पद ०४२


॥ ४२ ॥
कलिजुग धर्मपालक प्रगट आचारज शंकर सुभट॥
उच्छृंखल अग्यान जिते अनईश्वरवादी।
बौद्ध कुतर्की जैन और पाखंडहि आदि॥
बिमुखन को दियो दंड ऐंचि सन्मारग आने।
सदाचार की सींव बिश्व कीरतिहिं बखाने॥
ईश्वरांस अवतार महि मर्यादा माँडी अघट।
कलिजुग धर्मपालक प्रगट आचारज शंकर सुभट॥

मूलार्थ – इस कलिकालमें धर्मपालक और सुभट अर्थात् विमुखोंसे युद्ध करने वाले आचार्य शङ्करजी प्रकट हुए अर्थात् शङ्कराचार्यजीका प्राकट्य हुआ। उन्होंने उच्छृङ्खल, अज्ञानी और अनीश्वरवादी नास्तिकोंको जीता। इनमें बौद्ध, कुतर्की, जैन और पाखण्डी आदियोंको भी उन्होंने जीता। उन्होंने विमुखोंको दण्ड दिया। वे सबको खींचकर सन्मार्गपर ले आए, सदाचारकी सीमा बने रहे और विश्वने उनकी दिव्य कीर्तिका बखान किया। भगवत्पाद शङ्कराचार्यजी पृथ्वीपर ईश्वरांशके अवतार थे, अर्थात् शङ्करजीके अंशावतार भगवत्पाद शङ्कराचार्य थे। उन्होंने ऐसी अभेद्य मर्यादाका मण्डन किया, जिसका कोई खण्डन नहीं कर सकता अर्थात् भारतकी चारों दिशाओंमें पीठ बनाकर वर्णाश्रमधर्मकी व्यवस्था की।

कहा यह जाता है कि केरलमें कालडी नामक ग्राममें शिवभट्ट और सुभद्रा माताजीके यहाँ एक भविष्णु बालकका जन्म हुआ। पिताकी मृत्युके पश्चात् माताजीने ही उनका पालन-पोषण किया। शङ्कराचार्यजीने भगवत्कृपासे अतिशीघ्र शास्त्रोंका अध्ययन कर लिया था। एक बार शङ्कराचार्यजीने कहा था – “माँ! जब आप कहेंगी तभी मैं संन्यास लूँगा।” संयोगसे आठ वर्षकी अवस्थामें वे एक नदीमें स्नान कर रहे थे, उसी समय एक मगरमच्छने शङ्कराचार्यजीको पकड़ लिया। शङ्कराचार्यने अपनी माँसे कहा – “यदि आप कह देंगी कि इस बालकको मैं भगवान्‌को दूँगी, तभी मगरमच्छ मुझे छोड़ेगा, नहीं तो खा जाएगा।” माँने कह दिया, मगरमच्छने शङ्कराचार्यजीको छोड़ दिया। शङ्कराचार्यजीने कहा – “मैं संन्यास लेने जा रहा हूँ।” माँने कहा कि मेरे अन्तिम समयमें तुम्हें उपस्थित रहना पड़ेगा। शङ्कराचार्यने “तथास्तु” कह दिया। फिर नर्मदा­तटपर ॐकारेश्वरकी गुफामें विराजमान गोविन्दपादसे उन्होंने संन्यासकी दीक्षा ली और सनातन धर्मका प्रचार किया। उन्होंने प्रस्थानत्रयीपर अद्वैतवाद­मतानुसार भाष्य लिखे। बहुत-से प्रकरण­ग्रन्थ भी शङ्कराचार्यने लिखे। यह सब कुछ होनेपर भी शङ्कराचार्यके मनमें भगवान्‌की भक्ति थी, इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं करना चाहिये। उन्होंने स्वयं जगन्नाथ स्वामीके लिये कह दिया – जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे (ज.अ. १-८) और अपनी चर्पटपञ्जरिकामें कहा – भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते (च.प.स्तो. १)। इसी स्तोत्रमें सबको समझाकर उन्होंने कहा –

गेयं गीता नामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम्॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते।

(च.प.स्तो. २७)

गीताजीके अनन्याश्चिन्तयन्तो माम् (भ.गी. ९.२२) पर जैसा भाष्य शङ्कराचार्यजीने लिखा है, इतना भक्तिपरक भाष्य तो वैष्णवाचार्योंका भी नहीं दिखाई पड़ता। शङ्कराचार्यजी भगवान् श्रीकृष्णके अनन्य भक्त थे। इस तथ्यके स्पष्टीकरणके लिये हम शङ्कराचार्य विरचित षट्पदीस्तोत्र यथावत् उद्धृत कर रहे हैं –

अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषयमृगतृष्णाम्।
भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः॥ १ ॥
दिव्यधुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानन्दे।
श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे वन्दे॥ २ ॥
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्।
सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः॥ ३ ॥
उद्धृतनग नगभिदनुज दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे।
दृष्टे भवति प्रभवति न भवति किं भवतिरस्कारः॥ ४ ॥
मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवतावता सदा वसुधाम्।
परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतोऽहम्॥ ५ ॥
दामोदर गुणमन्दिर सुन्दरवदनारविन्द गोविन्द।
भवजलधिमथनमन्दर परमं दरमपनय त्वं मे॥ ६ ॥
नारायण करुणामय शरणं करवाणि तावकौ चरणौ।
इति षट्पदी मदीये वदनसरोजे सदा वसतु॥

अर्थात् हे विष्णु भगवान्! मेरी उद्दण्डता दूर कीजिये, मेरे मनका दमन कीजिये और मेरी विषयोंकी मृगतृष्णाको शान्त कर दीजिये, प्राणियोंके प्रति मेरा दयाभाव बढ़ाइये और इस संसार­सागरसे मुझे पार उतारिये॥ १ ॥

(मैं) भगवान् लक्ष्मीपतिके उन चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जिनका मकरन्द गङ्गा और सौरभ सच्चिदानन्द है तथा जो संसारके भय और खेदका छेदन करनेवाले हैं॥ २ ॥

हे नाथ! (मुझमें और आपमें) भेद न होनेपर भी, मैं ही आपका हूँ, आप मेरे नहीं, क्योंकि तरङ्ग ही समुद्रकी होती है, तरङ्गोंका समुद्र कहीं नहीं होता॥ ३ ॥

हे गोवर्धनधारिन्! हे इन्द्रके अनुज (वामन)! हे राक्षसकुलके शत्रु! हे सूर्य-चन्द्ररूपी नेत्रवाले! आप जैसे प्रभुके दर्शन होनेपर क्या संसारके प्रति उपेक्षा नहीं हो जाती? अर्थात् आपके दर्शनसे संसारके प्रति उपेक्षा अवश्य ही हो जाती है॥ ४ ॥

हे परमेश्वर! मत्स्यादि अवतारोंसे अवतरित होकर पृथ्वीकी सर्वदा रक्षा करनेवाले आपके द्वारा संसारके त्रिविध तापोंसे भयभीत हुआ मैं रक्षणीय हूँ॥ ५ ॥

हे गुणमन्दिर दामोदर! हे मनोहर मुखारविन्द गोविन्द! हे संसार-समुद्रका मन्थन करनेके लिये मन्दराचलरूप! मेरे महान् भयको आप दूर कीजिये॥ ६ ॥

हे करुणामय नारायण! मैं सब प्रकारसे आपके चरणोंकी शरण हूँ। यह पूर्वोक्त षट्पदी सर्वदा मेरे मुखकमलमें निवास करे॥

इसी आशयसे भक्तमालके प्रणेता श्रीनारायणदास नाभाजीने अपने भक्तमाल जैसे भक्तचरित­प्रधान ग्रन्थरत्नमालमें जगद्गुरु श्रीशङ्कराचार्यको भी भगवदीय भक्तोंकी पङ्क्तिमें विराजमान किया। इस प्रकार भले ही शङ्कराचार्य अद्वैतवादका प्रचार करते हों, परन्तु भीतरसे वह भगवान्‌के परम भक्त थे। इसलिये उन्हें भगवान् शङ्करका अंशावतार कहा जाता है। ऐसे शङ्कराचार्य महाराजकी जय!

और अब नाभाजी महाराष्ट्रके संतकी चर्चा करते हैं –