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शुभ दृष्टि वृष्टि मोपर करौ जे सहचर रघुवीर के॥
दिनकरसुत हरिराज बालिबछ केसरि औरस।
दधिमुख द्विबिद मयंद रीछपति सम को पौरस॥
उल्कासुभट सुषेन दरीमुख कुमुद नील नल।
शरभर गवय गवाच्छ पनस गँधमादन अतिबल॥
पद्म अठारह यूथपति रामकाज भट भीर के।
शुभ दृष्टि वृष्टि मोपर करौ जे सहचर रघुवीर के॥
मूलार्थ – अठारह पद्म यूथोंके अधिपति प्रभु श्रीरामके नित्य सहचर हैं एवं युद्धके अवसरपर भगवान् श्रीरामका काज करनेवाले हैं, अर्थात् ये यूथपति युद्धके अवसरपर भगवान् श्रीरामके राक्षसवध रूप कार्यमें नित्य सहायक हैं। ऐसे सीतापति श्रीराघवकी संहारलीलाके नित्य परिकर भट मुझपर शुभ दृष्टिकी वृष्टि करते रहें, अर्थात् मुझे अपनी कल्याणमयी चितवनसे निहारकर मुझ अकिञ्चनमें श्रीरामप्रेमको भरते रहें। इनमें प्रमुख हैं – (१) सूर्यपुत्र वानरोंके राजा सुग्रीव (२) वालिपुत्र युवराज अङ्गद (३) केसरीजीके औरसपुत्र अञ्जनानन्दवर्धन श्रीहनुमान्जी महाराज (४) दधिमुख (५) द्विविद (६) मयन्द (७) जिनके समान और किसीका पौरुष नहीं है अर्थात् अतुल बलशाली ऋक्षराज जाम्बवान् (८) उल्कासुभट अर्थात् अन्धकारके समय दीपक जलाकर सेवा करनेवाले उल्कासुभट नामक विशेष यूथपति (९) सुषेण (१०) दरीमुख (११) कुमुद (१२) नील (१३) नल (१४) शरभ (१५) गवय (१६) गवाक्ष (१७) पनस और (१८) अत्यन्त बलशाली गन्धमादन। इस प्रकार अठारह पद्म यूथ वानरोंके पूर्ववर्णित अठारह यूथपति अर्थात् सुग्रीव, अङ्गद, हनुमान्, दधिमुख, द्विविद, मयन्द, जाम्बवान्, उल्कासुभट, सुषेण, दरीमुख, कुमुद, नील, नल, शरभ, गवय, गवाक्ष, पनस और गन्धमादन – जो युद्धके समय श्रीरामकार्यके संपादनमें परमवीरता करते हैं वे मुझपर कल्याणमयी दृष्टिका वर्षण करते रहें। इसी आशयको रामचरितमानसके सुन्दरकाण्डमें शुकने भी रावणसे स्पष्ट किया है –
अस मैं सुना श्रवन दशकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥
(मा. ५.५५.३)