पद ०१६


॥ १६ ॥
ध्यान चतुर्भुज चित धर्यो तिनहिं सरन हौं अनुसरौं॥
अगस्त्य पुलस्त्य पुलह च्यबन बसिष्ठ सौभरि ऋषि।
कर्दम अत्रि ऋचीक गर्ग गौतम ब्यासशिषि॥
लोमस भृगु दालभ्य अंगिरा शृंगि प्रकासी।
मांडव्य बिश्वामित्र दुर्बासा सहस अठासी॥
जाबालि जमदग्नि मायादर्श कश्यप परबत पाराशर पदरज धरौं।
ध्यान चतुर्भुज चित धर्यो तिनहिं सरन हौं अनुसरौं॥

मूलार्थ – जिन राजर्षि-महर्षियोंने चतुर्भुज अर्थात् चार भुजाओंवाले भगवान् विष्णुके ध्यानको, अथवा चतुर्भुज अर्थात् भक्तोंके पत्र-पुष्प-फल-जल रूप नैवेद्यको ग्रहण करनेवाले चारों वस्तुओंके भोक्ता भगवान् श्रीराम­कृष्णान्यतरके ध्यानको जिन्होंने चित्तमें धारण कर लिया है, उनकी शरणका मैं अनुसरण करता हूँ। जैसे (१) महर्षि अगस्त्य (२) महर्षि पुलस्ति (३) महर्षि पुलह (४) महर्षि च्यवन (५) महर्षि वसिष्ठ, जो श्रीरामजीके गुरुदेव हैं (६) महर्षि सौभरि, जिनको अन्तमें वैराग्य हुआ (७) महर्षि कर्दम, जो कपिलदेवके पिताश्री हैं (८) महर्षि अत्रि, जो सप्तर्षियोंमें एक हैं, और ब्रह्माजीके मानसपुत्रोंमें द्वितीय हैं। इन्होंने ही श्रीचित्रकूटमें भगवान् श्रीसीता-राम-लक्ष्मणका स्वागत किया और नमामि भक्तवत्सलम् (मा. ३.४.१-१२) जैसे स्तोत्रका गायन किया (९) महर्षि ऋचीक, जो जमदग्निजीके पिता हैं, जिनके चरुके प्रसादसे जमदग्नि और विश्वामित्र दोनोंकी उत्पत्ति हुई और (१०) महर्षि गर्ग – इन्होंने ही भगवान् कृष्णका नामकरण किया। इनके संदर्भमें भागवतके दसवें स्कन्धके आठवें अध्यायके प्रथम श्लोकमें कहा गया –

गर्गः पुरोहितो राजन् यदूनां सुमहातपाः।
व्रजं जगाम नन्दस्य वसुदेवप्रचोदितः॥

(भा.पु. १०.८.१)

(११) महर्षि गौतम – अहल्याजीके पति। इन्होंने ही तो अहल्याको पाषाण बननेका शाप दिया। इनके संबन्धमें रामचरितमानसमें कहा गया –

गौतम नारी स्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहती कृपा करहु रघुबीर॥

(मा. १.२१०)

इसी प्रकार (१२) वेदव्यासजीके अनेक शिष्य (१३) महर्षि लोमश, जो काकभुशुण्डिजीको पहले तो शाप देते हैं फिर उनके गुरुदेव बनकर उन्हें धन्य कर देते हैं (१४) महर्षि भृगु (१५) महर्षि दाल्भ्य (१६) श्रीअङ्गिरा (१७) परम प्रकाशवान् शृङ्गी अथवा ऋष्यशृङ्ग – इन्हींके द्वारा किये गए पुत्रेष्टियज्ञसे भगवान् श्रीरामजीका आविर्भाव हुआ, इसलिये इन्हें प्रकासी कहा गया – प्रकाशमान ऋष्यशृङ्ग (१८) महर्षि माण्डव्य – इन्होंने ही तो यमराजको शाप देकर विदुर बना दिया (१९) महर्षि विश्वामित्र, जो गायत्रीजीके द्रष्टा और भगवान् श्रीरामके गुरु रहे हैं, और जिनकी कथा रामायणमें बहुत रोचकतासे प्रस्तुत की गई है –

बिश्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन शुभ आश्रम जानी॥

(मा. १.२०६.२)

(२०) महर्षि दुर्वासा, जिनके क्रोधकी कथा रामायण, महाभारत और पुराणोंमें बहुशः प्रसिद्ध है (२१) अट्ठासी सहस्र ऋषि, जो पुराणसत्रके श्रोता रहे हैं। इसी प्रकार (२२) महर्षि जाबालि, जिनका वाल्मीकीय­रामायणमें श्रीरामजीसे बहुत कथनोपकथन हुआ (२३) महर्षि जमदग्नि, जो परशुरामजीके पिताश्री हैं और सम्प्रति सप्तर्षियोंमें द्वितीय महर्षिके रूपमें पूजित हो रहे हैं (२४) मायादर्श अर्थात् मायाके दर्शन करने वाले महर्षि मार्कण्डेय (२५) महर्षि कश्यप जो सूर्यनारायण और संपूर्ण देवताओंके पिता हैं, और यही आगे चलकर श्रीदशरथ बनते हैं (२६) परमऋषि पर्वत और (२७) महर्षि पराशर, जो वेदव्यासजीके पिता और पराशरस्मृतिके रचयिता हैं – इनके चरणकमलकी धूलिको मैं अपने मस्तकपर धारण कर रहा हूँ।