अब हम श्रीभक्तमालके उत्तरार्धकी चर्चा करने जा रहे हैं। श्रीनाभाजीने २७ पदोंमें कृतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुगके भक्तोंकी चर्चा की है। अब २८वें पदसे वे कलियुगके भक्तोंकी चर्चा अन्तपर्यन्त करेंगे। अर्थात् २८वें पदसे १९९वें पद पर्यन्त नाभाजी कलियुगी भक्तोंकी चर्चा करेंगे, जिसमें अनेकानेक दिव्य भक्तोंकी चर्चा होगी, और हम उनका आनन्द करेंगे।
॥ २८ ॥
चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट॥
(श्री)रामानुज उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु।
विष्णुस्वामी बोहित्थ सिन्धु संसार पार करु॥
मध्वाचारज मेघ भक्ति सर ऊसर भरिया।
निम्बादित्य आदित्य कुहर अज्ञान जु हरिया॥
जनम करम भागवत धरम संप्रदाय थापी अघट।
चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट॥
मूलार्थ – नाभाजी कहते हैं कि जिस प्रकार भगवान् श्रीहरिने पहले तो चौबीस अवतार लिये अर्थात् चौबीस रूप धारण किये (इनमें तेईस धारण कर चुके हैं, २४वाँ शीघ्र धारण करेंगे – कल्कि अवतार), उसी प्रकार कलियुगमें श्रीहरिने चतुर्व्यूहात्मक चार संप्रदायोंके आचार्योंको भी प्रकट किया। वे चार संप्रदाय हैं – (१) श्रीसंप्रदाय (२) रुद्रसंप्रदाय (३) सनकादिसंप्रदाय और (४) ब्रह्मसंप्रदाय। श्रीशब्दकी मुख्य वाच्य हैं सीताजी और गौण वाच्य हैं लक्ष्मीजी। श्रीसंप्रदायकी दो धाराएँ हैं और उनके दो आचार्य हैं – श्रीसंप्रदाय शब्दके मुख्य वाच्य सीताजीके संप्रदायके कलियुगमें मुख्य आचार्य हैं जगद्गुरु स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य और श्रीसंप्रदाय शब्दके गौण वाच्य लक्ष्मीजीके संप्रदायके कलियुगमें मुख्य आचार्य हैं जगद्गुरु स्वामी श्रीरामानुजाचार्य। रुद्रसंप्रदायके कलियुगमें मुख्य आचार्य हैं श्रीविष्णुस्वामी, सनकादिसंप्रदायके कलियुगमें मुख्य आचार्य हैं जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य, और ब्रह्मसंप्रदायके कलियुगमें मुख्य आचार्य हैं जगद्गुरु श्रीमध्वाचार्यजी।
श्रीसंप्रदायकी दोनों उपासनाओंका दर्शन है विशिष्टाद्वैतवाद। विशिष्टञ्च विशिष्टञ्च विशिष्टे तयोरद्वैतं विशिष्टाद्वैतं तद्वदतीति विशिष्टाद्वैतवादः। इनके मतमें ब्रह्म कारण और कार्य भेदसे दो प्रकारके हैं – कारणब्रह्म और कार्यब्रह्म। परमव्योमाधिपति कारणब्रह्म श्रीरामानन्दके अनुसार साकेताधिपति भगवान् श्रीसीतारामजी हैं और श्रीरामानुजके अनुसार वैकुण्ठाधिपति श्रीलक्ष्मीनारायणजी हैं। यही कार्यब्रह्मके रूपमें भी जीवके हृदयमें अन्तर्यामी रूपमें विराजमान होते हैं, सृष्टिके साथ रहते हैं। यह दोनों ब्रह्म चित् और अचित्से विशिष्ट हैं। चित् है जीवात्मा, अचित् है प्रकृति – दोनों ही भगवान्के विशेषण हैं। भगवान्से दोनोंका शरीरशरीरिभाव संबन्ध है और दोनोंसे भगवान् विशिष्ट हैं। कार्यब्रह्म भी चिदचिद्विशिष्ट है, कारणब्रह्म भी चिदचिद्विशिष्ट है, और दोनोंका ही अद्वैत है। दोनों अन्ततोगत्वा एक हैं, इसलिये इस सिद्धान्तका नाम विशिष्टाद्वैत है।
विष्णुस्वामीका जो रुद्रसंप्रदाय है, इसके मुख्य आचार्य विष्णुस्वामी हैं; परन्तु इसके दर्शनका निर्माण वल्लभाचार्य महाप्रभुने किया है। यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक होगा कि पहलेकी परम्परामें वही जगद्गुरु होता था, जो प्रस्थानत्रयी अर्थात् उपनिषद्, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्रपर अपने संप्रदायकी मान्यताके अनुसार भाष्य लिखता था। विशिष्टाद्वैत संप्रदायमें भी तीनोंपर भाष्य लिखे गए। रामानुजाचार्यजीने श्रीभाष्य लिखे। श्रीरामानन्दसंप्रदायमें भी बहुत भाष्य लिखे गए। इनमें जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यका आनन्दभाष्य, जानकीकृपाभाष्य, भगवदाचार्यका रामानन्दभाष्य और मुझ जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्यका तीनोंपर श्रीराघवकृपाभाष्य। विष्णुस्वामीसंप्रदायमें वल्लभाचार्यका अणुभाष्य है। निम्बार्काचार्यजीका भाष्य द्वैताद्वैतसिद्धान्तके अनुसार है और मध्वाचार्यजीका द्वैतवादके अनुसार पूर्णप्रज्ञभाष्य है।
अब नाभाजी चारों संप्रदायोंके आचार्योंके व्यक्तित्वका वर्णन इस छप्पयमें करते हैं। परन्तु एक आश्चर्य यह है कि तीन संप्रदायोंके आचार्योंके लिये उन्होंने एक-एक रूपक दिये हैं, यथा विष्णुस्वामीको बोहित्थ कहा, मध्वाचार्यको मेघ कहा, निम्बार्काचार्यको आदित्य कहा, परन्तु श्रीसंप्रदायके आचार्यके लिये दो रूपक दिये हैं – सुधानिधि और कल्पतरु। इसका तात्पर्य यह है कि रामानुज शब्दमें नाभाजीने श्लेष माना है। राम शब्दसे वे रामानन्दाचार्यको स्वीकारते हैं, और अनुज शब्दसे रामानुजाचार्यको। नामैकदेशग्रहणे नाममात्रग्रहणम् अर्थात् नामके एकदेशके ग्रहणसे संपूर्ण नामका ग्रहण हो जाता है – यह संस्कृतकी परिपाटी है। अतः रामानन्दके एकदेश राम शब्दसे उन्होंने रामानन्दाचार्यको ग्रहण किया और रामानुजके एकदेश अनुज शब्दसे उन्होंने रामानुजाचार्यको ग्रहण किया। इस प्रकार दोनोंकी रक्षा और दोनोंकी संगति हो गई – (श्री)रामानुज उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु। राम अर्थात् रामानन्दाचार्यजी इस पृथ्वीपर साक्षात् उदारताकी दृष्टिसे अमृतके सागर रूप हैं। सुधानिधिका तात्पर्य चन्द्रमासे भी है, जैसे चन्द्रमा सबको शीतल करते हैं, उसी प्रकार जगद्गुरु रामानन्दाचार्य अपने उदारवादी दृष्टिकोणसे सबको शीतल करते हैं। चन्द्रमासे सबको प्रकाश मिलता है, उसी प्रकार रामानन्दाचार्यकी पूजापद्धतिसे सबको प्रकाश मिलता है, चारों वर्ण वहाँ आनन्द लेते हैं, चारों आश्रम आनन्द लेते हैं। एक ओर जहाँ रामानन्दाचार्यरूप चन्द्रमासे अमृत प्राप्त करते हैं अनन्तानन्द जैसे ब्राह्मण, वहीं दूसरी ओर इन अमृतवर्षी चन्द्रमासे अमृत पीकर जीवन प्राप्त करते हैं रैदास जैसे चतुर्थ वर्णके उपासक भी। जैसे चन्द्रमाकी किरणोंको प्राप्त करनेमें किसीको विधि-निषेध नहीं है – वहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ, चाण्डाल, अन्त्यज इन सबको अधिकार है – उसी प्रकार रामानन्दाचार्यजीके द्वारा प्रचारित प्रपत्ति मार्गमें सबको अधिकार है। वे कहते हैं –
सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ता अपि नित्यरङ्गिणः।
अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलञ्चनो न चापि कालो न हि शुद्धता च॥
(वै.म.भा. १००)
यहाँ सबका अधिकार है, किसीको निषेध नहीं है। भगवान् अपनी प्रपत्तिमें किसीका जात-पाँत नहीं पूछते – हरिको भजे सो हरि का होई जात पाँत पूछे नहिं सोई। भगवान् किसीके कुल, बल, काल और शुद्धताकी अपेक्षा नहीं रखते। वे किसीका जात-पाँत नहीं पूछते, जो उनका भजन करता है वह उनका है। स्पष्ट कहा भी गया है –
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥
(मा. ७.८७क)
इसलिये नाभाजीने कहा कि राम अर्थात् रामानन्दाचार्य उदार एवं सुधानिधि अर्थात् भक्तिरूप अमृतके सागर हैं, और अनुज अर्थात् रामानुजाचार्य पृथ्वीपर कल्पवृक्षके समान हैं। इसी प्रकार विष्णुस्वामी घोर संसारसागरको पार करनेके लिये बोहित्थ अर्थात् जहाजके समान हैं, पोतके समान हैं, वहित्रके समान हैं। मध्वाचार्यजी महाराज मेघ हैं जो भक्तिके जलसे सरसहृदय तालाबों एवं नीरसहृदय ऊसरोंको भी भर डालते हैं। निम्बादित्य अर्थात् निम्बार्कस्वामी आदित्य अर्थात् सूर्यके समान अज्ञान रूप कुहरेको हर लेते हैं। इन आचार्योंका जन्म और कर्म भागवतधर्मके लिये हुआ है। इन्होंने भागवतधर्मके अघट अर्थात् अभेद्य चार संप्रदायोंका स्थापन किया, इन्हींको हम लोग चार संप्रदाय कहते हैं। यद्यपि कुम्भकी परम्परामें विरक्तोंके ही चार संप्रदाय स्वीकारे गए हैं – रामानन्दाचार्यका संप्रदाय, विष्णुस्वामीका संप्रदाय, मध्वाचार्यका संप्रदाय और निम्बार्काचार्यका संप्रदाय।
जगद्गुरु रामानन्दाचार्य उत्तर भारतमें गुरुवार, माघ कृष्ण सप्तमी विक्रम संवत् १३५६के दिन (तदनुसार १४ जनवरी १३०० ईस्वीको) प्रकट हुए। यहाँ ध्यातव्य है कि १२९९ ईस्वीमें माघमासका कृष्णपक्ष नहीं पड़ा था क्योंकि श्रावण अधिकमास था, अतः परम्परागत विक्रम संवत् १३५६के माघमासका कृष्णपक्ष जनवरी १३०० ईस्वीमें था। इनके जन्मकालमें चित्रा नक्षत्र वर्तमान था। इनका जन्मस्थल है प्रयाग, इनकी माँका नाम है सुशीला, और पिताजीका नाम है पुण्यसदन। इसी प्रकार रामानुजाचार्यने दक्षिणमें तमिलनाडुमें भूतपुरी नामक स्थानपर जन्म लिया। इनके पिताका नाम है केशवभट्ट। मध्वाचार्य भी दक्षिणमें प्रकट हुए, उडूपीके पास वेललि ग्राममें। इनके पिताका नाम है भध्यगेहभट्ट और माँका नाम है वेदवती। निम्बार्काचार्य भी दक्षिणमें प्रकट हुए, इनके पिताका नाम है अरुणमुनि और माताका नाम है जयन्ती देवी। विष्णुस्वामी भी दक्षिणमें मदुरैमें प्रकट हुए, इनके पिताका नाम है देवस्वामी और माताका नाम है यशोमती देवी।
नाभाजी द्वारा प्रयुक्त रामानुज शब्दको लेकर किसी प्रकारका विवाद नहीं करना चाहिये और न ही सोचना चाहिये। इस पङ्क्तिमें श्लेष न समझते हुए कुछ लोगोंने इस पाठमें रामानंद शब्द लिख दिया, और कुछ लोगोंने रामानूक पाठ भी माना, परन्तु दोनों रूपकोंकी संगति वे नहीं समझ पाए। जबकि यहाँ दो रूपक स्पष्ट दिये गए हैं – सुधानिधि और कल्पतरु। इसीसे सिद्ध हो जाता है कि यहाँ दो आचार्योंका संकेत है। नाभाजीकी भाषा अत्यन्त गूढ़ है।