पद ०६४


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भक्ति दान भय हरन भुज सुखानंद पारस परस॥
सुखसागर की छाप राग गौरी रुचि न्यारी।
पद रचना गुरु मंत्र गिरा आगम अनुहारी॥
निसि दिन प्रेम प्रवाह द्रवत भूधर ज्यों निर्झर।
हरि गुन कथा अगाध भाल राजत लीला भर॥
संत कंज पोषन बिमल अति पियूष सरसी सरस।
भक्ति दान भय हरन भुज सुखानंद पारस परस॥

मूलार्थश्रीसुखानन्दजीको शिवजीका अंश माना जाता है। सुखानन्दजीकी भुजा भक्तिका दान करने वाली, भयका हरण करनेवाली और पारसके समान स्पर्श करने वाली थी, अर्थात् जिसको भी उन्होंने छुआ वह लोहा भी सोना बन गया, वह भगवद्विमुख भी भगवद्भक्त बन गया। सुखानन्दजीकी छाप सुखसागर थी, अर्थात् प्रायः वे भगवान् श्रीरामको सुखसागर बोला करते थे। उसी सुखसागर शब्दका प्रयोग गोस्वामीजी करते हैं –

चारिउ रूप शील गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥

(मा. १.१९८.६)

अद्भुत आनन्द है। और भी –

अस तीरथपति देख सुहावा। सुखसागर रघुवर सुख पावा॥

(मा. २.१०६.२)

यह सुखसागरकी छाप सुखानन्दजीकी थी। गोस्वामीजीके इन प्रयोगों और अन्यत्र नररूप हरि (मा. १ मङ्गलाचरण सोरठा ५) इत्यादि प्रयोगोंसे सिद्ध होता है कि गोस्वामीजी स्वयं श्रीरामानन्दाचार्य परम्पराके अनुगामी हैं और श्रीरामानन्दाचार्य परम्परामें ही नरहर्यानन्दजीके शिष्य और रामानन्दाचार्यजीके प्रशिष्य हैं। सुखानन्दजीकी गौरी रागमें अलौकिक रुचि थी। उनकी पदरचना गुरुमन्त्र जैसी होती थी। उनकी वाणी सतत आगमका अनुसरण करती थी। निरन्तर उनके मनमें प्रेमका प्रवाह रहता था। उनके नेत्रसे उसी प्रकार अश्रुपात होता था जैसे पर्वतसे निर्झर अर्थात् झरने गिरते रहते हैं। हरि गुन कथा अगाध – उनके जीवनमें भगवान्‌के गुणोंकी अगाध कथाएँ थीं। उनका मस्तक भगवान्‌की लीलाके भारसे सुशोभित रहा करता था। सुखानन्दजी संतरूप कमलका पोषण करनेके लिये अत्यन्त विमल अमृतके तालाबके समान थे।

सुखानन्दजी महाराजके जीवनकी एक घटना इस प्रकार है। वे एक ब्राह्मण परिवारमें जन्मे थे। उच्च कुलमें उनका लालन-पालन हुआ था। किसी ज्योतिषीने बताया था कि ये जिस दिन एक दर्पण या जलमें अपना मुख देख लेंगे उसी दिन इन्हें वैराग्य हो जाएगा। माता-पिताने संभालनेके यत्न किये। एक दिन बहुत बड़ा महोत्सव मनाया गया। तब उन्होंने अपना मुख दर्पणमें देख लिया। अब क्या था, वैराग्य हो गया। उन्होंने श्रीकाशी आकर जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीके चरणोंमें दीक्षा ली और जगद्गुरुजीने उनका नाम सुखानन्द रखा।

जगद्गुरुजीके एक अद्भुत शिष्य थे, जिनका नाम था सुरसुरानन्द। ये एक कर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवारमें उत्पन्न हुए थे। ये अत्यन्त भगवत्परायण थे। जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीके यहाँ आकर इन्होंने उनसे विधिवत् मन्त्रदीक्षा स्वीकारी थी। जगद्गुरुजीकी आज्ञासे एक अत्यन्त कर्मनिष्ठ ब्राह्मण­कन्याने इनके साथ वरण किया था और वरणके समय यह कहा था – “मैं वासनाके लिये नहीं अपितु उपासनाके लिये आपका वरण कर रही हूँ।” जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीने भी सुरसुरानन्दको संकेत देते हुए कहा – “देखो तुममें नारदजीका आवेश है। नारदजीका मोहिनीसे विवाह हो रहा था और भगवान्‌ रामने उसे निरस्त किया था। उस वासनाकी पूर्तिके लिये हम सुरसुरीको फिर तुम्हारे जीवनसे जोड़ रहे हैं, तुम चिन्ता मत करना।” “तथास्तु,” कहकर सुरसुरानन्दजीने जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीकी आज्ञा स्वीकारी। इन्हीं सुरसुरानन्दजी और सुरसुरीजीकी नाभाजी अगले दो छप्पयोंमें चर्चा करते हैं –