पद ०६३


॥ ६३ ॥
बिदित बात जन जानिये हरि भए सहायक सेन के॥
प्रभू दास के काज रूप नापित को कीनो।
छिप्र छुरहरी गही पानि दर्पन तहँ लीनो॥
तादृस ह्वै तिहिं काल भूप के तेल लगायो।
उलटि राव भयो सिष्य प्रगट परचो जब पायो।
स्याम रहत सनमुख सदा ज्यों बच्छा हित धेन के।
बिदित बात जग जानिये हरि भए सहायक सेन के॥

मूलार्थ – जिस प्रकार गोमाता बछड़ेके लिये सदैव सन्मुख होती है, उसी प्रकार श्याम­सुन्दर भगवान् अपने भक्तोंके सदैव सन्मुख रहते हैं, उनसे कभी भी विमुख नहीं होते। यह बात संपूर्ण संसारमें विदित है और जगत् जानता भी है, और लोग भी जान लें कि भगवान् श्रीराम सेनजीके सहायक बन गए। जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीके ही समय एक विचित्र घटना घटी। आजके मध्यप्रदेशमें बांधवगढ़ नामका एक स्थान है। वहाँ एक नापित अर्थात् नाईका परिवार रहा करता था। उसमें एक व्यक्ति थे जिनका नाम था सेन। वे महाराजा वीरसिंहके यहाँ प्रतिदिन तेल लगाने जाते थे, और समय-समयपर उनका क्षौरकर्म कर देते थे। एकदिन कुछ ऐसा हुआ, संत आ गए, सत्संग होने लगा। सत्संगमें सेनजी इतने तल्लीन हो गए कि वे समय भूल गए। यह भी भूल गए कि उन्हें महाराजके यहाँ जाना है। यह संकट भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजी समझ गए। भगवान्‌ने स्वयं अपने भक्तके लिये नाईका रूप बना लिया। छिप्र छुरहरी गहीछिप्र अर्थात् शीघ्र ही हाथमें छुरहरी छुरी ले ली, जिससे क्षौरकर्म किया जाता है। भगवान्‌ने हाथमें दर्पण भी ले लिया और तेल लगानेके लिये उपकरण – तेल और शीशी – भी ले लिये। भगवान्‌ रामने उसी प्रकार सेनका ही रूप धारण किया और जाकर राजाको तेल लगाया, और उनकी मालिश की। इधर सत्संग संपन्न होनेपर सेनजी दौड़े-दौड़े जा ही रहे थे कि एक सैनिक मिला। उसने पूछा – “क्यों आ रहे हो? अभी तो तुम लौट गए थे।” सेनने कहा – “क्यों मेरी हँसी उड़ा रहे हो, मैं तो अभी आ रहा हूँ।” सैनिक फिर बोला – “नहीं नहीं! अभी तो तुम मेरे सामने महाराजको तेल लगा रहे थे और महाराज बहुत प्रसन्न हो रहे थे कि ऐसी मालिश तो आज तक कभी नहीं की गई।” सेन समझ गए कि मेरे प्रभु राघव­सरकारकी ही लीला है। जब वे राजाके यहाँ पहुँचे, तो राजा बहुत प्रसन्न हुए। राजाने कहा – “आज तो तुमने बहुत सुन्दर मालिश की। बोलो क्या चाहते हो?” सेनजीने कहा – “मैंने मालिश नहीं की थी, मैं तो सत्संगमें डूब गया था, भगवान् राम ही मेरा वेष बनाकर आपकी मालिश करनेके लिये आए थे।” तब वीरसिंहजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा – “सेनजी! आज आपसे मैं दीक्षा लूँगा।” सेनजीने कहा – “थोड़ा-सा रुक जाइये। मैं आपको बताता हूँ।” राघवजीको प्रणाम किया और कहा – “प्रभु! मेरे लिये आपने मेरा रूप बना लिया, नापित बन गए आप!” भगवान्‌ने कहा – “इसमें क्या? जब युधिष्ठिरजीके राजसूययज्ञमें मैं नन्द नाई बन सकता हूँ तो आज सेन नाई बननेमें मुझे क्या आपत्ति है? मुझे तो अभ्यास है। अब तुम ऐसा करो कि काशी जाओ, जगद्गुरु रामानन्दाचार्यसे दीक्षा लो फिर इनको दीक्षा देना।” सेनजी काशी आए, और काशी आकर वे आचार्यजीके चरणोंमें जाना ही चाहते थे कि एक घटना घटी। पञ्चगङ्गा­घाटपर एक संन्यासी आया, उसने इनसे क्षौरकर्म करनेके लिये कहा। इन्होंने स्वीकार कर लिया, संतकी सेवा करनी चाहिये। पूरा मुण्डन हो गया। सिरकी चोटी काटनेकी बात आई। संन्यासीने कहा – “चोटी काटो।” सेनजीने कहा – “यह शास्त्रमें विहित नहीं है।” शास्त्रार्थ हुआ। सेनजीने उस संन्यासीको हरा दिया। फिर रामनन्दाचार्यजीके चरणोंमें यह बात आई। रामानन्दाचार्यजीने इन्हें बुलाया। वे समझ गए कि ये कोई विलक्षण विभूति हैं। उन्होंने सेनजीको दीक्षा दी। तबसे सेनजीने फिर किसीभी अन्य व्यक्तिका क्षौरकर्म नहीं किया, केवल जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीका ही क्षौरकर्म किया। श्रीसेनजी महाराजकी जय!

अब नाभाजी सुखानन्दजीकी चर्चा करते हैं –