॥ ३४ ॥
श्रीमारग उपदेश कृत श्रवन सुनौ आख्यान सुचि॥
गुरू गमन (कियो) परदेश सिष्य सुरधुनी दृढ़ाई।
एक मज्जन एक पान हृदय बंदना कराई॥
गुरु गंगा में प्रबिसि सिष्य को बेगि बुलायो।
विष्णुपदी भय मानि कमलपत्रन पर धायो॥
पादपद्म ता दिन प्रगट सब प्रसन्न मुनि परम रुचि।
श्रीमारग उपदेश कृत श्रवन सुनौ आख्यान सुचि॥
मूलार्थ – श्रीमार्गका उपदेश करने वाले एक आचार्यका पवित्र आख्यान अपने कानोंसे सुनिये। प्रतीत होता है कि यह घटना राघवानन्दाचार्यकी ही रही होगी, क्योंकि वही काशीमें गङ्गाजीके तटपर रहते थे। गुरुदेवने परदेश अर्थात् विदेशमें गमन किया। उस समय शिष्योंने यह कहा कि – “आपके वियोगमें हम कैसे रह सकेंगे?” तो गुरुदेवने कहा – “गङ्गाजीकी ही मेरे समान दृढ़ सेवा करना।” एकको मज्जनका व्रत दिया, एकको पानका व्रत दिया, एकको वन्दना करनेका व्रत दिया, एकको कहा – “केवल तुम हृदयमें गङ्गाजीका ध्यान करना, इनको गुरुके ही समान मानना और स्पर्श आदि मत करना।” शिष्य वही करने लगे। प्रतीत होता है कि यह नियम जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीका ही रहा होगा। एक बार परीक्षा लेनेके लिये गुरुदेवने उन शिष्यको गङ्गा पारसे बुला लिया, जिन्होंने गङ्गाजीको गुरुवत् हृदयमें मान लिया था और कहा – “सीधे चले आओ।” वे कैसे आते, गङ्गाजीको चरणसे कैसे स्पर्श करते? क्योंकि गङ्गाजीके प्रति तो उनकी गुरुबुद्धि हो चुकी थी। भगवतीजीने उनके भयका सम्मान किया और तुरन्त अपने ऊपर कमलके पत्ते प्रकट कर दिये और वे शिष्य कमलके पत्तेपर चरण रखकर दौड़कर गङ्गाजीको पार कर गुरुदेवके पास आ गए। उसी दिनसे उनको पादपद्म कहा जाने लगा। सब प्रसन्न हो गए, सबके मनमें यह परम रुचि जग गई। इस प्रकार जगद्गुरु रामानन्दके संप्रदायमें गुरुनिष्ठाका प्रत्यक्ष प्रमाण दिख पड़ा।
अब नाभाजी महाराज अपनी परम्पराके मूर्धन्य आचार्योंकी चर्चा करते हैं –