदृस स्वभाव सिष्ट गुन सदा धर्मरत।
सूर धीर ऊदार दयापर दच्छ अननिब्रत॥
पद्मखंड पद्मा पधति प्रफुलित कर सबिता उदित।
तत्त्वा जीवा दच्छिन देस बंसोद्धर राजत बिदित॥
मूलार्थ – दक्षिण देशमें तत्त्वा और जीवा नामक दो वैष्णव भक्त अपने वंशका उद्धार करने वाले थे और सर्वप्रसिद्ध होकर विराज रहे थे। भक्तिरूपी अमृत ही जिसका जल है, ऐसे महासागरकी ये बेला अर्थात् तट बने, मर्यादा बने और इनकी रीति-प्रीति पूरबजाकी भाँति उत्तरोत्तर बढ़ती गई, अर्थात् पूर्वकी ओर जाने वाली अपराह्णकी छायाकी भाँति इनकी रीति-प्रीति बढ़ी – जो पहले छोटी होती है फिर बड़ी हो जाती है। इस प्रकार धीरे-धीरे इन्होंने भजनमें प्रवेश किया। रघुकुल सदृस स्वभाव अर्थात् उनका स्वभाव रघुकुलके समान शिष्टगुणोंसे युक्त था। सदा धर्मपरायण, शूर, धीर, उदार, दया करने वाले, दक्ष और अनन्य व्रतधारी ये दोनों भ्राता सुशोभित हुए। सीताजीकी पद्धति अर्थात् श्रीसंप्रदायरूप कमलखण्डके लिये ये सुन्दर किरणोंसे युक्त सूर्यनारायणकी भाँति उदित हुए।