पद ०४८


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विष्णुस्वामि सँप्रदाय दृढ़ ज्ञानदेव गंभीरमति॥
नाम त्रिलोचन सिष्य सूर ससि सदृस उजागर।
गिरा गंग उन्हारि काब्य रचना प्रेमाकर॥
आचारज हरिदास अतुल बल आनँददायन।
तेहिं मारग बल्लभ बिदित पृथु पधति परायन॥
नवधा प्रधान सेवा सुदृढ़ मन बच क्रम हरिचरन रति।
विष्णुस्वामि सँप्रदाय दृढ़ ज्ञानदेव गंभीरमति॥

मूलार्थ – श्रीविष्णु­स्वामीके संप्रदायमें ज्ञानदेवजी गम्भीर मतिवाले अर्थात् गम्भीर बुद्धिवाले भक्त हुए। श्रीज्ञानदेवके मूलतः दो शिष्य – नामदेव और त्रिलोचन – ये सूर्य और चन्द्रमाके समान उजागर हुए। ज्ञानदेवजीकी वाणी गङ्गाके समान निर्मल थी। उनकी काव्यरचना मानो प्रेमकी खान ही थी, अर्थात् ज्ञानेश्वरीमें उन्होंने प्रेम ही भर दिया। वे भक्तिपथके आचार्य थे। उनमें भगवान्‌का अतुलनीय बल था। वे सबको आनन्द देते थे। उसी मार्गका अनुसरण करनेवाले वल्लभाचार्य महाप्रभु पृथुजीकी पद्धति­पूजामें परायण होकर विदित हुए। वल्लभाचार्य महाप्रभुकी नवधा­प्रधान­सेवा अत्यन्त सुदृढ़ थी अर्थात् उन्हें भगवान्‌के श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदनमें पूर्ण निष्ठा थी। वल्लभाचार्यके मनमें, वाणीमें और कर्ममें भगवान्‌की भक्ति झलकती थी। अथवा ये विशेषण ज्ञानदेवके भी माने जा सकते हैं।

ज्ञानदेवजीके पिताजीका नाम था विट्ठल­पन्त और माताजीका नाम था रुक्मिणी­बाई। एक बार विट्ठल­पन्तके यहाँ एक संत आए। उन्होंने कहा – “मैं श्रीकाशी जा रहा हूँ जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीके दर्शन हेतु।” विट्ठल­पन्तने कहा – “मैं भी चलता हूँ।” अपनी पत्नीको घरका कार्य सौंपकर विट्ठल­पन्त साथ चल पड़े। मार्गमें देखा कि वे संत विश्वामित्र थे और अपनी ओर जब देखा तो लगा कि ये साक्षात् योगिराज जनकजी हैं। बस भावकी मूर्च्छा आ गई और उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मणको उन संतके आगे-पीछे देखा। दोनों ही रामानन्दाचार्यजीके आश्रममें अदृश्य शक्तिके द्वारा पहुँचा दिये गए। श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजने विट्ठल­पन्तको विरक्त दीक्षा देकर उनका नाम भावानन्द रखा। अन्ततोगत्वा, जब जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीके साथ भावानन्दजी पंढरपुर आए तब रुक्मिणी­बाईने उनसे प्रार्थना की – “भगवन्! मुझे इनसे सन्तति चाहिये।” फिर कुछ अग्रिम परिणामका चिन्तन करके जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीने उन्हें गृहस्थ होनेकी ही आज्ञा दे दी। और इन्हीं भावानन्दजीके सम्पर्कसे रुक्मिणी­बाईके यहाँ चार सन्ततियाँ जन्म लीं – श्रीनिवृत्तिनाथजी, श्रीज्ञानदेवजी, श्रीसोपानदेवजी और श्रीमुक्ताबाई। चारों-की-चारों सन्ततियाँ अत्यन्त सिद्ध थीं, ब्रह्मनिष्ठ थीं और योगनिष्ठ थीं।

ज्ञानदेवजी महाराज अपने जीवनके बाईस वर्षोंमें जिस धरातलतक पहुँचे, उसकी कल्पना भी आज नहीं की जा सकती। भगवद्गीतापर उन्होंने ज्ञानेश्वरी टीका लिखी और अपने बड़े भाई निवृत्तिनाथजीसे ही गुरुदीक्षा ली, जो विष्णुस्वामी संप्रदायमें थे। उनके पिताजीकी दीक्षा श्रीजगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजीके चरणोंसे हुई थी और उन्होंने वारकरी संप्रदाय चलाया जिसमें दोनों ठाकुरोंके नामका स्मरण किया – राम कृष्ण हरि। ज्ञानदेवका इस प्रकारका मङ्गलमय चरित्र सर्वथा साधकोंके लिये अनुकरणीय है। ज्ञानदेवजीने बाइसवें वर्षमें ही महाराष्ट्रके आलन्दीमें जीवित समाधि ली। आज भी उनकी समाधिके दर्शन किये जाते हैं और आज भी ज्ञानदेवके दिव्य अनुभव होते रहते हैं।

नामदेवके संबन्धमें चर्चा पहले की जा चुकी है। त्रिलोचनके संबन्धमें एक रोचक कथा है। त्रिलोचनजी एक बड़े परिवारमें जन्मे थे। वे निरन्तर संत­सेवा करते थे। उनके मनमें एक इच्छा बनी रहती थी कि मैं कैसे संत­सेवा करूँगा? संतोंकी भीड़ आती थी, पर पत्नीसे उतना कुछ हो नहीं पाता था। इसलिये भगवान् स्वयं उनके यहाँ अन्तर्यामी नामक सामान्य सेवक बनकर आ गए। त्रिलोचनजीने उनका नाम पूछा। उन्होंने कहा – “मेरा नाम है अन्तर्यामी।” “क्या करोगे?” उन्होंने कहा – “मैं तुम्हारी संत­सेवामें हाथ बटाऊँगा। संतोंकी सेवा करूँगा। दोनों मिलकर संत­सेवाका आनन्द लेंगे। तुम मुझे प्रतिदिन दो सेर अन्न दे दिया करना। हम-तुम दोनों मिलकर खाएँगे, पर यह रहस्य किसीको भी मत बताना। जिस दिन तुमने या तुम्हारी पत्नीने यह रहस्य किसीको बता दिया, उसी दिन मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा।” अन्तमें यही हुआ। उन्होंने सेवा प्रारम्भ की। बहुत आनन्द आने लगा। लगभग दो वर्षों तक यह क्रम चला। एक दिन मूर्खतावश त्रिलोचनजीकी पत्नीने अपनी पड़ोसनसे कह दिया – “मैं क्या करूँ? मेरे यहाँ एक सेवक आया है, बहुत खाता-पीता है। उसका भोजन बनाते-बनाते मैं थक जाती हूँ।” इतना सुनना था कि अन्तर्यामीजी वहाँसे चले गए। त्रिलोचन बहुत विकल हुए। अन्तमें भगवान्‌ने कहा – “मैं तुम्हें दर्शन देता रहूँगा, पर अब सेवक बनकर नहीं रह पाऊँगा, क्योंकि तुम्हारी पत्नीने यह रहस्य दूसरोंको बता दिया है।”