पद ०१७


॥ १७ ॥
साधन साध्य सत्रह पुराण फलरूपी श्रीभागवत॥
ब्रह्म विष्णु शिव लिंग पदम अस्कँद बिस्तारा।
बामन मीन बराह अग्नि कूरम ऊदारा॥
गरुड नारदी भविष्य ब्रह्मबैबर्त श्रवण शुचि।
मार्कंडेय ब्रह्मांड कथा नाना उपजे रुचि॥
परम धर्म श्रीमुखकथित चतुःश्लोकी निगम शत।
साधन साध्य सत्रह पुराण फलरूपी श्रीभागवत॥

मूलार्थ – सत्रहों पुराण तो साधन-साध्य हैं परन्तु श्रीभागवत इनका फलरूप ही है। जैसे (१) ब्रह्मपुराण (२) विष्णुपुराण (३) शिवपुराण (४) लिङ्गपुराण (५) पद्मपुराण (६) विस्तृत स्कन्दपुराण (७) वामनपुराण (८) मत्स्यपुराण (९) वराहपुराण (१०) अग्निपुराण (११) परम उदार कूर्मपुराण (१२) गरुडपुराण (१३) नारदपुराण (१४) भविष्यपुराण (१५) श्रवण करनेमें पवित्र ब्रह्मवैवर्तपुराण (१६) मार्कण्डेयपुराण और (१७) ब्रह्माण्डपुराण, जिनकी नाना कथाओंमें रुचि उत्पन्न होती है – ये सत्रहों पुराण साधन-साध्य हैं। परन्तु भागवतपुराण इसलिये फलरूप है कि श्रीमुख द्वारा कथित इसमें परमधर्मका वर्णन है और श्रेष्ठ वेदके रूपमें यहाँ चतुःश्लोकी भागवत कही गई है।

भागवतकी चतुःश्लोकी इस प्रकार है –

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥
ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा॥

(भा.पु. २.९.३२-३५)

भगवान् कहते हैं कि सृष्टिके प्रारम्भमें भी और सृष्टिके पूर्व भी मैं ही था। ये जो कुछ सत्-असत् दिखाई पड़ रहा है, स्थूल-सूक्ष्म ये कुछ नहीं था। पश्चात् भी मैं ही रहूँगा। जो इस समय वर्तमान है वह भी मैं ही हूँ। परमात्माके दर्शनके अभावमें जो प्रतीत हो रही है, और परमात्माका साक्षात्कार हो जानेपर जो नहीं प्रतीत होती उसीको परमात्माकी माया कहते हैं। जैसे रात्रिमें जुगनूका प्रकाश प्रतीत होता है और दिनमें प्रतीत नहीं होता जबकि वह रहता है, उसी प्रकार अज्ञानमें यह माया प्रतीत होती है और ज्ञान होनेपर नहीं प्रतीत होती है। जिस प्रकार पाँचों महाभूत सभी पदार्थोंमें अंशतः रहते हैं, पूर्णतः नहीं रहते; उसी प्रकार मैं परमात्मा सबके हृदयमें अंशतः अर्थात् अन्तर्यामी रूपमें रहता हूँ, पूर्णतः कहीं नहीं रहता। तत्त्वजिज्ञासुके द्वारा यही जिज्ञास्य है, यही जानने योग्य है, कि जो अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा सर्वत्र विराजमान है अर्थात् सृष्टिके रहनेपर भी जो रहेगा और न रहनेपर भी जो विद्यमान रहेगा वही तो परमात्मतत्त्व है।