पद ०२३


॥ २३ ॥
ब्रजराजसुवन सँग सदन मन अनुग सदा तत्पर रहैं॥
रक्तक पत्रक और पत्रि सबही मन भावैं।
मधुकंठी मधुवर्त रसाल बिसाल सुहावैं॥
प्रेमकंद मकरंद सदा आनँद चँदहासा।
पयद बकुल रसदान सारदा बुद्धि प्रकासा॥
सेवा समय बिचारिकै चारु चतुर चित की लहैं।
ब्रजराजसुवन सँग सदन मन अनुग सदा तत्पर रहैं॥

मूलार्थ – व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्रके मन और भवनमें साथ रहने वाले सोलह ऐसे सेवक हैं जो देखनेमें सुन्दर हैं, सेवामें चतुर हैं, और चित्तकी आकाङ्क्षाओंको भी स्वीकार कर लेते हैं। वे सदैव भगवान्‌की सेवामें तत्पर रहते हैं। वे हैं – (१) रक्तक (२) पत्रक तथा (३) पत्री – ये सबको भाते रहते हैं। इसी प्रकार (४) मधुकण्ठ (५) मधुव्रत (६) रसाल तथा (७) विशाल – ये सेवक बहुत सुन्दर लगते हैं। (८) प्रेमकन्द (९) मकरन्द (१०) सदानन्द (११) चन्द्रहास (१२) पयोद (१३) बकुल (१४) रसदान (१५) शारदाप्रकाश एवं (१६) बुद्धिप्रकाश – ये सभी परिकर भगवान् श्रीकृष्णके मन और भवनमें साथ रहते हुए, प्रभुका अनुगमन करते हुए, सेवामें सदैव तत्पर रहते हैं और सेवाके समयका विचार करके सबके संबलकी रक्षा करते हुए, चतुराईपूर्वक भगवान्‌की रुचिको समझकर सेवा करते रहते हैं।[1]

अब नाभाजी अन्य सप्तद्वीपीय वैष्णवोंकी चर्चा करते हैं। वे हैं –

[1] तुलना करें – रसालसुविलासाश्च प्रेमकन्दो मरन्दकः॥ आनन्दश्चन्द्रहासश्च पयोदो वकुलस्तथा। रसदः शारदाद्याश्च व्रजस्था अनुगा मताः॥ (भ.र.सि. ३.२.४१-४२)।