॥ १२ ॥
तिन चरन धूरी मो भूरि सिर जे जे हरिमाया तरे॥
रिभु इक्ष्वाकु अरु ऐल गाधि रघु रै गै सुचि शतधन्वा।
अमूरति अरु रन्ति उतंक भूरि देवल वैवस्वतमन्वा॥
नहुष जजाति दिलीप पुरु जदु गुह मान्धाता।
पिप्पल निमि भरद्वाज दच्छ सरभंग सँघाता॥
संजय समीक उत्तानपाद जाग्यबल्क्य जस जग भरे।
तिन चरन धूरी मो भूरि सिर जे जे हरिमाया तरे॥
मूलार्थ – जो-जो भगवान्की मायानदीको पार कर चुके हैं, उन परम भागवतोंके चरणकी अनन्त धूलि मेरे सिरपर सतत विराजमान रहे। जैसे ऋभु, इक्ष्वाकु, ऐल, श्रीगाधि, रघु, रय, गय, पवित्र शतधन्वा, अमूर्ति, रन्तिदेव, उत्तङ्क, भूरिश्रवा, देवल, वैवस्वत मनु, श्रीनहुष, ययाति, दिलीप, पुरु, यदु, गुह, राजर्षि मान्धाता, महर्षि पिप्पलाद, निमि, भरद्वाज, दक्ष, शरभङ्ग आदि भगवत्परायण मुनिगण, सञ्जय, महर्षि शमीक, उत्तानपाद, याज्ञवल्क्य – ऐसे राजर्षि महर्षियोंने अपने यशसे जगको भर दिया है। उन्हीं परमभागवतोंके चरणकी बहुत-सी धूलि मेरे सिरपर सदैव रहे।
यहाँ नाभाजीने जिन-जिन भागवतोंके नाम गिनाए हैं वे प्रायशः श्रीमद्भागवतजीमें वर्णित हैं। कुछ रामायणमें वर्णित हैं, और कुछ महाभारतमें। ये सब अपने भजनके प्रभावसे वैष्णवीमायानदीको पार कर चुके हैं। इनमें हैं – (१) श्रीऋभु (२) इक्ष्वाकु (३) ऐल अर्थात् सुद्युम्न (४) विश्वामित्रके पिता गाधि (५) रघु, जिनके नामसे यह रघुवंश प्रसिद्ध हुआ, और इन्हीं रघुके पुत्र अज और इन्हीं अजके पुत्र दशरथ, और उनके पुत्र भगवान् राम। इनके संबन्धमें भागवतकार कितना सुन्दर श्लोक कहते हैं –
खट्वाङ्गाद्दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात् पृथुश्रवाः।
अजस्ततो महाराजस्तस्माद्दशरथोऽभवत्॥
तस्यापि भगवानेष साक्षाद्ब्रह्ममयो हरिः।
अंशांशेन चतुर्धाऽगात्पुत्रत्वं प्रार्थितः सुरैः।
रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्ना इति संज्ञया॥
(भा.पु. ९.१०.१-२)
इसी प्रकार (६) रय (७) राजर्षि गय (८) पवित्र शतधन्वा, जिनका वर्णन श्रीमद्भागवतके दशमस्कन्धके उत्तरार्धमें है, जो स्यमन्तकमणि कृतवर्मा और अक्रूरके पास रखकर भाग रहे थे – मिथिलाके उपवनमें भगवान् श्रीकृष्णके चक्रसे उनका वध हुआ और उन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति हो गई (९) अमूर्ति (१०) रन्तिदेव, जिनकी कथा भागवतजीके नवम स्कन्धमें है, अयाचितवृत्तिका पालन करते हुए ४८ दिन तक जब उन्होंने कुछ नहीं लिया और ४९वें दिन कुछ मिला तो कभी ब्राह्मण, कभी चाण्डाल, कभी कुत्ता, और अन्ततोगत्वा एक भूखे पुल्कसको सब कुछ दे डाला तब भगवान् प्रकट हो गए। और भगवान्के “वरदान माँगो,” यह कहनेपर उन्होंने कह दिया – “मैं यही वरदान माँगता हूँ कि किसीको अब कष्ट न हो।” ऐसे रन्तिदेव जिनके संबन्धमें गोस्वामीजीने कहा –
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरम धरेउ सहि संकट नाना॥
(मा. २.९५.४)
(११) उत्तङ्क (१२) भूरिश्रवा, जो दुर्योधनके पितृव्य लगते थे, और महाभारतके युद्धमें सात्यकिसे युद्ध करते समय अर्जुनने जिनकी भुजा काट दी थी और फिर पृथ्वीपर बैठकर सात्यकिसे वार्तालाप करते हुए उन्हींकी तलवारसे वे वीरगतिको प्राप्त हो गए (१३) महर्षि देवल (१४) वैवस्वत मनु जिनके संबन्धमें रघुवंशमहाकाव्यके प्रथम सर्गके ११वें श्लोकमें कालिदास कहते हैं –
वैवस्वतो मनुर्नाम माननीयो मनीषिणाम्।
आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्छन्दसामिव॥
(र.वं. १.११)
अर्थात् राजाओंमें वैवस्वत मनु उसी प्रकार माननीय हुए जैसे वेदोंमें ॐकार माननीय है। हम सब जिस मन्वन्तरमें रह रहे हैं, उस मन्वन्तरके अधिपति यही वैवस्वत मनु हैं, जिन्हें श्राद्धदेव भी कहते हैं। (१५) नहुष, जो ब्राह्मणोंके शापसे गिरगिट बने और फिर भगवान् कृष्णका स्पर्श पाकर जिनका उद्धार हो गया (१६) ययाति, जो यदु और पुरुके पिता थे, वे भी दृढ़ वैराग्य प्राप्त करके परमगतिको प्राप्त हुए (१७) दिलीप – एक तो भगीरथके पिता दिलीप और दूसरे रघुजीके पिता श्रीदिलीप जिन्होंने निन्यानवे यज्ञ पूर्ण कर लिये थे और सौवें अश्वमेध यज्ञमें इन्द्रने उनका घोड़ा पकड़ा था। और रघुसे तुमुल युद्ध होनेके पश्चात् अन्तमें जब इन्द्र रघुसे संतुष्ट हुए तब रघुने यही कहा – “आप घोड़ा ले जाएँ, पर सौवें अश्वमेध यज्ञका फल मेरे पिताजीको मिल जाना चाहिये।” और ऐसा ही हुआ, और वे परमपदको प्राप्त हुए। (१८) पुरु – इन्होंने ययातिको अपनी युवावस्था दी थी, और पिताकी आज्ञाका पालन करनेके कारण ये भी भगवान्की मायाको पार कर गए, और इन्हें परम पदकी प्राप्ति हुई (१९) यदु – साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीके वंशप्रवर्तक – इन्होंने धर्मकी सूक्ष्मताका विचार करके पिताके माँगनेपर भी उन्हें अपना यौवन नहीं दिया, क्योंकि उन्हें यह लगा कि इस यौवनसे पिता माताका उपभोग करेंगे और मुझपर मातृभोगीणताका पाप लग जाएगा, इसीलिये तो इनके वंशमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका प्रादुर्भाव हुआ (२०) गुह – इनकी कथा श्रीरामायणमें प्रसिद्ध है। ये भगवान्के अन्तरङ्ग सखा हैं। इनके लिये वाल्मीकि कहते हैं – गुहमासाद्य धर्मात्मा निषादाधिपतिं प्रियम् (वा.रा. १.१.२९)। और इनके संबन्धमें संतोंके मुखसे कथा सुनी जाती है कि भगवान् श्रीरामके वनवास चले जानेपर गुह सतत रोते रहते थे। और उन्होंने इतना रोया कि इनके नेत्रसे पहले तो आँसू गिरे और फिर रक्त गिरने लगा। धीरे-धीरे इनके नेत्रकी दृष्टि चली गई। और जब भगवान् श्रीराम वनवाससे प्रत्यावृत्त हुए अर्थात् लौटे तब सबने इन्हें समाचार दिया कि प्रभु श्रीराम आ गए हैं। सुनत गुहउ धायउ प्रेमाकुल (मा. ७.१२१.१०) – ये सुनकरके दौड़े अर्थात् दिखता नहीं था इन्हें। पर आयउ निकट परम सुख संकुल (मा. ७.१२१.१०) , और फिर प्रभुहिं सहित बिलोकि बैदेही (मा. ७.१२१.११) – जब भगवान् श्रीरामके पास ये पहुँचे तब इन्हें फिर दृष्टि मिल गई, और इन्होंने सीतारामजीके दर्शन किये। इन्हींके संबन्धमें भगवान् रामने उत्तरकाण्डमें यह कहा –
तुम मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता॥
(मा. ७.२०.३)
(२१) मान्धाता – ये तो चक्रवर्ती नरेन्द्र थे ही। कहा यह जाता है कि जहाँ तक सूर्यनारायणकी रश्मियाँ जाती थीं वहाँ तककी भूमि मान्धाताकी थी। इन्हीं मान्धातासे पचास कन्याएँ प्राप्त की थीं महर्षि सौभरिने। इन्हीं मान्धाताके पुत्र थे मुचुकुन्द। (२२) पिप्पलाद – ये उच्च कोटिके महर्षि थे (२३) निमि – जनकवंशके प्रवर्तक (२४) भरद्वाज – सप्तर्षियोंमें एक, ये महर्षि वाल्मीकिके शिष्य भी थे। इन्होंने ही याज्ञवल्क्यजीसे भगवान् श्रीरामके आध्यात्मिक पक्षकी चर्चा की, और इन्हींके प्रश्नके आधारपर याज्ञवल्क्यजीने कर्मघाटके आधारपर श्रीरामकथा इन्हें सुनाई। (२५) दक्ष – पुराणमें दक्ष दो हैं। प्रथम सतीजीके पिता दक्ष, जिनका वध शिवजीने किया था। वे अभिप्रेत नहीं हैं। वे भगवान्की मायाको नहीं तरे। यहाँ द्वितीय दक्षकी चर्चा है। इन्हीं दक्षने फिर जाकर प्रचेताओंके यहाँ जन्म लिया और इन्होंने भगवान्की तपस्या करके उनसे प्रजावृद्धिका वरदान पाया। इन्होंने दो बार दस-दस लाख पुत्रोंको जन्म दिया, जिन्हें नारदजीने परिव्राजक बनाया। फिर नारदजीको इन्होंने यह शाप दिया – “तुम चौबीस मिनटसे अधिक कहीं नहीं रह सकते।” अनन्तर इन्होंने साठ कन्याओंको जन्म दिया, जिनसे संपूर्ण सृष्टि भरी-पूरी हो गई। इन्हीं दक्षकी यहाँ चर्चा की जा रही है। (२६) सरभंग सँघाता – शरभङ्ग रामायणके प्रसिद्ध ऋषि हैं। इन्होंने भगवान् रामसे कहा – “प्रभु! जब मैं ब्रह्मलोक जा रहा था, उसी समय मैंने वनमें आपके आनेकी बात सुनी। मैं ब्रह्माजीके सिंहासनसे कूद पड़ा और अपनी कुटियामें आ गया। तबसे आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। आज आपके दर्शनसे मेरा हृदय शीतल हो गया,” यथा –
जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ स्रवन बन ऐहैं रामा॥
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥
(मा. ३.८.२-३)
सँघाताका तात्पर्य यह है – फिर इनके संपर्कमें आनेवाले अनेक मुनिगण जो शरभङ्गके परलोक जाते समय श्रीरामजीके साक्षी बने, जिनके लिये गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा –
ऋषिनिकाय मुनिवर गति देखी। सुखी भए निज हृदय बिशेषी॥
अस्तुति करहिं सकल मुनिबृंदा। जयति प्रनतहित करुनाकंदा॥
पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिवरबृंद बिपुल सँग लागे॥
(मा. ३.९.३-५)
इन्हींमें सुतीक्ष्णजी आदि दण्डकवनके सभी ऋषिगण हैं। (२७) सञ्जय जो व्यासजीके प्रसादसे दिव्यदृष्टि पाकर गीताशास्त्रके श्रोता और द्रष्टा बने। गीतामें सञ्जय उवाच प्रसिद्ध ही है। सञ्जयका अन्तिम निर्णय बहुत ही रोचक और बहुत ही सिद्धान्तसंगत है –
यत्र योगेश्वरो कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
(भ.गी. १८.७८)
(२८) शमीक – इनके गलेमें महाराज परीक्षित्ने मृत सर्प डाल दिया फिर भी इन्हें क्रोध नहीं आया। उलटे पुत्रके द्वारा परीक्षित्को शाप देनेकी बात सुनकर शमीक बहुत दुःखी हुए, और उन्होंने भगवान्से क्षमा माँगते हुए कहा – “मेरे पुत्रने जो अनुचित किया, प्रभु! आप क्षमा कर दें।” (२९) उत्तानपाद – परमभागवत ध्रुवके पिताश्री। पहले तो ध्रुवका इन्होंने अपमान किया परन्तु जब ध्रुव भगवान्से वरदान प्राप्त करके आए तो इन्होंने ध्रुवको हृदयसे लगा लिया, और ये ध्रुवको राज्य सौंपकर वनको चले गए। (३०) याज्ञवल्क्य – इनकी भगवद्भक्तिकी कहाँ तक बात कही जाए? इन्होंने महर्षि भरद्वाजको श्रीरामकथा सुनाई और यही जनकजीके पुरोहित बने। इन्होंने जनक-सुनयनाजीको संपूर्ण श्रीरामकथा सुनाई थी। सुनयनाजीने इसका उद्धरण कौशल्याजीको दिया –
राम जाइ बन करि सुरकाजू। अचल अवधपुर करिहैं राजू॥
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहैं अपने अपने थल॥
यह सब जाग्यबल्क्य कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाखा॥
(मा. २.२८५.६-८)
इन सबके यशसे संसार भर गया है। ऐसे श्रीहरिमायाको तरने वाले भक्तोंके लिये स्पष्ट कह दिया नाभाजीने कि मेरे सिरपर इनके चरणकी धूलिकी राशि सतत विराजमान रहे।
अब नाभाजी निमि और नौ योगेश्वरोंके चरणत्राण अर्थात् पादुकाकी शरणागति चाह रहे हैं। क्योंकि योगेश्वर ब्राह्मण हैं, वे पनही तो धारण कर नहीं सकते, वे तो पादुका ही धारण करेंगे। और निमि भी पादुका ही धारण करेंगे। इसलिये उचित है कि यहाँ पादत्रानका अर्थ पादुका ही किया जाए।