पद ०४७


॥ ४७ ॥
कलिजीव जँजाली कारने विष्णुपुरी बड़ि निधि सची॥
भगवत धर्म उतंग आन धर्म आन न देखा।
पीतर पटतर बिगत निकष ज्यों कुंदनरेखा॥
कृष्णकृपा कहि बेलि फलित सत्संग दिखायो।
कोटि ग्रंथ को अर्थ तेरह बिरचन में गायो॥
महासमुद्र भागवत तें भक्ति रत्न राजी रची।
कलिजीव जँजाली कारने विष्णुपुरी बड़ि निधि सची॥

मूलार्थ – जंजाली कलिकालमें ग्रस्त जीवोंके लिये ही विष्णुपुरीजीने बहुत बड़ी निधि इकट्ठी की। उन्होंने भगवत धर्म अर्थात् भगवान्‌की प्रेमलक्षणा भक्तिको सर्वश्रेष्ठ माना, दूसरे धर्मोंको अन्य मानकर भगवद्धर्ममें ही समाहित कर लिया, अथवा अन्य धर्मोंको भगवद्विरोधी मानकर उन्हें देखा ही नहीं। जैसे निकष अर्थात् कसौटीपर कुन्दन अर्थात् स्वर्णकी रेखाके समक्ष पीतलकी चमक विगत अर्थात् समाप्त हो जाती है उसी प्रकार विष्णुपुरीकी बुद्धिरूपी कसौटीपर कुन्दनरेखा अर्थात् स्वर्णकी रेखाके समान भगवद्धर्म खरा उतरा और पीतलके समान अन्य धर्म निस्तेज हो गए, और उन सबको उन्होंने तुच्छ मान लिया। कृष्ण­कृपाको उन्होंने एक लता बताया और सत्संगको ही उसका फल माना। करोड़ों ग्रन्थोंके अर्थको उन्होंने तेरह बिरचन अर्थात् अध्यायोंमें गा दिया (भक्तिरत्नावली ग्रन्थमें तेरह अध्याय हैं जिन्हें विष्णुपुरीजीने ‘विरचन’ कहा है)। भागवत रूप महासमुद्रसे विष्णुपुरीजीने भक्तिके रत्नसमूहोंको रचा, इकट्ठा किया, व्यवस्थित किया, और श्लोकबद्ध किया।

इनके संबन्धमें संत कहते हैं कि एक बार चैतन्य महाप्रभु श्रीजगन्नाथ­पुरीमें विराज रहे थे। वहाँ यह चर्चा चली कि विष्णुपुरीजी काशीमें रहकर अद्वैतनिष्ठ हो गए होंगे, ज्ञानपक्षका समर्थन कर रहे होंगे। चैतन्य महाप्रभुने कहा – “ऐसा सम्भव नहीं है, भक्त कहीं भी रहे वह अपने मार्गसे नहीं डिगता।” परन्तु लोगोंको विश्वास दिलानेके लिये चैतन्य महाप्रभुने एक परिकरको विष्णुपुरीजीके यहाँ भेजा। उसके साथ एक पत्रमें लिखा – “भगवन्! मुझे आप एक ऐसी माला दे दें जो मुझे बहुत प्रिय लगे।” परिकर पत्र लेकर विष्णुपुरीके पास आया। विष्णुपुरीने पत्र पढ़कर चैतन्य महाप्रभुका अभिप्राय समझ लिया कि वे तो संन्यासी हैं, वे क्या करेंगे मालासे? इसलिये भागवतके श्लोकोंके आधारपर विष्णुपुरीजीने भक्तिरत्नावली नामक ग्रन्थ लिखा और वही उनको भेज दिया।

अब ज्ञानदेवके गुणानुवादमें नाभाजी अपना मन लगाते हुए कहते हैं –