पद ०३८


॥ ३८ ॥
निर्वेद अवधि कलि कृष्णदास अन परिहरि पय पान कियो॥
जाके सिर कर धर्यो तासु कर तर नहीं आड्यो।
अर्प्यो पद निर्बान सोक निर्भय करि छाड्यो॥
तेजपुंज बल भजन महामुनि ऊरधरेता।
सेवत चरनसरोज राय राना भुवि जेता॥
दाहिमा बंस दिनकर उदय संत कमल हिय सुख दियो।
निर्वेद अवधि कलि कृष्णदास अन परिहरी पय पान कियो॥

मूलार्थ – कलियुगमें पतितपावन श्री श्री १००८ श्रीकृष्णदासजी पयहारीजी महाराज निर्वेद अर्थात् वैराग्यकी अवधि ही थे। उन्होंने अन्न छोड़कर जीवन-भर पयपान कियो अर्थात् केवल दूध ही पिया। चूँकि पयका ही वे आहार करते थे इसलिये उनको पयहारी कहा जाने लगा। श्रीकृष्णदासजी महाराजने जिसके सिरपर अपना हाथ रखा, उसके हाथके नीचे अपना हाथ नहीं रखा अर्थात् उससे कुछ माँगा नहीं, प्रत्युत उसे निर्वाणपद अर्पित कर दिया, उसे शोकसे निर्भय करके ही छोड़ा। श्रीकृष्णदासजी महाराज तपस्याके कारण तेजके पुञ्ज थे, उनमें भजनका बहुत बड़ा बल था, वे महामुनि थे, और वे ऊर्ध्वरेता अर्थात् अखण्ड ब्रह्मचारी थे। पृथ्वीपर जितने राय अर्थात् बड़े राजागण और राना अर्थात् छोटे राजागण थे, वे सब उनके चरणकमलकी सेवा करते थे। दाहिमा बंस अर्थात् दधीचिवंशमें सूर्यके समान उदित होकर उन्होंने संतरूप कमलोंके हृदयको सुख दिया, और कलियुगमें वैराग्यकी सीमा बनकर अन्न छोड़कर जीवन-भर पय पान किया।

श्रीपयहारीजीके संबन्धमें बहुत सी कथाएँ कही जाती हैं। प्रथम कथा उनकी यह है कि वे जयपुरके पास गालव ऋषिकी तपोभूमि गालताकी पहाड़ीपर भजन करते थे। वहाँके राजाके गुरु हुआ करते थे वेदविरुद्ध योगकी साधना करने वाले कनफटे योगी, जो कुछ सिद्धियाँ प्राप्त कर चुके थे। कनफटे योगीको लौकिक सिद्धियोंपर विश्वास था और वहाँके जयपुरके राजाको भी उन्होंने उन सिद्धियोंके चमत्कारसे प्रभावित कर लिया था। पयहारीजी महाराज धूनी लगाकर अर्थात् अखण्ड धूनी तापते हुए तपस्या करते थे। एक बार कनफटे गुरुने पयहारीजी महाराजसे कहा – “आप अपनी धूनी उठाकर यहाँसे चले जाइये।” पयहारीजी महाराजने अग्नि यथावत् अपने हाथपर रखकर दूसरे स्थानपर निवास कर लिया। फिर भी जब कनफटे योगी उनको सताते रहे, पयहारीजीने हँसकर कहा – “जा तू गधा हो जा।” कनफटा योगी गधा बन गया। राजा आया, ढूँढने लगा अपने गुरुको और उसके शिष्यगण भी उसे ढूँढने लगे। पयहारीजीने कहा – “जाओ! देखो वहीं-कहीं गधा बनकर चर रहा है।” देखा तो सही, वह गधा बनकर घास चर रहा था। अन्तमें पयहारीजी महाराजसे वहाँके राजाने अनुनय-विनय किया तो उन्होंने फिर उस कनफटे योगीको उसके निजी स्वरूपसे युक्त कर दिया और कहा – “अब संतोंको कभी छेड़ना नहीं।”

इसी प्रकार एक बार हिमाचलकी पहाड़ी कुल्लूमें वहाँके महाराज संकटमें पड़ गए और कहा तो यह जाता है कि एक ब्राह्मणको उन्होंने सताया, उससे मोती माँगा, जबकि उनके पास मोती नहीं था। ब्राह्मणने स्वयंके शरीरको काट-काटकर अग्निमें स्वाहा कर दिया। फिर महाराजको कोढ़ हो गया, जिसका समाधान करनेके लिये लोगोंने कहा कि पयहारीजी महाराजके यहाँ चलना चाहिये। महाराजके यहाँ राजा आया। पयहारीजी महाराजने कहा – “अयोध्यामें त्रेतानाथजीका मन्दिर है, वहींपर हनुमान्‌जी महाराजके द्वारा जो श्रीरामकी मुद्रिका ग्रहण की गई थी, जिसे सीताजीने अपने पास रखा था, वह मुद्रिका आज भी विराजमान है। वहाँ जाइए और वहाँसे रघुनाथजीको यहाँ लाकर स्थापित कीजिये, आपका कल्याण हो जाएगा।” महाराजने ऐसा ही किया, कुल्लूमें रघुनाथजी महाराजका मन्दिर बनवाया, और महाराजका संकट दूर हुआ। पयहारीजी महाराज वहाँ तपस्या करते थे। आज भी कुल्लू महाराजके भवनमें पयहारीजी महाराजका वह अंगरखा कुर्ता जिसे वे धारण करते थे, उनका चिमटा, और उनके कुछ अन्य उपकरण पड़े हुए हैं, जिनके दर्शन इस टीकाकारने स्पर्श करके किये हैं। इस दासको उनके दर्शन करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ऐसे पयहारीजी महाराजका मूल नाम कृष्णदास तो है ही, कुछ लोग उन्हें पयहारीजी महाराज और कुछ लोग उन्हें पतितपावन भी कहा करते हैं। पयहारीजी श्रीमहाराजकी जय हो!