॥ ६० ॥
कबीर कानि राखी नहीं बरनाश्रम षटदरसनी॥
भक्ति बिमुख जो धर्म सोइ अधरम करि गायो।
जोग जग्य ब्रत दान भजन बिन तुच्छ दिखायो॥
हिन्दू तुरुक प्रमान रमैनी सबदी साखी।
पच्छपात नहिं बचन सबन के हित की भाखी॥
आरूढ़ दसा ह्वै जगत पर मुखदेखी नाहिंन भनी।
कबीर कानि राखी नहीं बरनाश्रम षटदरसनी॥
मूलार्थ – कबीरदासजीने वर्णाश्रम और षड्दर्शनी मर्यादाका कभी संकोच नहीं किया। कानि अर्थात् संकोच। उन्होंने कोई संकोच नहीं रखा। जहाँ-जहाँ भी उन्हें परम्परामें पाखण्ड दिखा, वहाँ-वहाँ उन्होंने उसका विरोध किया। वेदोंका अध्ययन न करनेके कारण प्रायः हमारी परम्पराओंमें कहीं-कहीं बहुत विसंगतियाँ आ गईं हैं। और यथासंभव आचार्योंने उन विसंगतियोंको हटानेका यत्न किया है, यह वैदिक मर्यादाका उल्लङ्घन नहीं है। कबीरदासजीकी वाणीको सुनकर कुछ लोगोंको ऐसा लगता है कि वे रामभक्त नहीं हैं, जबकी ऐसा नहीं है। कबीरदासजी परम वैष्णव, परम रामभक्त हैं। उनका जन्म वाराणसीमें लहरताराके पास एक सरोवरके किनारे हुआ था। कहा तो यह जाता है कि कबीरदासजी एक विधवा ब्राह्मणीके गर्भसे प्रकट हुए थे। यह भगवान्का संकेत था। उस ब्राह्मणीने इन्हें तालाबके किनारे छोड़ दिया था। एक जुलाहा थे – नीरू, उनकी पत्नीका नाम था नीमा। उन्होंने ही इनका पालन-पोषण किया था। धीरे-धीरे कबीरदासजीपर भगवान्की भक्तिका रङ्ग चढ़ा। वे एक सद्गुरुकी खोजमें थे – “कैसे किया जाए?” उन दिनों जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीका वर्चस्व बहुत व्याप्त हो चुका था। उनके शिष्यत्वकी कबीरदासजीको ललक थी। उन्हें लोगोंसे समाचार मिला, और भगवान्का संकेत भी हुआ – “जगद्गुरुजी प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्तमें स्नानके लिये गङ्गाजी जाते हैं, तुम पञ्चगङ्गाघाटकी सीढ़ीपर लेट जाओ।” कबीरदासजीने ऐसा ही किया। वे प्रातःकाल जाकर घाटकी सीढ़ीपर लेट गए। संयोग है, आचार्यकी भूल क्यों कहा जाए? भगवान्की लीलाशक्तिने जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीका दाहिना चरण कबीरदासजीकी छातीपर रखवा दिया। अहा! उनकी छातीका स्पर्श करके जगद्गुरुजीको लीलामें थोड़ा-सा अपराधका बोध हुआ। उन्होंने कहा – “बेटा! उठो उठो। राम राम कहो।” कबीरदासजीको जगद्गुरुजीने आजानुबाहुओंसे उठाकर हृदयसे लगा लिया। उसी समय कबीरदासजी एक पद बोल पड़े –
गुरु रामानन्द समुझि पकरियो मोरी बहियाँ॥
बाँह पकरियो तो ऐसी पकरियो कबहुँक छूटन नहियाँ।
जो बालक झुनझुनियाँ खेलै हम तो ऐसो नहियाँ॥
हम तो सौदा रामजी को लैहैं पाखँड पूजा नहियाँ।
कहत कबीर सुनो हे साधो यह पद है निर्बनियाँ॥
जगद्गुरुजी भावुक हो गए। उन्होंने कबीरदासजीको गलेसे लगा लिया और उनका पञ्चसंस्कार किया। लगता है हिन्दूपरम्पराका उदारवाद यहींसे प्रारम्भ हुआ। कबीरदासजी जगद्गुरुजीकी सेवामें लगे। लोगोंने उनका बहुत विरोध किया। जब-जब कुछ होता था, तब-तब वे कहीं-न-कहीं छिप जाते थे। एक बार कुछ पण्डित लोगोंने उनका विरोध किया तो वे जाकर कहीं छिप गए। कबीरदासजीका रूप धारण करके भगवान्ने आकर पण्डितोंको बहुत-सी दक्षिणा दे दी। इसी प्रकार अनेक कौतुक करते रहे।
अत एव नाभाजीने कहा कि भक्तिसे विमुख जो भी धर्म होता था, उसीको उन्होंने अधर्म कहा। उन्होंने भजनके बिना योग, यज्ञ, व्रत और ध्यानको तुच्छ बताया। उन्होंने हिन्दू और तुरुक अर्थात् मुसलमान दोनोंके लिये प्रमाणभूत तीन मूल ग्रन्थोंकी रचना की – रमैनी, सबदी और साखी। और कतिपय लोगोंके मतमें बीजक भी उनकी रचना है। कबीरदासजीने किसीका कभी पक्षपात नहीं किया, उन्होंने सबके हितकी बात कही, और आरूढ़दशा होकर अर्थात् जगत्के प्रपञ्चसे ऊपर उठकर परम भक्तिमें निष्ठा धारण करके कबीरदासजीने जो कुछ कहा, वह किसीकी मुखदेखी नहीं कही, अर्थात् किसीकी चाटुकारिता नहीं की। जहाँ भी उनको जो अनुचित लगा, वहाँ उसका खण्डन किया। जब मुसलमानोंको फटकारना हुआ तो कह दिया कि –
कंकड़ पत्थर जोड़ि कै लई मसीत बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे बहरा भयो खुदाय॥
कंकड़-पत्थरको जोड़कर मसीत अर्थात् मस्जिद बना ली, और वहींसे चिल्लाते हैं, क्या भगवान् बहरे हो गए हैं? क्या भगवान् चिल्लानेपर ही सुनेंगे? इससे क्या लाभ होगा? और हिन्दुओंको भी कहा कि –
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय॥
और –
माला तो कर में फिरै जीभ फिरे मुख माहिं।
मनवा तो दस दिश फिरै ऐसे सुमिरन नाहिं॥
इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने परम्पराका खण्डन किया। उनका तात्पर्य है कि जो भी करो, वह मन लगाकर करो, मनसे करोगे तो सब कुछ ठीक होगा। और यही बात तो गीताजीमें कही गई –
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥
(भ.गी. १७.२८)
अर्थात् बिना श्रद्धाके किया हुआ होम, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप, या जो भी किया जाता है वह असत् कहलाता है। इसलिये जो कुछ करो, उसे श्रद्धासे करना चाहिये, यही तो कबीरदासजीका अभिप्राय है। अब इसको हम न समझें तो उसमें कबीरदासजीका क्या दोष है? उनकी कभी-कभी उलटी वाणी भी होती है, जिसे सामान्य व्यक्ति नहीं समझ पाता। जैसे – कबीरदास की उलटी बानी बरसै कम्बल भीजे पानी। कम्बल बरसता है पानी भीगता है, इसका तात्पर्य क्या है? यह कूटपद है। संस्कृतमें जलको कम् कहते हैं। कं जलं बलं यस्य तत्कम्बलम् अर्थात् जल ही जिसका बल है उस नेत्रको (आँखको) कम्बल कहते हैं। अतः भगवत्प्रेममें आँखसे अश्रुपात हो रहा है और भीजे पानी अर्थात् हाथ भीग रहा है। इस प्रकार कबीरका व्यक्तित्व धन्य हो गया। अन्ततोगत्वा कबीरजीने भगवान्से यही कहा –
माँगत कबिरा बारंबारी। मोहि भवसागर तार मुरारी॥
भगवान् कबीरदासजीके पीछे-पीछे चलते थे। कबीरदासजीने उस दृश्यको देखकर कहा –
कबिरा मन ऐसा भया जैसा गंगानीर।
पाछे पाछे हरि फिरैं कहत कबीर कबीर॥
और भगवान्को कबीरने कहा –
कबिरा कबिरा क्यों कहे जा जमुना के तीर।
एक गोपी के प्रेम में बह गये दास कबीर॥
अद्भुत प्रेम है कबीरका। जब परमपदका प्रकरण आया, तब कबीरने कह दिया कि लोग कहते हैं काश्यां मरणान्मुक्तिः अर्थात् काशीमें मरनेसे मुक्ति होती है। “यदि मैं काशीमें ही मर गया तो रामजीका क्या निहोरा होगा,” – जो कबिरा काशी मरै रामहि कौन निहोर। “इसलिये मुझे मगधमें मरना है, काशीमें नहीं। भगवान्की इच्छा हो तो मुक्त कर दें, न हो तो न करें।” अन्ततोगत्वा कबीरदासजी मगधमें मरने लगे तो भगवान्ने उन्हें गोदमें ले लिया – अविनाशी की गोद में बिहँसा दास कबीर। कबीरके साथ-साथ उनकी पत्नी लोई, एक बेटा कमाल और एक बेटी कमाली – ये सब-के-सब परमभक्त थे। ऐसे कबीरदासजीकी जय!
अब नाभाजी महाराज पीपाजीकी चर्चा करते हैं –