पद ०३३


॥ ३३ ॥
आचारज जामात की कथा सुनत हरि होइ रति॥
मालाधारी मृतक बह्यो सरिता में आयो।
दाहकृत्य ज्यों बंधु न्यौति सब कुटुँब बुलायो॥
नाक सँकोचहिं बिप्र तबहिं हरिपुर जन आए।
जेंवत देखे सबनि जात काहू नहिं पाए॥
लालाचारज लक्षधा प्रचुर भई महिमा जगति।
आचारज जामात की कथा सुनत हरि होइ रति॥

मूलार्थ – जगद्गुरु रामानुजाचार्यजीके जामाता श्रीलालाचार्यकी कथा सुननेपर हृदयमें भगवान्‌के प्रति प्रीति उत्पन्न हो जाती है। लालाचार्यजीकी पत्नी एक बार नदीमें जल लेने गईं थीं, वहाँ एक कण्ठीधारी वैष्णवका मृतक शरीर बहता हुआ आ रहा था। पड़ोसिनियोंने व्यङ्ग्यमें कहा – “देखो! ये तुम्हारे देवर या जेठ होंगे।” उन्होंने वही माना और अपने पति लालाचार्यजीसे जाकर कह दिया। लालाचार्यजीने उसे यथार्थ मान लिया और वे उनको ले आए। लालाचार्यजीने पहले तो भाई मानकर क्रन्दन किया, फिर सोचा कि नहीं ये वैष्णव हैं, इनको भगवान् अपने धाम ले गए होंगे। इसलिये लालाचार्यजीने भाईके समान उनका दाह­संस्कार किया और उनके त्रयोदशाह श्राद्धमें अपने कुटुम्बी ब्राह्मणोंको भोजन करनेके लिये बुलाया। ब्राह्मणोंने नाक-भौं सिकोड़ी और कहा – “इस अज्ञात व्यक्तिके श्राद्धमें कैसे भोजन किया जाए?” वे लालाचार्यजीके यहाँ भोजनके लिये नहीं आए। लालाचार्यजीने रामानुजाचार्यजीसे कहा। रामानुजाचार्यजीने कहा – “इन मूर्खोंको भगवान्‌के प्रसादकी महिमाका ज्ञान नहीं, तुम चिन्ता मत करो। अभी तुम्हारे यहाँ प्रसाद प्राप्त करने वैकुण्ठसे वैष्णवजन आएँगे।” यही हुआ, आकाशसे भगवान्‌के परिकर लालाचार्यजीका प्रसाद पाने आए। ब्राह्मणोंने सोचा, इनको रोक देंगे। पर इन्होंने ब्राह्मणोंकी एक भी बात न सुनी। लालाचार्यजीके यहाँ आकर उन्होंने प्रसाद पाया, जय-जयकार की। सबने देखा कि ये वैष्णवजन प्रसाद पा रहे हैं, परन्तु कैसे गए – यह किसीने नहीं देखा। लालाचार्यजीकी महिमा लाखों प्रकारसे संसारमें प्रसिद्ध हो गई।

इस प्रकार श्रीनाभाजीने श्रीरामानुजाचार्यकी परम्पराका संक्षिप्त वर्णन कर दिया। अब श्रीसीताजीके शुद्ध संप्रदायकी चर्चाका उपक्रम करते हैं –