पद ०५२


॥ ५२ ॥
चारों जुग चतुर्भुज सदा भक्त गिरा साँची करन॥
दारुमयी तरवार सारमय रची भुवन की।
देवा हित सित केस प्रतिग्या राखी जन की॥
कमधुज के कपि चारु चिता पर काष्ठ जु ल्याए।
जैमल के जुध माहिं अश्व चढ़ि आपुन धाए॥
घृत सहित भैंस चौगुनी श्रीधर सँग सायक धरन।
चारों जुग चतुर्भुज सदा भक्तगिरा साँची करन॥

मूलार्थचतुर्भुज अर्थात् चार भुजावाले भगवान् अथवा भक्तके द्वारा समर्पित पत्र-पुष्प-फल-जल इन चारोंको स्वीकारने वाले, आरोगने वाले, खाने वाले, ऐसे भगवान् चारों युगोंमें – कृतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलियुगमें – भक्तोंकी वाणीको सत्य करते ही हैं। तीन युगोंकी कथाएँ तो पुराणोंमें लिखी हैं। नाभाजी अब कलियुगकी कथाएँ कहते हैं।

(१) एक बार भुवनसिंह चौहान, जो उदयपुरके राणाके दरबारी थे, राणाके संग शिकार खेल रहे थे। राणाने एक हरिणीके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया। वे हरिणीको पकड़ नहीं पाए। तब भुवनसिंह चौहानने अपना घोड़ा दौड़ाकर अपनी तलवारसे हरिणीको मार डाला। हरिणी सगर्भा थी। वह तड़फड़ा-तड़फड़ा कर मरी। यह देखकर भुवनसिंह चौहानको दया आ गई। उन्होंने तबसे लोहेकी तलवार न लेकर अपनी म्यानमें लकड़ीकी तलवार रख ली। किसी पिशुनने जाकर राणासे चुगली की कि भुवनसिंहके पास तो वास्तविक तलवार है ही नहीं। राणाने पहले तो इनकी बात नहीं मानी। फिर बहुत बार कहनेपर राणाने कहा – “ठीक है, परीक्षण कर लेते हैं।” एक दिन राणाने सभी दरबारियोंको भोजनपर बुलाया और यह कहा – “चलो, आज सभी लोग अपनी-अपनी तलवार दिखाएँगे।” राणाने भी अपनी तलवार दिखा दी। सभी लोगोंने दिखाई। भुवनसिंहकी बारी आई। भुवनसिंहने कहा कि मेरी तलवार भी लोहमय है, जबकि थी वह लकड़ी की। तुरन्त भक्तकी वाणीको भगवान्‌‍ने सत्य कर दिया और भुवनसिंहजीने जब तलवार निकाली तो बिजलीके समान चमकी अर्थात् लकड़ीकी तलवार लोहेकी हो गई।

(२) इसी प्रकार उदयपुरके पास ही श्रीरूपचतुर्भुज स्वामीका मन्दिर है। वहाँ देवाजी नामके पंडा थे, जो भगवान्‌‍की सेवा करते थे। प्रतिदिन सायंकाल राणाजी रूपचतुर्भुज स्वामीके दर्शनको आते थे। एक दिन राणाजी थोड़ा विलम्बसे आए, तब तक देवाजी भगवान्‌‍की माला उतारकर स्वयं अपने गलेमें पहन चुके थे। राणाजी आए, और उन्होंने भगवान्‌‍की माला माँगी। जल्दीसे अपने गलेमें पहनी हुई माला देवा पंडाने राणाजीको दे दी और जल्दी-जल्दीमें देवाजीका एक पका बाल भी मालामें चला गया। राणाजीने कहा – “क्यों पंडाजी, भगवान् शयन कर गए?” पंडाजीने कहा – “जी राणाजी, भगवान् शयन कर गए।” “प्रसाद?” “ये प्रसाद लीजिये।” पंडाजीने प्रसाद दे दिया। “इस मालामें एक बाल रह गया है, किसका बाल है?” पंडाजीके मुखसे निकला – “भगवान्‌का।” “यह तो श्वेत है, भगवान्‌‍के बाल श्वेत हो गए हैं?” “जी।” “ठीक है, कल प्रातः देखूँगा। यदि भगवान्‌‍के बाल श्वेत नहीं हैं, तो समझ लो पंडाजी, तुम भी कल जीवित नहीं बचोगे।” “ठीक है।” राणाजीके चले जानेके पश्चात् देवाजीने भगवान्‌‍से प्रार्थना की – “भगवन्‌! लज्जा रख लीजिये।” और भगवान्‌‍ने लज्जा रखी। देवाजी प्रातःकाल मन्दिर खोलकर देखने लगे तो भगवान्‌‍के सिरके बाल – सब-के-सब – श्वेत थे। राणाजी आए, देवाजीने दिखा दिया। राणाजीने कहा – “अरे! भगवान्‌‍के बाल श्वेत!” देवाजीने कहा – “देखिये न!” उन्होंने देखा, और एक बाल खींचा। भगवान्‌‍को पीड़ा हुई। पीड़ावश उनकी नाक चढ़ गई और केशसे रक्तकी धारा बहने लगी। राणाजीने क्षमा माँगी। रूपचतर्भुज स्वामी भगवान्‌‍ने कहा – “क्षमा तो कर दिया। पर एक दण्ड मिलेगा। आजसे जो भी उदयपुरकी गद्दीपर बैठेगा, वह मेरा दर्शन नहीं करेगा।” इस प्रकार देवा पंडाकी वाणीको सत्य करनेके लिये भगवान्‌‍ने अपने बालोंको श्वेत कर दिया।

(३) इसी प्रकार एक परिवार था जो राणाजीके यहाँ हाज़िरी देता था, और प्रतिदिन उनके दरबारमें जाकर सेवा करता था। उस परिवारमें चार भाई थे। तीन तो दरबारमें सेवा करते थे, पर चौथे भाई कामध्वज वनमें भगवान्‌का भजन करते थे। तीनों भाइयोंने कईं बार कहा– “तुम भी तो चला करो राणाके दरबारमें।” कामध्वजने कहा – “मुझे समय नहीं है।” तीनों भाइयोंने कहा – “समय नहीं है! वैसे भोजन करनेका समय है। ये बताओ, तुम्हारे मरनेपर तुम्हारा दाह­संस्कार कौन करेगा?” कामध्वजने कहा – “मैं जिनका सेवक हूँ, वे ही मेरा दाह­संस्कार करेंगे।” अन्तमें वही हुआ। वनमें ही कामध्वजका शरीर छूटा और किसीको पता नहीं चला। हनुमान्‌जी महाराजको भगवान् श्रीरामजीने स्वयं भेजा और उन्होंने चिता लगाई, कामध्वजके पार्थिव शरीरको चितापर रखा, और स्वयं हनुमान्‌जीने मुखाग्नि दी। सत्य कर दी भगवान्‌ने कामध्वजकी वाणी।

(४) इसी प्रकार जयमलका नियम था कि दस घड़ी तक उनकी पूजामें कोई भी विघ्न नहीं डालेगा। वे भगवान्‌‍की पूजा करते थे। जयमल मेड़ताके अधिपति थे। उन्होंने यह कह रखा था कि भगवान् जो कुछ करेंगे वह हमारे हितमें होगा, सब कुछ भगवान् करेंगे, दस घड़ी तक मैं कुछ भी नहीं करूँगा। एक व्यक्तिने यह समाचार दे दिया कि जयमल तो कुछ भी नहीं करना चाहते, वे सब भगवान्‌‍पर छोड़ रहे हैं। शत्रुओंने आक्रमण कर दिया। किसीने तो कुछ नहीं कहा, पर राजमाताने सोचा कि कुछ भी हो मैं कहूँगी। राजमाताने आकर जयमलको कहा – “बेटे! शत्रुओंने आक्रमण कर दिया है।” जयमलने सहजतामें कह दिया – “माँ! आप विराजिये, साँवरिया सरकार हैं न। वे सब कुछ संभाल लेंगे। मैं पूजन करके ही युद्धमें जाऊँगा।” राजमाता चुप हो गईं। वे भी भगवान्‌का ध्यान करने लगीं। इधर जयमलजीको पूजामें व्यस्त देखकर जयमलके घोड़ेपर चढ़कर स्वयं भगवान् युद्धमें गए। उन्होंने शत्रुओंको पराजित कर दिया, और आकर घोड़ेको घुड़सालमें उसी प्रकार बाँध दिया। इधर जब जयमल पूजा संपन्न करके आए तो उन्होंने घोड़ेको देखा। घोड़ा थका-थका था। फिर उसपर चढ़कर जयमल युद्धमें आए। वहाँ देखा कि शत्रुओंके सैनिक पराजित हो चुके थे। जयमलजी शत्रुओंके सेनानायकके पास आए। उसने कहा – “जयमल! तुम्हारे यहाँसे एक साँवरिया सिपाही आया था। वह बहुत सुन्दर था। वह सबको घायल कर गया। मुझे भी उसने घायल कर दिया। पर मैं तो उसकी सुन्दरताको ही देखता रहा।” जयमलने कहा – “वह साँवरिया सिपाही कोई और दूसरा नहीं था, स्वयं भगवान् ही तो थे।” भगवान्‌‍ने धन्य कर दिया जयमलके व्यक्तित्वको।

(५) इसी प्रकार उदयपुरके समीप एक गाँवमें एक ग्वाल भक्त रहते थे। उनका संत­सेवामें बहुत प्रेम था। घरमें जो कुछ रहता था, वह सब वे संतोंको खिला देते थे। वे वनमें भैंस चराते थे, और भैंसका दूध संतोंको पिला देते थे। एक बार वे संत­सेवामें इतने व्यस्त हो गए, सत्संगमें तल्लीन हो गए, कि उनको पता ही नहीं चला। चोर आए और ग्वाल भक्तकी सभी भैंसोंको चुराकर ले गए। सायंकाल ग्वाल भक्तकी माँने पूछा कि भैंसें कहाँ गईं तो उन्होंने माँसे छिपा लिया और कह दिया – “एक ब्राह्मणको मैंने दे दी हैं। वह भैंस चरा रहा है। समय आनेपर भैंसोंको लौटा जाएगा और घी भी दे जाएगा।” माँने बात मान ली। इधर धीरे-धीरे दीवाली आई। भगवान्‌‍को तो भक्तकी वाणी सत्य करनी थी। भगवान्‌‍ने लीला कर दी। लीला यह की कि चोर मदिरा पीकर नाचने-गाने लगे, उन्होंने भैंसोंकी पूजा की और भैंसोंको चाँदी-सोनेके शृङ्गारोंसे सजाया। संयोगसे सारी-की-सारी भैंसें चोरोंके यहाँसे भाग आईं और भागकर ग्वाल भक्तके द्वारपर आकर खड़ी हो गईं। ग्वाल भक्तने माँसे कहा – “देखा आपने, जितनी भैंसें हमारे यहाँसे गईं थीं, उसकी चौगुनी यहाँ आ गईं, और घी बेचकर ब्राह्मणने इनको अलंकार पहना दिये। हमको चौगुनी भैंसें भी मिलीं, और घीका पूरा-का-पूरा धन भी हमें मिल गया।”

(६) इसी प्रकार भागवतजीके प्रसिद्ध टीकाकार श्रीधराचार्यजी अपने गृहस्थ आश्रममें कहींसे आ रहे थे। वे विद्वान् थे इसलिये उन्हें भागवत­प्रवचनसे बहुत-सा धन मिला था। बीचमें डाकू लोग उन्हें मिल गए और वे उनका धन लूटनेका प्रयास करने लगे। चूँकि श्रीधराचार्यजी भगवान् रामके भक्त थे, भगवान् राम धनुष-बाण लेकर उनके साथ चल रहे थे। जब-जब भी डाकू उनका धन लूटने आते तब-तब भगवान् राम धनुष-बाण लेकर उनके सामने दिखते। ऐसा करते-करते सांयकाल हो गया और श्रीधराचार्यजीका घर आ गया। जब घरमें श्रीधराचार्यजीने प्रवेश किया, तब ठगोंने आकर पूछा – “आपके साथ एक श्याम­सुन्दर युवक धनुष-बाण लेकर चल रहा था, वह कहाँ गया?” श्रीधराचार्यजीने कहा – “वह और कोई नहीं था, भगवान् राम ही तो थे।”

इस प्रकार भगवान् भक्तोंकी वाणीकी रक्षा करते हैं। इसीलिये इस छप्पयमें स्वयं नाभाजी कहते हैं कि चतुर्भुज भगवान् चारों युगोंमें सदैव भक्तोंकी वाणीको सत्य करते आए हैं और करते रहते हैं। जैसे भगवान्‌‍ने भुवनसिंहकी दारुमयी अर्थात् लकड़ीसे बनी तलवारको सारमय रची अर्थात् लोहमय बना दी, देवा पंडाकी वाणीको सत्य करनेके लिये स्वयंके केशोंको श्वेत कर लिया, कामध्वजकी चितापर हनुमान्‌जी स्वयं काष्ठ ले आए और उनका दाह­संस्कार किया, जयमलके युद्धमें भगवान् घोड़ेपर चढ़कर युद्ध करनेके लिये चले गए, ग्वाल भक्तकी चोरों द्वारा चुराई हुईं भैंसोंको घीके सहित चौगुनी करके भगवान्‌‍ने लौटवा दिया, और श्रीधराचार्यजीके साथ धनुष-बाण लेकर भगवान् राम चलते रहे और उनकी डाकुओंसे रक्षा कर ली।

भगवान् सदैव भक्तोंके साथ रहते ही हैं। वे कभी भक्तोंसे दूर नहीं होते। इस सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिये नाभाजी कहते हैं –