पद ०५८


॥ ५८ ॥
गुरु गदित बचन सिष सत्य अति दृढ़ प्रतीति गाढ़ो गह्यो॥
अनुचर आग्या माँगि कह्यो कारज को जैहों।
आचारज इक बात तोहिं आए ते कहिहौं॥
स्वामी रह्यो समाय दास दरसन को आयो।
गुरु गिरा मान बिस्वास फेरि सब घर को ल्यायो॥
सिषपन साँचो करन हित बिभु सबै सुनत सोई कह्यो।
गुरु गदित बचन सिष सत्य अति दृढ़ प्रतीति गाढ़ो गह्यो॥

मूलार्थ – “गुरुदेवकी वाणी सत्य है,” इसी विश्वासको एक शिष्यने प्रगाढ़ रूपमें अपने हृदयमें धारण कर लिया। एक घटना है। एक बार एक गुरुभक्त शिष्यने अपने गुरुदेवसे कहा – “किसी कार्यके लिये मैं आज कहीं जाना चाहता हूँ।” गुरुदेवने कहा – “ठीक है, एक बात ऐसी है, जो मैं तुम्हारे आनेपर कहूँगा।” शिष्यको विश्वास हो गया, वह चला गया। क्योंकि वह जान गया कि उसके आने तक तो कोई घटना घटेगी नहीं। स्वामी रह्यो समाय – नाभाजी समाय शब्दका प्रयोग करते हैं, जो हमारी संत­परम्परामें अभी भी चलता है। समानाका अर्थ होता है भगवान्‌के चरणोंमें लीन हो जाना। संयोगसे स्वामी अर्थात् गुरुदेव समा गए, उन्होंने अपना लौकिक शरीर छोड़ दिया, और सभी भक्त उनके दर्शनको आ गए। शवयात्रा निकल पड़ी। उसी समय वह शिष्य कार्य करके यहाँ लौटा, तो देखा कि गुरुदेवकी शवयात्रा निकल रही है। पर गुरु गिरा मान बिस्वास – उसने गुरुदेवकी वाणीपर विश्वास माना, और सबको कहा – “मेरे गुरुदेव अभी समाए नहीं हैं, अर्थात् उनका शरीर छूटा नहीं है। सब लोग घरमें आओ। चलो घर सब लोग।” शिष्य सबको घरमें ले आया, और उसने गुरुदेवसे पूछा – “आपश्रीने कहा था ना कि तुम्हारे आनेपर एक बात कहूँगा? बताइए, आज्ञा करें, कौन सी बात है?” सिषपन साँचो करन हित बिभु सबै सुनत सोई कह्यो – शिष्यके प्रणको सत्य करनेके लिये बिभु अर्थात् व्यापक भगवान्‌ने गुरुदेवके रूपमें वही कहा – “आजसे गुरु और गोविन्दको कभी अलग मत मानना। वस्तुतस्तु गुरुदेवको गोविन्दसे अधिक मानना।”

अब नाभाजी पुनः श्रीरामानन्दाचार्यजीके कतिपय प्रधान शिष्योंकी चर्चा प्रारम्भ करते हैं, जिनमें वे श्रीरैदासजी, श्रीकबीरदासजी, श्रीपीपाजी, श्रीधनाजी, श्रीसेनजी, श्रीसुखानन्दजी, श्रीसुरसुरानन्दजी, श्रीसुरसुरीजी, और श्रीनरहर्यानन्दजीकी चर्चा क्रमशः करेंगे। सर्वप्रथम नाभाजी रैदासजीकी चर्चा कर रहे हैं –