पद ०५४


॥ ५४ ॥
बच्छहरन पाछें बिदित सुनो संत अचरज भयो॥
जसू स्वामि के वृषभ चोरि ब्रजबासी ल्याये।
तैसेई दिए स्याम बरष दिन खेत जुताये॥
नामा ज्यों नँददास मुई इक बच्छि जिवाई।
अंब अल्ह को नये प्रसिध जग गाथा गाई॥
बारमुखी के मुकुट को रंगनाथ को सिर नयो।
बच्छहरन पाछें बिदित सुनो संत अचरज भयो॥

मूलार्थ – (१) वत्सहरणकी घटना तो पाछें अर्थात् द्वापरमें विदित है ही। ब्रह्माजीने जब व्रजके बछड़ों और ग्वालोंको चुरा लिया था, तब भगवान् ही व्रजमें बछड़े और बालक बन गए थे। परन्तु हे संतों! सुनो, यह आश्चर्य तो कलियुगमें भी हुआ। अर्थात् व्रजमें ही रह रहे जसू स्वामीके बैलोंको व्रजवासी चुरा ले आए। भगवान्‌ने अपने धामकी मर्यादाकी रक्षा की और उन्होंने स्वयं बछड़ों और बैलोंका रूप धारण किया। एक वर्ष पर्यन्त जसू स्वामीके यहाँ भगवान् बैलोंके रूपमें ही रहे। अर्थात् उसी प्रकारके बछड़े और बैल भगवान्‌ने जसू स्वामीको दे दिये। एक वर्ष उन्होंने उनके खेत जुतवाए। जब फिर चोरोंको बुद्धि आई और उन्होंने जसू स्वामीके बैल लौटाए, तब भगवान् अन्तर्धान हो गए।

(२) इसी प्रकार जैसे पहले नामा अर्थात् नामदेवजी महाराजने मृतक गौको जिला दिया था, उसी प्रकार एक नन्ददास नामक भक्त व्रजमें रहते थे। वे बहुत भगवद्भजन करते थे। लोग उनसे ईर्ष्या करते थे। किसीने एक बछड़ीको मारकर उनके खेतमें डाल दिया। लोगोंने अपवाद करना प्रारम्भ किया कि नन्ददासने तो बछड़ी मार डाली। परन्तु नन्ददासजी महाराजने भगवान्‌से प्रार्थना की, और मरी हुई बछड़ी जीवित हो गई।

(३) श्रीअनन्तानन्दजी महाराजके शिष्य अल्हजी महाराज, जिनकी चर्चा सैंतीसवें पदमें की गई है, वे एक बार मार्गमें आ रहे थे। वहाँ उन्हें एक आमका बाग मिला। उन्होंने देखा, सुन्दर-सुन्दर, पके-पके आम लटक रहे थे। अल्हजीके मनमें एक मनोरथ हुआ कि इन पके आमोंका भोग भगवान्‌को लग जाता, तो कितना आनन्द आता। लोगोंने कहा – “ये कैसे होगा?” उन्होंने मालीसे माँगा। मालीने कहा – “राजाने हमें निषेध किया है कि आम किसीको मत देना।” अल्हजीने कहा – “राजाने निषेध किया है, पर भगवान् तो राजाधिराज हैं ना, भगवान्‌के भोगके लिये थोड़े ही राजा निषेध करेगा?” मालीने कहा – “यदि ये झुक जाएँ तो आप ले लीजिये। मैं तोड़ूँगा नहीं।” भगवान्‌की कृपासे आमके वृक्ष झुक गए और अल्हजीको जितनी आवश्यकता थी, उतने पके-पके आम उन्होंने तोड़ लिये और भगवान्‌को नैवेद्य लगाया। मालीने दौड़कर राजाको समाचार दिया। राजाने अल्हजीको प्रणाम किया और उनसे क्षमा माँगी।

(४) इसी प्रकार एक बारमुखी अर्थात् वाराङ्गना थी, जो वेश्यावृत्तिसे अपना जीवन चला रही थी। उसके पास बहुत धन आ गया था। सहसा उसके यहाँ कुछ संत आए। संतोंके दर्शनसे उसकी बुद्धि बदल गई – संत दरस जिमि पातक टरई (मा. ४.१७.६)। फिर उसने संतोंसे कहा – “मैं अपने धनका कैसे उपयोग करूँ?” संतोंने कहा – “इसमें क्या है? तुम रङ्गनाथजीके लिये मुकुट बना दो।” उसने स्वर्णका बहुत सुन्दर मुकुट बनवाया और उसमें सुन्दर-सुन्दर नग जड़वाए। संतोंने कहा – “चलो, हम लोग चलते हैं।” संयोगसे वह ऋतुधर्ममें भी आ गई थी। संतोंने कहा – “ले चलो मुकुट, देखते हैं क्या होगा। यदि भगवान् ऋतुधर्ममें आई हुई द्रौपदीजीकी साड़ीमें प्रवेश कर सकते हैं तो क्या तुम्हारा मुकुट नहीं ले सकते?” वह आई, संतोंके साथ भगवान्‌से प्रार्थना करती रही – “हे पतितपावन! मेरा मुकुट ग्रहण कर लीजिये।” तब भगवान् रङ्गनाथजीका सिर झुक गया। उस वारमुखीने प्रभुको मुकुट धारण करवा दिया।

नाभाजी आगे कहते हैं –