पद ०६१


॥ ६१ ॥
पीपा प्रताप जग बासना नाहर को उपदेस दियो॥
प्रथम भवानी भगत मुक्ति माँगन को धायो।
सत्य कह्यो तिहिं सक्ति सुदृढ़ हरि सरन बतायो॥
(श्री)रामानँद पद पाइ भयो अति भक्ति की सीवाँ।
गुन असंख्य निर्मोल संत राखत धरि ग्रीवाँ॥
परस प्रनाली सरस भइ सकल बिस्व मंगल कियो।
पीपा प्रताप जग बासना नाहर को उपदेस दियो॥

मूलार्थ – गागरौनगढ़के महाराज पीपाप्रतापजीने परम हिंसक सिंहको भी उपदेश देकर अर्थात् श्रीराम­मन्त्रकी दीक्षा देकर अहिंसक बना दिया था। नाहर अर्थात् सिंह। सर्वप्रथम पीपाजी भवानीजीके भक्त थे, और उनकी आराधना करके वे मुक्ति माँगनेके लिये उनका ध्यान करते थे। पीपाजीने भगवतीजीसे मुक्ति माँगी – “मुझे मुक्ति दे दी जाए, क्योंकि आप मुक्ति देती ही हैं,” यथा –

सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥

(दु.स.श. १.५७)

तब भगवतीजीने कहा – “नहीं, मुक्तिसे भी श्रेष्ठ है भक्ति। तुम भगवान् श्रीरामकी शरण ले लो, सब समाधान हो जाएगा।” उन्होंने पूछा – “आप कृपा करके समर्थ आचार्य बताइये।” तब भवानीजीने कहा – “इस समय साक्षात् भगवान् श्रीराम ही श्रीरामानन्दाचार्यके रूपमें प्रकट होकर श्रीकाशी­पञ्चगङ्गा­घाटपर विराज रहे हैं, वहाँ पधारो और उन्हींसे श्रीराम­मन्त्रकी दीक्षा लो। तुम्हें भगवान्‌के दर्शन हो जाएँगे।”

पीपाजीने जाकर जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजीके दर्शन किये और उनसे दीक्षाकी बात की। जगद्गुरुने कहा – “ठीक है! मैं तुम्हें दीक्षा देता हूँ, कुएँमें कूद पड़ो।” वे कूद पड़े। “इतना तुम्हारा समर्पण है, ठीक है।” जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजीने पीपाजीको, जिनका बचपनका नाम प्रतापसिंह था, दीक्षा दी और कहा – “जाओ! घरमें सेवा करो, मैं कभी-न-कभी आ जाऊँगा।” एक वर्षके पश्चात् जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजी संतोंके साथ स्वयं पीपाजीके यहाँ पधारे। पीपाजीने बहुत सम्मान-स्वागत किया और उन्हें घरमें पधराया। लगभग एक महीने तक पीपाजीने सेवा की। फिर जब चलनेका समय हुआ, तो स्वयं पीपाजीने आग्रह किया – “मैं भी आपके साथ चलूँगा।” अपने पुत्रको राज्य सौंपा। सभी रानियोंने भी कहा – “हम भी साथ चलेंगी।” पीपाजीने रानियोंसे कहा कि सब लोग सिर मुण्डित कराओ और केवल कटिमें कमली पहन लो, फिर चलो। किसी रानीने नहीं स्वीकारा। परन्तु जो छोटी रानी थीं सीताजी, जिन्हें सीता सहचरी कहा जाता है, उन्होंने पीपाजीकी बात स्वीकार ली और साथ चलनेके लिये आग्रह किया। जगद्गुरु आद्यरामनन्दाचार्यने उनका सीता सहचरी नाम रखा।

जगद्गुरुजी द्वारका पधारे और दर्शन करके वे तो काशी लौट आए, पर पीपाजीने वहीं थोड़े दिन रहनेका अनुरोध कर लिया और वे द्वारकामें रहने लगे। अद्भुत आनन्द आया। उन्होंने एक दिन भगवन्नामका स्मरण करते हुए श्रीकृष्णके दर्शनकी इच्छा की और सागरमें कूद पड़े। भगवान् उन्हें द्वारका ले गए, और दिव्य द्वारकाके दर्शन कराए। सात दिन तक दम्पती द्वारकामें रहे। फिर भगवान्‌ने कहा – “तुम्हें बाहर जाना चाहिये, अन्यथा लोग मिथ्या अपवाद करेंगे कि भगवद्भक्त समुद्रमें डूब गया।” फिर भगवान्‌ने वहीं उनके शरीरपर श्रीशङ्ख-चक्रकी छाप लगाई और कहा – “अब तुम जाओ।” समुद्रके तटपर जब दम्पती आए, तब सब लोग उन्हें देखनेके लिये दौड़े। उनके वस्त्र सूखे हुए थे। दिव्य आनन्द किया।

इसलिये नाभाजी कहते हैं कि पहले तो पीपाजी भवानीके भक्त थे जो मुक्तिको माँगनेके लिये भगवतीजीकी शरणमें आए थे। भगवतीजीने उन्हें कहा – “तुम रामानन्दाचार्यजीके चरणमें जाओ और भगवद्भक्ति स्वीकार करो।” और रामानन्दाचार्यजीके चरणोंको पाकर वे परम धर्मकी अतिशयित सीमाको प्राप्त कर गए। अति भक्ति की सीवाँ – पीपाजी अतिशयिनी भक्तिकी अर्थात् प्रेमा भक्तिकी सीमा बन गए। उनके गुण असंख्य हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं है। उनके गुणोंको संत अपने कण्ठमें धारण करते हैं। उनका स्पर्श करके भगवद्भक्तिकी प्रणाली सरस अर्थात् रसयुक्त हो गई। अथवा पीपाजीके शरीरकी शङ्ख-चक्रकी छापके स्पर्शसे भगवद्भक्तिकी प्रणाली सरस हो गई। उन्होंने संपूर्ण विश्वका मङ्गल किया। उनके जीवनमें अनेकानेक चमत्कार हुए, जिनकी चर्चा टीकाकारोंने की है। उनकी चर्चा विस्तारसे हम भी अपने भक्तकृपाभाष्यमें करेंगे, यहाँ तो अतिसंक्षेपमें मूलार्थबोधिनी टीकाका ही हम निरूपण कर रहे हैं।

भगवद्भक्तिका चमत्कार बढ़ता गया। पीपाजी टोड़ेग्राममें रह रहे थे। वहाँके महाराज भी उनके शिष्य बने। अद्भुत आनन्द हुआ। एक बार सीता सहचरीपर किन्ही दुष्टोंकी कुदृष्टि पड़ गई। जब वे उनके पास आए तो वे उन्हें सिंहनीके रूपमें दिखीं और वे सब भाग गए। एक बार कुछ बंजारे आए और उन्होंने पीपाजीसे बैलके व्यापारकी बात की। पीपाजीने कहा – “ठीक है! कल आना।” उन्होंने अगले दिन आकर देखा तो संतोंका भण्डारा चल रहा था। पीपाजीने कहा – “देखो! यही तो बैल हैं,” क्योंकि वृषो हि भगवान् धर्मः (म.स्मृ. ८.१६), अर्थात् वृष ही भगवान्‌ धर्म हैं या धर्मस्वरूप हैं। पीपाजीने कहा – “इनसे जो माँगना हो माँग लो।” संतोंके चरणमें बंजारोंने मनचाही वस्तु पाई और धन्य हो गए।

एक बार चीधड़ भक्तके यहाँ पीपाजी पधारे। चीधड़जीकी चर्चा नाभाजी आगे चलकर एक सौ उनचासवें पदमें करेंगे – स्यामसेन के बंस चीधर पीपार बिराजैं (भ.मा. १४९)। चीधड़जीकी पत्नी परमभक्तपरायणा थीं परन्तु निष्किञ्चन थीं। उनके पास कुछ नहीं था। उन्होंने चीधड़जीसे कहा – “मेरा लहँगा बेचकर संतोंकी सेवा कीजिये। मैं निर्वस्त्र रहकर ही कोठीमें छिप जाऊँगी।” चीधड़ भक्तने ऐसा ही किया। रसोई हुई। सीता सहचरीने कहा – “चलिये, भक्तानीको भी बुलाइये, सभी लोग साथमें प्रसाद पाएँगे।” चीधड़ भक्तने आनाकानी की। सीता सहचरी समझ गईं। जाकर देखा तो वे निर्वस्त्र कोठीमें छिपी थीं। सीता सहचरीजीने अपनी साड़ीका आधा भाग फाड़कर उन्हें दिया, स्वयं आईं। उन्होंने सोचा कि – “मैं इनकी समस्याका कैसे समाधान करूँ? चलती हूँ, रूपको ही बेच दूँगी। पर इनकी समस्याका समाधान तो होना चाहिये।” और जब बाजारमें सीता सहचरी शृङ्गार करके गईं तब विमुखोंकी दृष्टि भी पावन हो गई और सबने चीधड़जीको धन-धान्य दे दिया।

राजा सूरसेन पीपाजीके भक्त थे। परन्तु धीरे-धीरे उनको इनके आचरणसे कुछ कुभाव होने लगा। एक दिन पीपाजीने कहा – “अपनी रानीको ले आओ।” रानीको वे नहीं लाना चाहते थे, रानी वन्ध्या थीं। अन्तमें पीपाजीने कहा – “मेरी बात मानो, रानीको ले आओ।” सूरसेन जब रानीके पास गए और वहाँ देखा तो महारानी, जिनके पास बालक नहीं था, उनके यहाँ बालक जन्मा हुआ दिखा। प्रसन्न हो गए सूरसेनजी और कहा – “भगवन्! रानीके यहाँ बालक आया है।” पीपाजीने उनसे कहा – “तुमने मेरे प्रति कुभाव किया था ना, गुरुजनोंपर कभी कुभाव नहीं करना चाहिये।” इस प्रकार अनेक दिव्यचरित्र पीपाजीके जीवनमें हैं।

अब नाभाजी धनाजीकी चर्चा करते हैं –