पद ०६७


॥ ६७ ॥
निपट नरहरियानन्द को कर दाता दुर्गा भई॥
झर घर लकरी नाहिं सक्ति को सदन बिदारैं।
सक्ति भक्त सों बोलि दिनहिं प्रति बरही डारैं॥
लगी परोसिन हौंस भवानी भ्वै सो मारैं।
बदले की बेगारि मूँड़ वाके सिर डारैं॥
भरत प्रसँग ज्यों कालिका लडू देखि तन में तई।
निपट नरहरियानन्द को कर दाता दुर्गा भई॥

मूलार्थ – जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजीके शिष्य नरहर्यानन्दजी महाराजके लिये दुर्गाजी कर देने वाली हो गईं। एक बार बरसातका समय था। झर घर लकरी नाहिंझर अर्थात् बरसातके समयमें घरमें लकड़ी नहीं थी। भगवान्‌के भोग और रागके लिये रसोई कैसे बनाई जाती? तब नरहर्यानन्दजीने सोचा कि दुर्गाजीके मन्दिरको उजाड़ देते हैं वहींसे लकड़ी मिल जाएगी – सक्ति को सदन बिदारैं। जब वे दुर्गाजीका मन्दिर उजाड़ने लगे, तब दुर्गाजीने कहा – “मेरा मन्दिर मत तोड़ो, मैं प्रतिदिन तुम्हारे लिये लकड़ीकी व्यवस्था कर दिया करूँगी।” फिर वे प्रतिदिन बरही अर्थात् एक-एक गठरी लकड़ी डाल दिया करती थीं। यह दृश्य एक पड़ोसिनने देखा। उसने सोचा – “मैं भी भगवतीजीका मन्दिर तोड़ दूँ, तो मुझे भी लकड़ी मिल जाएगी।” और जब मन्दिर तोड़नेके लिये वह पड़ोसिन गई तो भवानीने उसको पटककर मारा, और कहा – “ठीक है, अब यह काम प्रतिदिन तुमको ही दे रही हूँ,” बदले की बेगारि मूँड़ वाके सिर डारैं – “अब तुम ही यह करोगी।” जैसे भरतके प्रसंगमें कालिकाने वधिकोंको मार डाला था, जैसे लड्डूभक्तके प्रसंगमें कालिकाने लड्डूकी रक्षा की थी, उसी प्रकार दुर्गाजीने नरहर्यानन्दजी महाराजके लिये कर दिया और उनके भोग-रागकी व्यवस्था कराई।

यही नरहर्यानन्दजी महाराज जब श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदासजीके गुरुदेव थे, तब ये चित्रकूटमें विराजते थे और निरन्तर भगवत्सेवा और भागवतसेवा करते थे। आज भी चित्रकूटमें कामदगिरिकी परिक्रमामें इनकी गुफा ‘नरहरिगुफा’ दिखती है। यहीं तुलसीदासजीको ले आकर उन्होंने सूकरखेत अर्थात् वाराहक्षेत्रमें रामचरितमानसका उपदेश भी दिया था, जिसके लिये गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा – मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकर खेत (मा. १.३०क)। गोस्वामीजीके द्वारा उल्लिखित सूकरखेतके संबन्धमें विवाद हो सकता है। कुछ लोगोंके अनुसार यह सूकरखेत गोंडामें है, और कुछ लोग इसे सोरोंमें कहते हैं। परन्तु चित्रकूटकी परम्पराके अनुसार कामदगिरिका परिक्रमा­क्षेत्र ही सूकरखेत या वाराहक्षेत्र है, और वहीं आदिवराहका मन्दिर भी है। मेरा विश्वास है कि गोस्वामीजीको यहीं नरहर्यानन्दजीने रामचरितमानसका उपदेश दिया था। श्रीनरहर्यानन्दजी महाराजकी जय!

अब नाभाजी कबीरदासजीके तीन परिकरोंकी चर्चा कर रहे हैं। पहले पद्मनाभजीकी चर्चा करते हैं –