॥ ६५ ॥
महिमा महाप्रसाद की सुरसुरानंद साँची करी॥
एक समै अध्वा चलत वाक छल बरा सुपाये।
देखा देखी सिष्य तिनहूँ पीछे ते खाये॥
तिन पर स्वामी खिजे बमन करि बिन बिस्वासी।
तिन तैसे प्रत्यच्छ भूमि पर कीनी रासी॥
सुरसुरी सुबर पुनि उदगले पुहुप रेनु तुलसी हरी।
महिमा महाप्रसाद की सुरसुरानंद साँची करी॥
मूलार्थ – सुरसुरानन्दजी महाराजने महाप्रसादकी महिमाको सत्य करके दिखा दिया। एक समय अध्वा अर्थात् मार्गपर चलते हुए सुरसुरानन्दजीने किसीके द्वारा दिया हुआ दही-बड़ा यह कहनेपर खाया कि यह रामजीका प्रसाद है। उन्होंने मान लिया और पा लिया। उन्हें विश्वास था कि यह असत् भी होगा तो भी प्रसादबुद्धिसे सत् हो जाएगा। उन्हींकी देखा-देखी उनके शिष्योंने भी उनके पश्चात् उसे पा लिया। उनपर स्वामीजीने खीजकर कहा – “तुमने ऐसा क्यों किया? तुम्हें मेरा अनुकरण नहीं करना चाहिये था, अनुसरण करना चाहिये था।” जो गुरु करे वही शिष्य करे, ऐसी कोई राजाज्ञा नहीं है। जो गुरु करे वह शिष्य करे, ऐसा नहीं है। अपितु जो गुरु कहे, वही शिष्यको करना चाहिये। गुरुकी करनीका अनुकरण नहीं करना चाहिये। गुरुकी कथनीका अनुसरण करना चाहिये। फिर सुरसुरानन्दजीने उनसे कहा – “तुम वमन करो, तुम्हें प्रसादपर विश्वास तो है नहीं।” उन्होंने वमन किया। तिन तैसे प्रत्यच्छ भूमि पर कीनी रासी अर्थात् उन्होंने उसी प्रकारका दही-बड़ा उगल दिया। फिर सुरसुरी सुबर अर्थात् सुरसुरीजीके सुन्दर वर सुरसुरानन्दजीने जब उगल दिया तब उनके मुखसे पुष्प, पुष्पके पराग और हरी तुलसी निकल पड़ी। अर्थात् वह दही-बड़ा नहीं रहा। भगवत्प्रसादके कारण भगवान्के चरणमें चढ़ा हुआ पुष्प, भगवान्के चरणमें चढ़े हुए पुष्पका पराग और भगवान्के चरणमें चढ़ी हुई हरी तुलसी ही वहाँ उपस्थित हो गए। ऐसे सुरसुरानन्दजी महाराजकी जय!