पद ०४०


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गांगेय मृत्यु गंज्यो नहीं त्यों कील्ह करन नहिं काल बस॥
राम चरन चिंतवनि रहति निसि दिन लौ लागी।
सर्वभूत सिर नमित सूर भजनानँद भागी॥
सांख्य जोग मत सुदृढ़ कियो अनुभव हस्तामल।
ब्रह्मरंध्र करि गमन भए हरितन करनी बल॥
सुमेरदेवसुत जगबिदित भू बिस्तार्यो बिमल जस।
गांगेय मृत्यु गंज्यो नहीं त्यों कील्ह करन नहिं काल बस॥

मूलार्थ – जिस प्रकार गाङ्गेय अर्थात् गङ्गानन्दन भीष्मजीको मृत्युने नहीं नष्ट किया, उसी प्रकार कील्ह करन अर्थात् कील्हदासजी महाराज कालके वशमें नहीं हुए। श्रीकील्हदासजी महाराजके जीवनमें क्या-क्या घटा, वह अब आगे कहते हैं। रातों-दिन उनके मनमें श्रीरामजीके चरणकमलका चिन्तन चलता रहता था, निश-दिन उनको लौ लगी रहती थी, संपूर्ण भूतप्राणी उनके चरणोंमें सिर नवाते रहते थे। वे काम, क्रोध, लोभ आदिको जीतकर भजनानन्दके भागी बन गए थे। उन्होंने सांख्य और योग, दोनों मतोंका सुदृढ़ अनुभव हस्तामलकवत् कर लिया था, अर्थात् सांख्यका भी अनुभव किया था और योगका भी अनुभव किया था। और वे ब्रह्मरन्ध्रसे गमन करके अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र­भेदन करके प्राण त्यागकर अपनी करनीके बलसे भगवान्‌के श्रीविग्रह बन गए थे अर्थात् भगवान्‌के श्रीविग्रहमें लीन हो गए थे। उनके पिताश्रीका नाम था सुमेरुदेव। सुमेरुदेवके पुत्र श्रीकील्हदासजी महाराज जगत्‌में विदित हुए और उन्होंने पृथ्वीपर निर्मल यशका विस्तार किया। जिस प्रकार भीष्मको कालने नहीं खाया, उसी प्रकार कील्हदासजी महाराज कालके वश नहीं हुए।