पद ०३६


॥ ३६ ॥
(श्री)रामानँद रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियो॥
अनंतानंद कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावती नरहरी।
पीपा भावानंद रैदास धना सेन सुरसुर की घरहरी॥
औरो सिष्य प्रसिष्य एक ते एक उजागर।
जगमंगल आधार भक्ति दसधा के आगर॥
बहुत काल बपु धारी के प्रनत जनन को पार दियो।
(श्री)रामानँद रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियो॥

मूलार्थ – जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीने तो श्रीरघुनाथजीकी ही भाँति संसार­सागरको पार करनेके लिये दूसरा सेतु बना दिया। तात्पर्य यही है कि रघुनाथजीका सेतु तो केवल वानरोंको पार कर सका था, वह भी पूरे वानर उसमें नहीं आ सके थे, यथा –

सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहि।
अपर जलचरन ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहिं जाहिं॥

(मा. ६.४)

परन्तु हमारे जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजीने तो ऐसा सेतु बनाया, जो संपूर्ण संसार­सागर­तितीर्षुओंके लिये सेतु बन गया, चाहे वे किसी भी कोटिके हों, चाहे वे विषयी हों, साधक हों अथवा सिद्ध हों। गुरुवार, माघ कृष्ण सप्तमी, विक्रमी संवत् १३५६के दिन (तदनुसार १४ जनवरी १३०० ईस्वीको) प्रातःकाल प्रयाग­निवासी वशिष्ठगोत्रीय श्रीपुण्यसदन शर्माकी धर्मपत्नी सुशीलाजीके गर्भसे एक अद्भुत बालकका प्राकट्य हुआ। वही संपूर्ण मङ्गल वहाँ उपस्थित हुए, जो रामजीके जन्मके समय उपस्थित हुए थे। सभी लोगोंने जय-जयकार की। अन्नप्राशनमें उन्होंने केवल खीर खाई। उनका नाम रखा गया रामदत्त शर्मा। जब उनका यज्ञोपवीत हुआ और यज्ञोपवीतकी परम्पराके अनुसार जब वे घर छोड़कर पढ़ने गए तो अन्य बालकोंकी भाँति लौटे नहीं। उन्होंने कहा – “मैं नाटक नहीं करता, जब घर छोड़ दिया तो छोड़ दिया, अब नहीं लौटूँगा।” वे नहीं लौटे। उन्होंने काशी जाकर संपूर्ण शास्त्रोंका अध्ययन किया और राघवानन्दाचार्यजीसे श्रीराममन्त्रकी दीक्षा ली। जैसा कि पूर्व छप्पयके मूलार्थमें कह चुके हैं, सुशीला और पुण्यसदनके दीक्षा देनेके अनुरोधको न स्वीकार कर, मर्यादाका भङ्ग जानकर, आचार्यचरण सहसा अन्तर्धान हो गए। फिर वे राममन्त्रके पुरश्चरणके पश्चात् प्रकट हुए और फिर सबको दिव्य दीक्षा दी। उन्होंने अनुग्रहा-निग्रहा शक्ति संपन्न शङ्ख बजाया। उन्हें शङ्ख प्रिय था। पञ्चगङ्गा घाटपर कुटिया बनाकर उन्होंने अपने जीवनकी साधना प्रारम्भ की। उन्होंने दिग्विजय करके सभी विधर्मियोंको जीता, हिन्दुओंके ऊपरसे जज़िया कर आदि भयंकर प्रतिबन्धोंको हटवाया और मुस्लिम शासकोंको भी अपने चरणपर मत्था टेकनेके लिये विवश कर दिया। उन्होंने एक-साथ श्रीअयोध्याके सरयूतटपर पच्चीस लाख ऐसे लोगोंको पुनः शिखा-सूत्र प्रदान कर दिया, जो विवशतामें हिन्दू धर्म छोड़ चुके थे। उन लोगोको स्वयं शिखा आ गई, यज्ञोपवीत मिल गया और उनके जिस कटे हुए अङ्गके आधारपर यवन किसीको भी मुसलमान कह देता था, वह अङ्ग फिरसे ज्यों-का-त्यों हो गया और जगद्गुरु रामानन्दाचार्यकी जय-जयकार हो गई।

अब शिष्य परम्परामें जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीने एक अद्भुत संयोगका सृजन किया। उन्होंने सबको जोड़नेका प्रयास किया, जिससे हिन्दू धर्म अखण्ड और अनुयायियोंकी दृष्टिसे बहुत विशाल और उदारवादी सिद्ध हो सके। साक्षात् भगवान्‌के स्वरूप रामानन्दाचार्यजीके शिष्योंमें (१) अनन्तानन्दजी (२) कबीरजी (३) सुखानन्दजी (४) सुरसुरानन्दजी (५) पद्मावतीजी (६) नरहर्यानन्दजी (७) पीपाजी (८) भावानन्दजी (९) रैदासजी (१०) धनाजी (११) सेनजी एवं (१२) सुरसुरानन्दजीकी पत्नी सुरसुरीजी – ये प्रधान बारह शिष्य हुए। और भी ऐसे अनेक शिष्य और प्रशिष्य जगद्गुरु रामानन्दाचार्यकी परम्परामें हुए, जो एक-से-एक उजागर थे, जो जगत्‌के मङ्गलके आधार थे और जो दशधा भक्ति अर्थात् प्रेमा भक्तिके आगार भी थे। इस प्रकार बहुत काल तक शरीर धारण करके प्रणतजनोंको उन्होंने संसारसागरसे पार कर दिया। विक्रमी संवत् १३५६में उनका आविर्भाव हुआ और विक्रमी संवत् १५००में रामनवमीके दिन आचार्यजीका जब जानेका क्रम उपस्थित हुआ तो उन्होंने कहा – “देखो! अब यह कपाट बंद कर रहा हूँ। मैं अयोध्याके लिये अब प्रस्थान कर रहा हूँ। अभी इस किवाड़को खोलना नहीं।” किवाड़ा नहीं खोला गया। ठीक १२ बजे शङ्खध्वनि हुई। फिर जब किवाड़ खोला गया, तब न तो वहाँ शङ्ख था, न शङ्खवादक। केवल जगद्गुरुजीकी चरण पादुकाएँ पञ्चगङ्गा घाटपर अवस्थित थीं। श्रीमदयोध्यामें पधारकर जगद्गुरुजी कनकबिहारी सरकारके उस विग्रहमें समाहित हो गए, जिसे विक्रमादित्यजीने महापूजनके लिये दिया था। बोलो भक्तवत्सल भगवान्‌की जय।

अनन्तानन्दजी जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीके प्रधान शिष्य हैं। इनका जन्म अवधके पास रामरेखा नदीके तटपर महेशपुर ग्राममें धनु लग्न, शनिवार, कार्त्तिक पूर्णिमा, विक्रम संवत् १३६३में हुआ था, यथा –

आयुष्मन् कृत्तिकायुक्तपूर्णिमायां धनौ शनौ।
स्वयम्भूः कार्त्तिकस्याद्धाऽनन्तानन्दो भविष्यति॥

(अ.सं.प. २९)

इन्हें पहले छन्नूलालके नामसे जाना जाता था, फिर अवधू पण्डित। ये श्रीब्रह्माजीके अंशावतार थे। ये ग्वालोंके साथ गाय चराया करते थे। एक बार भगवान् श्रीकृष्णजीकी वंशीकी धुन सुनकर उन्हें गोवत्सहरण­लीलाका स्मरण हो आया – जब ब्रह्माजीने मोहवश भगवान् कृष्णके बछड़ों और गोपालोंको चुरा लिया था तब भगवान् कृष्णने ही ब्रह्माजीको कहा था – “तुमने भक्तोंका अपमान किया है, इसलिये पुनः कलियुगमें अंशतः जन्म लेकर जगद्गुरु रामानन्दाचार्य, जो मेरे ही अभिन्न श्रीरामजीके अवतार होंगे, उनके चरणोंमें रहकर इस पापका प्रायश्चित कर लेना।” वही हुआ। अनन्तानन्दजी जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीके पास आए और उन्होंने उनसे विरक्त दीक्षा, पञ्चसंस्कार और त्रिदण्ड प्राप्त किया। अब नाभाजी उन्हींके चरित्रका वर्णन करते हैं –