॥ ५६ ॥
एक भूप भागवत की कथा सुनत हरि होय रति॥
तिलक दाम धरि कोइ ताहि गुरु गोबिँद जानै।
षटदर्शनी अभाव सर्वथा घटि करि मानै॥
भाँड भक्त को भेष हाँसि हित भँडकुट ल्याये।
नरपति के दृढ़ नेम ताहि ये पाँव धुवाये॥
भाँड भेष गाढ़ो गह्यो दरस परस उपजी भगति।
एक भूप भागवत की कथा सुनत हरि होय रति॥
मूलार्थ – एक भगवत्परायण राजाकी कथा सुननेसे भगवान्के चरणोंमें रति हो जाती है। वे राजा तिलक और दाम अर्थात् कण्ठीपर इतनी निष्ठा रखते थे कि कोई भी यदि ऊर्ध्वपुण्ड्र लगा ले और गलेमें कण्ठी धारण कर ले, तो उसे गुरु-गोविन्दके समान जानते थे। षटदर्शनी अर्थात् हमारी वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृतिकी परम्परा, जिसमें उपासनामें छः दर्शनोंकी परम्परा है। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा – इन्हींको षड्दर्शन कहते हैं, और इनकी परम्परासे जो संत चलते हैं, उन्हें षड्दर्शनी संत कहते हैं। अथवा जगद्गुरु शङ्कराचार्यकी परम्परा, जगद्गुरु रामानुजाचार्यकी परम्परा, जगद्गुरु रामानन्दाचार्यकी परम्परा, जगद्गुरु निम्बार्काचार्यकी परम्परा, जगद्गुरु वल्लभाचार्यकी परम्परा, और जगद्गुरु मध्वाचार्यकी परम्परा – इनको षड्दर्शनपरम्परा कहते हैं। यहाँ दर्शन शब्द वेदान्तके वादोंके लिये प्रयुक्त हुआ है। और नाभाजीने इस परम्पराको षड्दर्शनी साधुपरम्परा कहा है। आज भी हमारे यहाँ यही कहा जाता है कि हम षड्दर्शनी साधुओंका भण्डारा करेंगे। अथवा शङ्कराचार्यकी परम्पराको यदि संन्यासी-परम्परा ही मान लें, तो वैष्णव उपासनाकी जो छः परम्पराएँ हैं – रामानुजपरम्परा, रामानन्दपरम्परा, निम्बार्कपरम्परा, मध्वपरम्परा, वल्लभपरम्परा, और मध्वगौडेश्वर परम्परा – इन्हें षड्दर्शनी परम्परा कहते हैं। इसका जिसमें भी अभाव रहता था, उसे वह महाराज सर्वथा घटि करि अर्थात् न्यून ही मानते थे। जिनके गलेमें कण्ठी नहीं होती थी और जिनके मस्तकपर ऊर्ध्वपुण्ड्र नहीं होता था, उनका महाराज कभी सम्मान नहीं करते थे। इसलिये कहा – षटदर्शनी अभाव सर्वथा घटि करि मानै। उनकी परीक्षा लेनेके लिये कुछ भँडकुट अर्थात् फूहड़, विनोदी व्यक्तित्वके लोग एक भाँड़ अर्थात् वाराङ्गनाके साथ तबला बजानेवाले संस्कारहीन व्यक्तिको वैष्णव तिलक और कण्ठी धारण कराकर विनोदके लिये ले आए। महाराज अपने नियमपर अडिग रहे, और उन्होंने उस वेषधारी परन्तु व्यक्तित्वसे अत्यन्त पतित व्यक्तिके भी चरण धो लिये। महाराजके इस दर्शनसे और महाराजके स्पर्शसे उस भाँड़के भी हदयमें भक्ति उत्पन्न हो गई, और उसने भी तिलक और कण्ठीको गाढ़ो अर्थात् दृढ़तापूर्वक धारण कर लिया।
इस प्रकार भगवत्परायण संतोंके दर्शन और स्पर्शसे भी व्यक्तिके जीवनमें बहुत परिवर्तन आ जाता है।
अब नाभाजी एक अन्तर्निष्ठ राजाकी कथा कहते हैं। एक महाराज अन्तर्निष्ठ थे, वे अपनी निष्ठाको भीतर ही रखते थे, वे बाहरसे परमधर्मकी ध्वजा नहीं धारण करते थे। इसलिये नाभाजी कहते हैं –