पद ०१५


॥ १५ ॥
हरिप्रसाद रस स्वाद के भक्त इते परमान॥
शंकर शुक सनकादि कपिल नारद हनुमाना।
बिष्वक्सेन प्रह्लाद बली भीषम जग जाना॥
अर्जुन ध्रुव अँबरीष विभीषण महिमा भारी।
अनुरागी अक्रूर सदा उद्धव अधिकारी॥
भगवंत भुक्त अवशिष्ट की कीरति कहत सुजान।
हरिप्रसाद रस स्वाद के भक्त इते परमान॥

मूलार्थ – (१) श्रीशङ्करजी (२) श्रीशुकाचार्य (३) श्रीसनकादि (४) श्रीकपिल (५) श्रीनारद (६) श्रीहनुमान्‌जी महाराज (७) श्रीविष्वक्सेन (८) श्रीप्रह्लाद (९) श्रीबलि और (१०) श्रीभीष्म – इनको सारा संसार जानता है। ये भगवान्‌की प्रसन्नताका स्वाद जानते हैं। इसी प्रकार (११) श्रीअर्जुन (१२) श्रीध्रुव (१३) श्रीअम्बरीष और (१४) श्रीविभीषणकी बहुत बड़ी महिमा है। भगवान्‌के भुक्त प्रसादके (१५) श्रीअक्रूर अत्यन्त अनुरागी हैं और (१६) श्रीउद्धव इसके अधिकारी भी हैं। ये सभी भागवत भगवान्‌के नैवेद्यके उच्छिष्टकी कीर्ति सदैव कहते रहते हैं, अर्थात् इन्हें भगवान्‌के भुक्तके जूठनका भी अनुभव है और भगवान्‌की प्रसन्नताका भी अनुभव है।

विभीषणजी स्वयं गीतावलीजीमें कहते हैं – तुलसी पट ऊतरे ओढ़िहौं उबरी जूठनि खाउँगो (गी. ५.३०.४) और ध्रुव कहते हैं – उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेमहि (भा.पु. ११.६.४६)।

अब नाभाजी बहुत-से राजर्षि-महर्षियोंकी चर्चा करते हैं।