पद ०६८


॥ ६८ ॥
कबीर कृपा तें परमतत्त्व पद्मनाभ परचै लह्यो॥
नाम महा निधि मंत्र नाम ही सेवा पूजा।
जप तप तीरथ नाम नाम बिन और न दूजा॥
नाम प्रीति नाम बैर नाम कहि नामी बोले।
नाम अजामिल साखि नाम बंधन तें खोले॥
नाम अधिक रघुनाथ तें राम निकट हनुमत कह्यो।
कबीर कृपा तें परमतत्त्व पद्मनाभ परचै लह्यो॥

मूलार्थ – कबीरजीकी कृपासे पद्मनाभजीने परमतत्त्वका परिचय प्राप्त कर लिया था। उनकी दृष्टिमें रामनाम ही बहुत बड़ी निधि, रामनाम ही मन्त्र, रामनाम ही सेवा और रामनाम ही पूजा है। जप, तप और तीर्थ – सब कुछ नाम ही है। नाम छोड़कर कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं। नामसे ही प्रीति करनी चाहिये। नाम बैर अर्थात् नाम­विमुखोंसे बैर करना चाहिये, अथवा बैर भावमें अर्थात् रुष्ट होकर भी रामनामका ही जप करना चाहिये। नाम कहनेसे नामी बोलता है। अजामिलका प्रसंग साक्षी है कि नामही भव­बन्धनसे व्यक्तिको छुड़ा देता है। नाम श्रीरामसे बड़ा है, यह बात श्रीरामचन्द्रजीके निकट हनुमान्‌जीने कही है। कबीर­कृपासे पद्मनाभजीने यह परमतत्त्वका परिचय प्राप्त किया।

कहा यह जाता है कि पद्मनाभजी बहुत बड़े शास्त्रार्थी थे। ये सबको शास्त्रार्थमें जीतकर काशी आए। लोगोंने कहा कि इन्हें कबीरदासजीके यहाँ उपस्थित करना चाहिये। कबीरदासजीके यहाँ इन्हें उपस्थित किया गया। कबीरदासजीने इन्हें देखा, तो उनके दर्शनसे इनकी शास्त्रार्थवृत्ति समाप्त हो गई। कबीरदासजीने कहा – “मैं शास्त्रार्थ नहीं जानता हूँ पर एक बात तुमसे पूछता हूँ। समझकर पढ़े हो कि पढ़कर समझे हो?” तब पद्मनाभजीने कहा – “मैंने कुछ नहीं किया, मैं आपके चरणोंमें अब आ गया हूँ। आप मेरा उद्धार कीजिये।” तब कबीरदासजीने इन्हें रामनामकी दीक्षा दी।

दक्षिणदेशमें तत्त्वा और जीवा नामके दो भाई रहते थे। इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो सूखे वृक्षको हरा कर देगा, उसीसे दीक्षा लेंगे। दक्षिणदेशमें कबीरदासजी गए और उन्होंने राममन्त्र कहकर जल छोड़कर सूखे वृक्षको हरा कर दिया। तब इन्होंने कबीरदासजीसे दीक्षा ले ली। और यह कहा जाता है कि ये इतने गुरुनिष्ठ थे कि इनके यहाँ लोगोंने विवाह आदि संबन्ध छोड़ दिया। इन्होंने कबीरदासजीसे कहा तो कबीरदासजीने कहा – “ऐसा करो! तुम लोग झूठे दोनों भाईमें सगाईका प्रस्ताव कर लो।” जब सगाईका प्रस्ताव हो गया तो सब लोगोंने इनकी बात मानी और अपनी जातिमें स्वीकार लिया। इसपर नाभाजी कहते हैं –