॥ ५७ ॥
अंतरनिष्ठ नृपाल इक परम धरम नाहिन धुजी॥
हरि सुमिरन हरि ध्यान आन काहू न जनावै।
अलग न इहि बिधि रहै अंगना मरम न पावै॥
निद्राबस सो भूप बदन तें नाम उचार्यो।
रानी पति पै रीझि बहुत बसु तापर वार्यो॥
ऋषिराज सोचि कह्यो नारि सों आजु भगति मोरी कुजी।
अंतरनिष्ठ नृपाल इक परम धरम नाहिन धुजी॥
मूलार्थ – एक महाराज अन्तर्निष्ठ थे, अर्थात् वे भीतर भगवन्निष्ठा रखते थे, बाहर किसीको नहीं बताते थे। वे परमधर्म अर्थात् भक्तिकी ध्वजा बाहरसे किसीको नहीं दिखाते थे। भगवान्के स्मरण और भगवान्के ध्यानको उन्होंने किसीको नहीं बताया। इतने गोपनीय प्रकारसे वे भगवद्भजन करते थे, कि कोई जान नहीं पाता था। इस प्रकार वे अलग भी नहीं रहते थे, जिससे उनकी पत्नी महारानीको भी उनका मर्म न ज्ञात हो। संयोग था, एक दिन जब महारानी सो गईं और महाराज भी शयन कर गए, तब निद्राके वशमें होकर भी महाराजके मुखसे भगवन्नाम निकल पड़ा – गोविन्द जय जय गोपाल जय जय राधारमण हरिगोविन्द जय जय, श्रीराम जय राम जय जय राम। सुनते ही महारानीकी नींद खुली, और उन्होंने अपने पतिपर रीझकर बहुत बसु तापर वार्यो अर्थात् उनपर बहुत धनकी न्यौछावर कर दी। रानीको लगा कि अब तक मैं भ्रममें थी कि मेरे पति नास्तिक हैं, आज तो इनकी भक्ति देखी। महाराजने पूछा – “यह तुम क्या कर रही हो?” महारानीने कहा – “मैंने आपकी भक्ति देख ली, आप चुपके-चुपके भगवद्भजन करते हैं, मुझे नहीं बताते हैं।” फिर ऋषिराज सोचि कह्यो नारि सों अर्थात् ऋषिरूप राजा शोकसागरमें डूब गए और अपनी पत्नी महारानीसे बोले – “आज तो मेरी भक्ति नष्ट हो गई,” कुजी अर्थात् आज पृथ्वीपर आ गई, बाहर आ गई। कु माने पृथ्वी, कुजी अर्थात् कौ जाता। “जिसे अब तक छिपाए रखा उसे तुमने देख लिया, अब जीनेका कोई लाभ नहीं,” इसी चिन्तामें महाराजने प्राण छोड़ दिये।
तात्पर्य यही है कि भक्ति प्रदर्शनकी वस्तु नहीं है। यह तो जितनी ही गोपनीय रहे, उतनी ही अच्छी है। इसलिये तो व्रजबालाको गोपी कहा जाता है, वे बाहरसे दिखती हैं एक मुखर कामासक्त महिला जैसी, पर भीतरसे वे कितनी भगवान्की भक्ता हैं यह कोई जान नहीं पाता। गोपायन्ति इति गोप्यः अर्थात् जो भगवान्की भक्तिको छिपाकर रखती हैं, वही गोपियाँ हैं। कदाचित् इसीलिये भगवान् उनसे बहुत प्रेम करते हैं, क्योंकि वे प्रदर्शनमें विश्वास नहीं करती, दर्शनमें विश्वास करती हैं। अब एक गुरुविश्वासी भक्तकी कथा कहते हैं –