॥ ४४ ॥
जयदेव कबी नृपचक्कवै खँडमँडलेश्वर आन कबि॥
प्रचुर भयो तिहुँ लोक गीतगोविन्द उजागर।
कोक काव्य नवरस सरस शृंगार को सागर॥
अष्टपदी अभ्यास करै तेहि बुद्धि बढ़ावै।
राधारमन प्रसन्न सुनत तहँ निश्चय आवै॥
संत सरोरुह खंड को पद्मापति सुखजनक रबि।
जयदेव कबी नृपचक्कवै खँडमँडलेश्वर आन कबि॥
मूलार्थ – भगवान् आनन्दकन्दकी कृपासे स्वयं जयदेवजी महाराज साक्षात् जगन्नाथजीके रूप माने जाते हैं, और उनके लिये यह कहा जाता है कि स्वयं जगन्नाथजी ही लीला करने के लिये जयदेवके रूपमें आ गए। इसलिये अन्तिम वाक्य नाभाजीका यही है – संत सरोरुह खंड को पद्मापति सुखजनक रबि। जयदेवजी महाराज संस्कृतगीतकविराजाओंके चक्रवर्ती बने, उनके सामने और कवि तो खण्डमण्डलेश्वर अर्थात् छोटे-मोटे राजा बन गए। गीतगोविन्द, जो संस्कृतगीतका महाकाव्य है, वह तीनों लोकमें प्रचुर अर्थात् प्रसिद्ध हो गया। वह कोकरस और काव्यके नौ रसों और सरस शृङ्गारका आगर है। अष्टपदीका जो अभ्यास करते हैं, वह (गीतगोविन्द) उनकी बुद्धिको बढ़ाता है और भगवान् राधारमण उसे सुनते ही प्रसन्न होकर वहाँ निश्चयपूर्वक चले आते हैं। पद्मावतीजीके पति श्रीजयदेवजी संतरूप कमलखण्डोंको सुख देनेके लिये सूर्य भगवान्की भाँति प्रकट हुए।
कहा यह जाता है कि जयदेवजी अत्यन्त निष्किञ्चन वृत्तिसे भगवान्की सेवा करते थे। वे किन्दुबिल्व ग्राममें निवास करते थे। एक बार वहाँ एक ब्राह्मणने आकर कहा – “मैंने अपनी बेटीको जगन्नाथजीको सौंप दिया है। जगन्नाथजीने मुझे आदेश दिया है कि जयदेवजीके साथ तुम इसका विवाह कर दो।” हठ करनेपर भी जब ब्राह्मण नहीं माना तो जयदेव स्वीकार लिये – “ठीक है! भगवान्की जो आज्ञा।” पद्मावतीजीके साथ जयदेवजी विराजमान हो गए।
एक बार भ्रमण करते समय कुछ दुष्टोंने उनकी बहुत पिटाई लगाई, हाथ-पैर सब काट दिये। वे बैठकर भजन कर रहे थे। एक राजाने देखा, पूछा, तो उन्होंने कहा – “कोई बात नहीं, मैं तो इसी रूपमें रहता हूँ अर्थात् मैं तो जगन्नाथ हूँ और जगन्नाथका यही स्वरूप है।” विकलाङ्गोंमें जगन्नाथको देखनेकी अवधारणा यहींसे सिद्ध हुई। महाराज उन्हें अपने यहाँ ले आए और उनका स्वागत किया। जयदेवजीके हाथ-पैर सब ठीक हो गए। फिर वही चोर आए जिन्होंने जयदेवपर हिंसा की थी। जयदेवने उनका बहुत स्वागत किया और कहा – “ये मेरे गुरुभाई हैं।” महाराजने उनका बहुत सम्मान किया और जब वे जाने लगे, बहुत द्रव्य देकर विदा किया। एक बार उन्होंने जयदेवकी निन्दा करनी प्रारम्भ की, तुरन्त पृथ्वी फट गई और वे दुष्टगण उसीमें समाहित हो गए।
इधर जयदेवजीकी पत्नी पद्मावतीके सतीत्वकी महारानीने परीक्षा लेनी चाही। एक बार जयदेवजी महाराजके साथ बगीचेमें थे। रानीने पद्मावतीसे कह दिया कि स्वामीजीकी तो मृत्यु हो गई। सुनते ही पद्मावतीजीने कहा – “नहीं! मृत्यु नहीं हुई, वह तो महाराजको सत्संगका उपदेश कर रहे हैं।” फिर दुबारा उसने इसी प्रकार कहा, तब अपने सतीत्वको प्रमाणित करनेके लिये पद्मावतीजीने अपने शरीरका त्याग कर दिया। अन्तमें महाराज और जयदेवजी आए। जयदेवजीने भगवान्से प्रार्थना की और पद्मावतीजी जीवित हो गईं। फिर जयदेवजी उस राजमहलसे चले गए और अपने ग्राममें ही निष्ठापूर्वक रहने लगे।
जयदेवजीकी प्रतिज्ञा है –
यदि हरिस्मरणे सरसं मनः यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम्॥
(गी.गो. १.४)
अर्थात् यदि भगवान्के स्मरणमें मन सरस है, यदि भगवान्की विलाससकलाओंमें कौतूहल है, तब मधुर और कोमलकान्त पदावलीसे युक्त जयदेवकी सरस्वतीको सुनो। श्रीजयदेवजी महाराजकी जय हो!