॥ ४३ ॥
नामदेव प्रतिग्या निर्बही (ज्यों) त्रेता नरहरिदास की॥
बालदसा बिट्ठल पानि जाके पय पीयो।
मृतक गऊ जिवाय परचौ असुरन को दीयो॥
सेज सलिल ते काढ़ि पहिले जैसी ही होती।
देवल उल्ट्यो देखि सकुचि रहे सबही सोती॥
पँडुरनाथ कृत अनुग ज्यों छानि स्वकर छइ घास की।
नामदेव प्रतिग्या निर्बही (ज्यों) त्रेता नरहरिदास की॥
मूलार्थ – श्रीनामदेवजीकी प्रतिज्ञा उसी प्रकार कलियुगमें भी निभ गई, जिस प्रकार त्रेतामें नरहरिदास प्रह्लादजीकी प्रतिज्ञा निभ गई थी। जैसे प्रह्लादने घट-घटमें श्रीरामके दर्शन करते हुए खंभेमें भी श्रीरामको देख लिया था, उसी प्रकार नामदेवजीने भी कुत्ते और अग्निमें भी भगवान्को देख लिया था। उनके नाना वामदेवजीने किसी आवश्यकतावश कहीं जाते समय इनसे कह दिया था – “नामदेव! भगवान् विट्ठलको प्रेमसे दूध पिला देना! यही तुम्हारी सेवा होगी।” नानाजी चले गए। नामदेवजीने लगभग एक सेर, आजकी भाषामें एक किलो, दूध सुन्दर रीतिसे औटाया, मिश्री-इलायची उसमें पधराई, और भगवान् विट्ठलसे प्रार्थना की – “प्रभु! आज दूध पी लीजिये।” विट्ठलजीने दूध नहीं पिया। दूसरे दिन भी नामदेवजीने वही क्रिया की और फिर भगवान्से विनती की – “भगवान्जी! दूध पी लीजिये, नहीं तो नानाजी मुझे सेवासे वञ्चित कर देंगे।” ऐसा न करनेपर नामदेवजीने तीसरे दिन दूध भगवान्के समक्ष रखा, तुलसीदल पधराया और हाथमें छुरी लेकर वे बैठ गए और बोले – “अब जो दूध नहीं पियेंगे तो अपने पेटमें छुरी भोंक लूँगा।” वे छुरी भोंकना ही चाहते थे कि भगवान्ने हाथ पकड़ लिया और कहा – “लो! मैं दूध पी रहा हूँ।” प्रेमसे भगवान्ने दूध पिया। यह घटना तबकी है, जब नामदेवजी मात्र पाँच वर्षके थे। नानाजी लौटकर आए, पूछा – “दूध पिया भगवान्ने?” कहा – “हाँ! मैंने पिलाया और पिया। दो दिन तक तो बहुत सताया था, तीसरे दिन हमारी बात मान ली।” नानाजीने कहा – “मेरे समक्ष भी पिलाओ।” नामदेवजीने फिर दूध औटाया, उबाला, सुन्दर मिश्री और इलायची पधराई, तुलसीदल पधराकर कहा – “प्रभु! दूध पी लीजिये, नहीं तो नानाजी मुझे सेवा नहीं देंगे, मेरी बातपर विश्वास नहीं करेंगे।” भगवान् जब नहीं पिये, नामदेवजी फिर अपनेको छुरी मारना चाहते थे, और भगवान्ने पी लिया। देखकर नानाजीने कहा – “भगवन्! धन्य है नामदेव! अब तक मैंने भगवान्के दर्शन नहीं किये थे, तुमने भगवान्के दर्शन कर लिये। थोड़ा-सा प्रसाद मुझको भी दिला दो।” नानाजीने भी प्रसाद ले लिया।
धीरे-धीरे नामदेवकी ख्याति बढ़ने लगी। दिल्लीके बादशाहने उन्हें बुलवाया और कहा – “तुम्हें कोई न कोई चमत्कार दिखाना पड़ेगा।” “क्या चमत्कार दिखाऊँ?” बादशाहने कहा – “दिखाना तो पड़ेगा, नहीं तो तुम्हारी हत्या की जाएगी।” बादशाहने एक गौ मार डाली और कहा – “इसे जिला दो।” नामदेवजीने भगवान्से प्रार्थना की और वह गाय जीवित हो उठी। बादशाहने कहा – “मैं क्षमा माँगता हूँ, कुछ भगवान्की सेवा ले लीजिये मुझसे।” नामदेवजीने कहा – “मुझे कुछ नहीं चाहिये।” अन्तमें बादशाहने एक शय्या दी, वह रत्नों व नाना प्रकारके नगोंसे जड़ी थी। बादशाहने कहा – “यह ले जाइये भगवान्के लिये।” नामदेवजीने अपने सिरपर उस सेजको उठा लिया। बादशाहने कहा – “सेवकोंसे भिजवा दूँ?” नामदेवजीने कहा – “नहीं, यह भगवान्के लिये है तो मैं ले जाऊँगा।” मार्गमें आते हुए थोड़ा-सा उन्हें संदेह हुआ कि लोग देखेंगे तो मुझे अन्यथा कहेंगे और सताएँगे। तुरन्त नामदेवजीने अपनी सेजको नदीमें डाल दिया। सेवकोंने आकर बादशाहसे कहा। बादशाहने फिर नामदेवजीको बुलवाया और कहा – “भगवन्! जो सेज मैंने दी थी आपको, उसीके समान दूसरी सेज मुझे बनवानी है तो जरा आप कृपा करके मुझे लौटा दीजिये।” उन्होंने जलमें जाकर उसके समान हजारों सेजें दिखाईं, और कहा – “इनमें जो तुम्हारी हो, वही ले लेना।” हजारों सेजोंको देखते हुए बादशाह बहुत भयभीत हो गया, उसने नामदेवसे क्षमा माँगी। नामदेवजीने कहा – “अब मुझे बार-बार मत बुलाइयेगा, मुझे भजन करने दीजिये।”
संयोगसे नामदेव पंढरपुर आए और भगवान्के रूपको देखकर मग्न हो गए। उन्होंने सोचा – “पनही बाहर रख दूँगा, तो मन लगा रहेगा, अतः इसे फेंटमें बाँध लेता हूँ।” पनही फेंटमें बाँधकर वे मन्दिरमें गए। लोगोंने देख लिया और इनकी बहुत पिटाई की। नामदेवजीने कहा – “बहुत कृपा हुई, मुझे मेरी गलतीका दण्ड मिल गया। अब मैं भगवान्का पद पीछे गाऊँगा।” नामदेवजी मन्दिरके पिछले भागमें बैठकर भगवान्का पद गाने लगे। भगवान्से भक्तका वियोग नहीं सहा गया। उस ओर भी भगवान्ने द्वार कर लिया, उलट गया मन्दिर। देखकर सभी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संकुचित हो गए। एक बार नामदेवजीके घरमें आग लग गई और नामदेवजीने अग्निमें भी भगवान्को देखा – “अरे! ये तो मेरे भगवान् हैं।” नामदेवजीने कहा – “भगवन्! सब कुछ खा लीजिये,” और वे सब वस्तुएँ उठा-उठाकर डालने लगे। गद्गद हो गए भगवान्। भगवान्ने कहा – “तुमने मुझे अग्निमें भी देख लिया?” नामदेवजीने कहा – “हाँ प्रभु! आप जब सर्वत्र रहते हैं तो क्या अग्निमें नहीं रह सकते?” अन्तमें भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और दूसरे दिन स्वयं भगवान्ने एक साधारण सेवकका रूप बनाया और (रुक्मिणीजीने सेविकाका रूप बनाया, इन दोनोंने मिलकर) अपने हाथसे नामदेवजीकी झोंपड़ी बना दी। इस प्रकार नामदेवके भिन्न-भिन्न चरित्र संतपरम्परामें सुने जाते हैं और कहे जाते हैं। जो रोचक चरित्र थे उनकी चर्चा नाभाजीने कर दी। श्रीनामदेव महाराजकी जय हो!