पद ०३१


॥ ३१ ॥
सहस आस्य उपदेस करि जगत उद्धरन जतन कियो॥
गोपुर ह्वै आरूढ़ उच्च स्वर मंत्र उचार्यो।
सूते नर परे जागि बहत्तरि श्रवननि धार्यो॥
तितनेई गुरुदेव पधति भई न्यारी न्यारी।
कुर तारक सिष प्रथम भक्ति बपु मंगलकारी॥
कृपनपाल करुणा समुद्र रामानुज सम नहीं बियो।
सहस आस्य उपदेस करि जगत उद्धरन जतन कियो॥

मूलार्थ – संस्कृतमें आस्य शब्दका अर्थ है मुख। सहस आस्य अर्थात् स्वयं शेषनारायणने श्रीरामानुजाचार्यके रूपमें आकर सहस्र मुखोंसे श्रीनारायण­मन्त्रका उपदेश करके जगत्‌के उद्धारका यत्न किया। रामानुजाचार्यके गुरुदेवने यह कहा था – “इस मन्त्रको किसीसे कहना नहीं, यह जिसके कानमें जाएगा उसको तो वैकुण्ठ पहुँचा ही देगा, परन्तु जो अनधिकारियोंको सुनाएगा उसे नरक होगा।” रामानुजाचार्यके मनमें आया कि यदि अनेक लोगोंका उद्धार हो जाए, तो अकेले मुझे नरक जानेमें कोई आपत्ति नहीं है। इसलिये रङ्गनाथ मन्दिरके गोपुर अर्थात् द्वारके ऊँचे भागपर खड़े होकर ऊँचे स्वरमें उन्होंने नारायण­मन्त्रका उच्चारण कर दिया। उच्च स्वरमें रामानुजाचार्यका शङ्खनाद सुनकर बहुत सोए हुए लोग जग गए और ७२ लोगोंने उसी मन्त्रको अपने श्रवणोंमें धारण कर लिया। उतने ही उस परम्परामें गुरुदेव हो गए, भिन्न-भिन्न पद्धतियाँ हो गईं। रामानुजाचार्यजीके प्रथम शिष्य कुर तारक अर्थात् कुरेशमुनि हुए, जिनका शरीर भक्तिमय और जगत्‌का मङ्गल करने वाला था। वस्तुतः कृपनपाल अर्थात् अकिञ्चन अनाथजनोंके पालक, करुणाके सागर रामानुजाचार्यके समान कोई दूसरा आचार्य नहीं हुआ, जिन्होंने अपने नरककी चिन्ता किये बिना ७२ लोगोंका एक साथ उद्धार कर दिया और एक सहस्र मुखोंसे वैष्णव­मन्त्रका उपदेश करके जगत्‌के उद्धारका यत्न किया।