पद ०५१


॥ ५१ ॥
आसय अगाध दुहुँ भक्त को हरितोषन अतिसय कियो॥
रंगनाथ को सदन करन बहु बुद्धि बिचारी।
कपट धर्म रचि जैन द्रव्य हित देह बिसारी॥
हंस पकरने काज बधिक बानौं धरि आए।
तिलक दाम की सकुच जानि तिहिं आप बँधाए॥
सुतबध हरिजन देखि कै दै कन्या आदर दियो।
आसय अगाध दुहुँ भक्त को हरितोषन अतिसय कियो॥

मूलार्थ – दो भक्तोंका आशय अत्यन्त अगाध था। आशयका तात्पर्य है विचार, अभिप्राय। इन्होंने भगवान्‌का अत्यन्त परितोषण किया अर्थात् भगवान्‌को परितुष्ट किया, संतुष्ट किया। एक मामा और भांजे दोनोंने श्रीरङ्गनाथजी महाराजको, जिनकी विभीषणजी पूजा करते हैं, एक मैदानमें विराजमान देखा। उनका मन्दिर वहाँ नहीं था। इन लोगोंके मनमें आया कि रङ्गनाथजीका मन्दिर कैसे बनाया जाए, कैसे धन मिले? उन्होंने ध्यानसे एक जैन­मन्दिर देखा। वहाँ पारसमणि थी और घण्टा भी स्वर्णमय था। उन्होंने सोचा – “यह मिले कैसे?” भगवान्‌के लिये उन्होंने जैनधर्म भी कपट रूपमें स्वीकार कर लिया। रातका समय था। दोनों सेवा कर रहे थे। मामाने भांजेसे कहा – “आप बाहर चले जाओ। मैं भगवान्‌की मूर्ति लेकर आता हूँ।” वे बाहर गए, किसी प्रकार द्वार बंद किया, खिड़की खोली और मामा मूर्ति लेकर खिड़कीसे आ रहे थे। प्रसन्नतामें उनका शरीर फूल गया कि ये जा नहीं पा रहे थे। उन्होंने भांजेको मूर्ति दे दी और कहा – “धीरेसे आप मेरा सिर काट दीजिये।” भांजेने सिर काट दिया और तत्पश्चात् वे मूर्तिको ले आए। थोड़ा-सा भी मनमें खेद नहीं हुआ। वे सोच रहे थे – “हम दोनोंने निर्णय लिया था, परन्तु आज मैं अकेले आ रहा हूँ। भगवान्‌की यही इच्छा।” परन्तु आकर देखा, तो मामा भांजेसे पहले ही वहाँ पहुँचकर नींव खुदवा रहे थे।

इसी प्रकार एक राजाको कुष्ठरोग हो गया था। वैद्यने कहा था कि यदि राजहंसोंको पकड़कर लाया जाए, उनके मांस और चरबीसे दवा बने, तब राजाका कुष्ठ ठीक हो जाएगा। हंसोंको कैसे पकड़ा जाता? तो वधिकोंने वैष्णवोंका वेष बनाया और हंसको पकड़नेके लिये आए। हंस तिलक और मालाका संकोच जानकर अपने आप बँध गए। भगवान्‌ने हंसोंकी निष्ठा देखी तब कहा – “अरे! इनकी रक्षा कैसे की जाए?” एक वैद्य बनकर भगवान् आए और कहा – “इन बेचारे हंसोंको छोड़ दो महाराज। हम ऐसी दवा आपको दे रहे हैं जिससे कुष्ठ अपने-आप ही समाप्त हो जाएगा।” भगवान्‌ने हंसोंको छुड़वा दिया और राजाको कुष्ठसे मुक्त कर दिया।

सदाव्रती नामक एक वैश्य थे। वे परम वैष्णव और संत­सेवा­परायण थे। उनके यहाँ एक तथाकथित संतके वेषमें एक युवक आया, और रहने लगा। उनकी बेटीसे उसकी प्रीति हो गई थी। उस युवकने सोचा कि इस वैश्यके बेटेको मारकर हम इनका धन ले जाएँगे। बेटा दिव्य आभूषण धारण किये हुए था। उसे एक स्थानपर ले जाकर उसने मार डाला, मारकर गाड़ दिया और आ गया। इनको पता चला। यह तो अनर्थ हो गया। अन्तमें धीरे-धीरे पता चल गया कि इसी संतवेष­धारीने इस बालककी हत्या की है, फिर भी उन्होंने किसी प्रकारका बुरा नहीं माना और कन्यादान देकर उसका आदर किया।

इस प्रकार भक्तके अगाध आशय, जिनके द्वारा भगवान्‌का तोषण हो, ऐसे दिव्य-दिव्य भक्तोंकी यहाँ चर्चा की गई। भगवान्‌की कैसी लीला और संतोंकी कैसी निष्ठा – ये दोनों ही यहाँ द्रष्टव्य हैं।

नाभाजी अब एक अन्य उद्धरणकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। नाभाजी कहते हैं कि चारों जुग चतुर्भुज सदा भक्त गिरा साँची करन – अर्थात् भगवान्‌ चारों युगोंमें भक्तोंकी वाणीको सत्य करते ही हैं। जैसे कृतयुगमें प्रह्लादजीकी वाणीको सत्य करके भगवान् खम्भेको फाड़कर प्रकट हुए, त्रेतायुगमें विभीषणजीकी वाणीको सत्य करके भगवान्‌ने सपरिवार रावणका वध किया, और द्वापरमें द्रौपदीजीकी वाणीको सत्य करके भगवान्‌ने महाभारतमें संपूर्ण दुर्योधन­परिवारको समाप्त करवा दिया, उसी प्रकार कलियुगमें भी भगवान् भक्तकी वाणीको सत्य करते हैं। कलियुगके न्यूनातिन्यून छः उदाहरण नाभाजी दे रहे हैं –