पद ०३५


॥ ३५ ॥
(श्री)रामानंद पद्धति प्रताप अवनि अमृत ह्वै अवतर्यो॥
देवाचारज दुतिय महामहिमा हरियानँद।
तस्य राघवानंद भये भक्तन को मानद॥
पृथ्वी पत्रावलम्ब करी कासी अस्थायी।
चारि बरन आश्रम सबही को भक्ति दृढ़ाई॥
तिन के रामानंद प्रगट बिश्वमंगल जिन बपु धर्यो।
(श्री)रामानंद पद्धति प्रताप अवनि अमृत ह्वै अवतर्यो॥

मूलार्थ – श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीकी पद्धतिका प्रताप तो पृथ्वीपर अमृत होकर अवतीर्ण हो गया अर्थात् भगवती श्रीसीताजीने इस राममन्त्र­परम्पराको चलाया। श्रीरामजीसे षडक्षर मन्त्र प्राप्त करके सीताजीने श्रीहनुमान्‌जीको प्रथम राममन्त्र दिया और हनुमान्‌जीको ही नहीं, मायाकी सीताको अपना माध्यम बनाकर उन्होंने संपूर्ण वानरोंको राममन्त्रका उपदेश किया, इसीलिये तो पट गिराया था –

कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥

(मा. ३.३१.२५)

श्रीहनुमान्‌जीने यह श्रीराममन्त्र ब्रह्माजीको प्रदान किया। ब्रह्माजीने श्रीराममन्त्र वसिष्ठजीको प्रदान किया। वशिष्ठजीने श्रीराममन्त्र अपने पुत्र शक्तिको प्रदान किया। शक्तिने यही श्रीराममन्त्र पराशरको प्रदान किया। पराशरने यही श्रीराममन्त्र वेदव्यासजीको प्रदान किया। वेदव्यासजीने यही श्रीराममन्त्र शुकाचार्यजीको प्रदान किया। इसीलिये भागवतमें शुकाचार्यजीने भगवान् रामकी शरणागति स्वीकारी –

यस्यामलं नृपसदस्सु यशोऽधुनापि गायन्त्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम्।
तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्टपादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये॥

(भा.पु. ९.११.२१)

अर्थात् जिनके निर्मल यशको आज भी संपूर्ण पापोंके हरणके रूपमें ऋषिगण गाते रहते हैं, जो दिशाओंके दिग्गजोंका पट्टवस्त्र है, स्वर्गपालक इन्द्र और राजगणोंके मुकुटोंसे जिनके चरण­कमलकी पूजा की जाती है – ऐसे श्रीरामजीको मैं शरण्य रूपमें स्वीकार कर रहा हूँ, मैं श्रीरामजीकी शरणमें जा रहा हूँ। शुकाचार्यजीसे ही बोधायनाचार्य पुरुषोत्तमाचार्यने यह श्रीराममन्त्र प्राप्त किया। फिर तो परम्परासे चलते-चलते यह द्वितीय बृहस्पतिके समान श्रीदेवाचार्य अर्थात् देवानन्दाचार्यको प्राप्त हुआ, उनसे उनके शिष्य श्रीहर्यानन्दजी महाराजने, जो अद्भुत श्रीरामभक्त थे, यह श्रीराममन्त्र प्राप्त किया। जगन्नाथकी यात्रामें जाते समय जब जगन्नाथजीका रथ रुक गया, तो हर्यानन्दजीने कहा – “तुम सब लोग शान्त रहो! श्रीजगन्नाथजीका रथ स्वयं चलेगा।” हर्यानन्दजीकी प्रीतिनिष्ठाको ख्यापित करनेके लिये बिना किसीके खींचे ही जगन्नाथजीका रथ सौ कदम तक चलता रहा। ऐसे महामहिमा­संपन्न हर्यानन्दजीके कृपापात्र साक्षात् वसिष्ठजीके अवतार श्रीराघवानन्दजी महाराज हुए, जो भक्तोंका अत्यन्त सम्मान करते थे और श्रीकाशीमें स्थाई रूपमें विराजते थे। उन्होंने संपूर्ण पृथ्वीको अपने वैष्णव­विजय­पत्रके अवलम्बमें कर लिया था अर्थात् संपूर्ण वैष्णव­विरोधियोंको जीतकर पृथ्वीपर एकमात्र दिग्विजयकी पताका फहराई थी, और सभीने यह पत्र लिख दिया था कि सब-के-सब वैष्णव­विरोधी श्रीराघवानन्दाचार्यसे हार चुके हैं। चारों वर्णों और चारों आश्रमों – सबमें उन्होंने भगवान् श्रीरामकी भक्तिको दृढ़ किया था। उन्होंने कहा था – “भगवान् श्रीरामजीकी भक्तिमें सबका अधिकार है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी – सबको श्रीरामभक्तिमें अधिकार है।” कदाचित् इसी सिद्धान्तका पोषण करनेके लिये गोस्वामी तुलसीदासजीने यह कहा –

साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद विरक्त संन्यासी॥
जोगी शूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥
तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामि॥

(मा. ७.१२४.५-७)

ऐसे परम यशस्वी, परम तपस्वी, परम मनस्वी, वसिष्ठजीके अवतार श्रीराघवानन्दाचार्यजीके ही यहाँ शिष्यके रूपमें श्रीरामानन्दाचार्य महाराज प्रकट हुए। यहाँ प्रगट शब्दका एक बहुत गम्भीर तात्पर्य है। तात्पर्य यह है कि जब जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजी महाराज आठ वर्षकी अवस्थामें ही घर-द्वार छोड़कर श्रीकाशी आ गए, और जब उन्होंने श्रीराघवानन्दाचार्यजीसे श्रीराममन्त्रकी दीक्षा ली, तब उनके यशको देखकर उनके माता-पिताने भी उनसे दीक्षा लेनी चाही और अनुरोध किया – “प्रभो! आप हमें श्रीराममन्त्रकी दीक्षा दें।” चूँकि रामानन्दाचार्यजी मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामजीके ही तो अवतार हैं, तो वे माता-पिताको शिष्य कैसे बनाते! इसीलिये सबके देखते-देखते जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजी अन्तर्धान हो गए। तब तो माता-पिता अनाथ होने लगे। उसी समय राघवानन्दाचार्यजीने कहा – “तुम सब लोग चिन्ता मत करो! ये श्रीराममन्त्रके एक पुरश्चरणके पश्चात् अपने आप प्रकट हो जाएँगे।” और वही हुआ। राममन्त्रका यज्ञ चलता रहा। एक पुरश्चरण जब हुआ तब, अर्थात् चौबीस लाख राममन्त्रके जपके तुरन्त पश्चात्, जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजी प्रकट हो गए, अर्थात् तब भौतिक शरीरसे कोई लेना-देना नहीं रहा। तब जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजीको राघवानन्दाचार्यजीने विरक्त त्रिदण्डी संन्यासीकी दीक्षा दी, त्रिदण्ड धारण करवाया और तब उन्होंने पुण्यसदन शर्मा और सुशीला माताको भी दीक्षा दी। यही प्रगटका तात्पर्य है – तिन के रामानंद प्रगट – वे प्रकट हुए और अबकी बार उन्होंने विश्वमङ्गलात्मक शरीर धारण किया।

अब नाभाजी अपने परम आराध्य प्राणधन जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीकी जीवनचर्याका बड़े उत्साहसे वर्णन करते हैं, और वे कहते हैं कि –