॥ ४१ ॥
(श्री)अग्रदास हरिभजन बिन काल बृथा नहिं बित्तयो॥
सदाचार ज्यों संत प्राप्त जैसे करि आये।
सेवा सुमिरन सावधान (चरन) राघव चित लाये॥
प्रसिध बाग सों प्रीति स्वहथ कृत करत निरंतर।
रसना निर्मल नाम मनहु बरषत धाराधर।
(श्री)कृष्णदास कृपा करि भक्ति दत मन बच क्रम करि अटल दयो।
(श्री)अग्रदास हरिभजन बिन काल वृथा नहिं बित्तयो॥
मूलार्थ – श्रीअग्रदासजी महाराज भगवान्के भजनके बिना व्यर्थ काल नहीं बिताते थे, अर्थात् उन्होंने जीवन-भर केवल भगवान्का भजन किया। जिस प्रकार संतपरम्परासे सदाचार प्राप्त हुआ, उसी प्रकार उसका उन्होंने अनुष्ठान किया। भगवान्की शारीरिक और मानसी सेवामें वे सावधान रहते थे। उन्होंने श्रीराघवके चरणकमलमें अपना चित्त लगा रखा था। प्रसिद्ध बाग अर्थात् सीतामनोरञ्जनीबागसे उनको अत्यन्त प्रेम था। वे निरन्तर बागकी सफ़ाईका कृत्य अपने हाथसे करते थे अर्थात् स्वयं बागमें झाड़ू-बहारू करते थे और उसे सींचते थे, उसमें फूल लगाते थे, सब कुछ अपने हाथसे करते थे। उनकी जिह्वासे श्रीरामनामकी धुन उसी प्रकार होती थी मानो बादल जलवृष्टि कर रहा हो। श्रीकृष्णदासजी महाराजके द्वारा कृपा करके दी हुई भक्तिमें उन्होंने मन, वाणी और कर्मसे अपनेको लगा दिया था, अपने आपको समर्पित कर दिया था। उन्होंने जीवन-भर भगवद्भजनके बिना अपने एक क्षणको भी व्यर्थ नहीं गँवाया।
यही अग्रदासजी महाराज भक्तमालके रचयिता श्रीनारायणदास गोस्वामी नाभाजीके श्रीसद्गुरुदेव थे। इन्हींसे नाभाजी महाराजको श्रीराममन्त्रकी विरक्तदीक्षा मिली थी। एक बार अपने बागमें झाड़ू-बहारू करके श्रीअग्रदासजी महाराज अपनी कुटियामें श्रीसीतारामजीके ध्यानमें बैठे थे। उसी समय जयपुरके महाराज मानसिंह उनके दर्शनको आए। उन्हें समाचार मिला, उन्होंने मन्दिरमें महाराजको बुला लिया, और वे स्वयं चले गए बगीचेमें। जब तक जयपुरके महाराज वहाँसे नहीं आए, तब तक श्रीअग्रदासजी भी अपनी कुटियामें नहीं आए – ऐसे श्रीअग्रदासजी महाराजकी जय हो!
अब रामानन्दीय श्रीवैष्णवोंकी चर्चा करनेके पश्चात् नाभाजी महाराज अन्य आचार्योंकी भी चर्चा कर रहे हैं। जगद्गुरु आद्य शङ्कराचार्यकी चर्चामें नाभाजीका दृष्टिकोण कुछ विलक्षण है। वे कहते हैं –