॥ ११ ॥
अंघ्री अम्बुज पांसु को जन्म जन्म हौं जाचिहौं॥
प्राचीनबर्हि सत्यब्रत रहूगण सगर भगीरथ।
बाल्मीकि मिथिलेस गए जे जे गोबिँद पथ॥
रुक्मांगद हरिचंद भरत दधीचि उदारा।
सुरथ सुधन्वा शिबिर सुमति अति बलिकी दारा॥
नील मोरध्वज ताम्रध्वज अलरक कीरति राचिहौं।
अंघ्री अम्बुज पांसु को जन्म जन्म हौं जाचिहौं॥
मूलार्थ – अंघ्री अर्थात् चरण, अम्बुज अर्थात् कमल, पांसु अर्थात् धूलि। मैं (१) महाराज प्राचीनबर्हि (२) महाराज सत्यव्रत (३) महाराज रहूगण (४) महाराज सगर (५) महाराज भगीरथ (६) महर्षि वाल्मीकि (७) मिथिलेश अर्थात् महाराज सीरध्वज जनक और बहुलाश्व – इस प्रकार जो-जो परम भागवत भगवान् गोविन्दके पथका अनुसरण किये हैं अर्थात् जो-जो भगवत्पथपर आरूढ हुए हैं, ऐसे (८) महाराज रुक्माङ्गद (९) महाराज हरिश्चन्द्र (१०) भक्तशिरोमणि दशरथ-कैकेयीके संकल्पसे प्रकट हुए भैया भरत (११) उदार दधीचि (१२) महाराज सुरथ (१३) महाराज सुधन्वा (१४) महाराज शिबि (१५) अत्यन्त सुन्दर बुद्धिवाली, महाराज बलिकी पत्नी श्रीविन्ध्यावलीजी (१६) नील अर्थात् नीलध्वज (१७) मोरध्वज और ताम्रध्वज एवं (१८) अलर्ककी कीर्तिमें राचिहौं अर्थात् रँग जाऊँगा। और इन भागवतोंके चरणकमलकी धूलिको मैं जन्म जन्म अर्थात् अगणित जन्मोंतक याचनाका विषय बनाता रहूँगा, अर्थात् इनकी चरणधूलिको मैं माँगता रहूँगा, कि मुझे मिल जाए तो मैं धन्य हो जाऊँगा।
प्राचीनबर्हि, जो महाराज ध्रुवके वंशमें जन्मे, उनके मनमें कर्मकाण्डके प्रति बहुत निष्ठा थी। उन्हें नारदजीने पुरञ्जनोपाख्यान सुनाकर कर्मकाण्डके अधिक प्रयोगसे हटाकर भगवत्प्रेमी बना दिया।
सत्यव्रत – जो अभी इस मन्वन्तरके वैवस्वत मनु हैं तथा जिनके संकल्पसे भगवान्का मत्स्यावतार हुआ।
रहूगण – यही सौवीराधिपति पालकीपर चढ़कर महर्षि कपिलसे विद्या प्राप्त करने जा रहे थे। जब एक पालकीचालककी उच्छृङ्खलतासे वे क्षुब्ध हुए, तब पालकी चलानेवाले जडभरतने स्पष्ट कहा – “तुम मूर्ख होकर भी पण्डितों जैसी बात बोलते हो। विद्वान् लोग कभी भी इस व्यवहारको तत्त्वावबोधके साथ नहीं जोड़ते।” और उन्हीं रहूगणको जडभरतने यह समझाया – “रहूगण! यह अध्यात्मविद्या तपस्यासे नहीं प्राप्त हो सकती। यज्ञ या मुण्डन अथवा ग्रहोंसे नहीं प्राप्त होती, तथा सूर्य, अग्नि और जलकी उपासनासे नहीं प्राप्त होती। यह तो जब तक साधक महापुरुषोंके चरणकमलकी धूलिका प्रयोग करके अपने मनको शुद्ध नहीं करता, तब तक प्राप्त नहीं हो सकती। संपूर्ण व्यवहारोंकी जड़ है आचार्यको संतोष।”
महाराज सगर – ये अयोध्याके चक्रवर्ती महाराज थे। इन्होंने सौ अश्वमेध यज्ञ किये। सौवें यज्ञमें इन्द्रने विघ्न डाला और सगरके घोड़ेको चुराकर कपिलके आश्रममें बंद कर दिया। सगरके साठ हजार पुत्र ढूँढते-ढूँढते वहाँ आए और उन्होंने कपिलको दुर्वाक्य कहे। कपिलदेवकी क्रोधाग्निसे उनका शरीर भस्म हो गया। साठ हजार युवक राजपुत्रोंकी भस्मराशि देखकर स्वयं अंशुमान् क्षुब्ध हुए और कपिलदेवकी आज्ञासे उन्होंने, उनके पुत्र दिलीपने, तथा उनके पौत्र भगीरथने गङ्गाजीको लानेका यत्न किया। इस प्रकार सगर जैसे महापुरुषने भगवत्प्राप्ति करके सागरकी परम्पराको अक्षुण्ण और प्रामाणिक बनाया। भगीरथ इन्हीं महाराज सगरके प्रपौत्र थे। जब अंशुमान्को कपिलदेवने आज्ञा दी कि किसी प्रकार गङ्गा ले आएँगे तभी सगरपुत्रोंका उद्धार हो सकेगा, तब गङ्गाको लानेके लिये तपस्या करके अंशुमान्ने शरीर छोड़ा, महाराज दिलीपने शरीर छोड़ा, फिर भगीरथने तपस्या की। और भगीरथने यत्न करके गङ्गाजीको प्रसन्न कर लिया और शिवजीकी सहायतासे गङ्गाजीको भगीरथ धराधामपर ले आए, इसलिये उनका नाम भागीरथी पड़ गया। धन्य हो गया वह व्यक्तित्व जिसने वसुधामें सुधारसका संचरण किया।
महर्षि वाल्मीकि – ये यद्यपि भृगुवंशी ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुए, जन्मना ये ब्राह्मण थे, परन्तु कुसंगतिके कारण किरातोंके संसर्गसे वे दूषितहो गए थे। उनका ब्रह्मत्व तिरोहित हो गया था। परमेश्वरकी कृपासे और सप्तर्षियोंके संकल्पसे वाल्मीकिके जीवनमें सुधार आया। इनका पूर्वका नाम अग्निशर्मा था। किसी-किसीके मतमें इनका नाम रत्नाकर भी बताया जाता है। सप्तर्षियोंने इन्हें मरा मराका ही उपदेश दिया – मरा मरा मरा चैव मरेति जप सर्वदा (भ.पु.प्र.प.)। मरा मरा जपते-जपते इनके मुखसे राम निकल गया। इन्होंने रामनामका इतना जप किया कि इनके शरीरपर दीमककी माटी आ गई, जिसे संस्कृतमें वल्मीक कहते हैं। वल्मीकसे ढके होनेके कारण इनका नाम वाल्मीकि है। अनन्तर इन्होंने ही वाल्मीकीयरामायणका सृजन किया, जो विश्वका प्रथम काव्य और आदिकाव्य बना। इसमें मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामकी लोकमङ्गलकथा कहकर महर्षि वाल्मीकिने राष्ट्रकी व्यथा ही हर ली। इतना ही नहीं, उन्होंने श्रीरामचरितका वर्णन करनेके लिये सौ करोड़ रामायणें लिखीं – चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् (रा.र.स्तो. १)।
मिथिलेश – सीरध्वज जनक। ये भी भगवान्के पथपर आरूढ़ हुए। इन्हें श्रीरामके प्रति गूढ प्रेम था –
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहु॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
(मा. १.१७.१-२)
जनकजीका भगवान्के प्रति इतना अनन्य प्रेम था कि प्रथम दर्शनमें ही उन्होंने विश्वामित्रसे कह दिया कि श्रीरामको देखनेमें मेरा मन इतना अनुरक्त हो रहा है कि वह ब्रह्मसुखको हठात् छोड़ता जा रहा है –
इनहिं बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहिं मन त्यागा॥
(मा. १.२१६.५)
ऐसे गोविन्दपथपर आरूढ भक्तके चरणकी धूलिकी याचना स्वाभाविक ही है।
रुक्माङ्गद – ये अयोध्याके महाराज थे। इनकी एकादशीव्रतपर बहुत निष्ठा थी, और कईं बार भगवान्ने इनकी परीक्षा ली फिर भी ये डिगे नहीं। भगवान्ने इनकी परीक्षा लेनेके लिये एक मायाकी नारी इनके समक्ष भेज दी। उसका नाम ही था मोहिनी। महाराज उससे आकृष्ट हुए, उससे विवाह भी किया। उसने जब यह कहा था कि आपको मेरी प्रत्येक बात माननी पड़ेगी, उस समय महाराजने “हाँ” कह दिया था। परन्तु जब उस मोहिनीने कहा – “आपको एकादशीव्रत छोड़ना होगा,” तब रुक्माङ्गदने कहा – “तुम जाओ चाहे रहो, मैं एकादशीव्रत नहीं छोड़ता।” तब भगवान् ही प्रकट हो गए।
हरिश्चन्द्र – ये भी अयोध्याके महाराज थे। इनकी यशोगाथा सुनकर विश्वामित्रजीने इनकी परीक्षा लेनी चाही और इनका संपूर्ण राज्य ले लिया, यहाँ तक कि महाराज हरिश्चन्द्र काशीमें स्वयं पत्नीके सहित बिक गए और डोमकी सेवामें लगे, मृत्युकर लेनेका कार्य करने लगे। रोहिताश्वको विश्वामित्रने सर्प होकर डस लिया। उसे लेकर हरिश्चन्द्रकी पत्नी शैव्या, जो ब्राह्मणदासी हो गईं थीं, श्मशानमें आईं। उनसे महाराजने कर माँगा। उनके पास कुछ नहीं था। वे जब अपनी साड़ी ही देने लगीं तब भगवान्ने हाथ पकड़ लिया।
चूँकि यह चर्चा और यह प्रसंग अयोध्याके राजाओंका है – रुक्माङ्गद अयोध्याके राजा, हरिश्चन्द्र अयोध्याके राजा, अतः उनके संसर्गसे भरत भी अयोध्याधिपतिके पुत्र ही यहाँ स्वीकार किये जाएँगे, न तो दुष्यन्त-शकुन्तला पुत्र भरत, और न ही ऋषभ-जयन्ती पुत्र भरत। भरत अर्थात् श्रीरामके छोटे भ्राता, जो परम भागवत हैं। वास्तवमें यदि यहाँ भरत शब्दसे दशरथनन्दन भरतका ग्रहण नहीं किया जाएगा तब तो भक्तमाल अधूरा ही रह जाएगा, क्योंकि नाभाजी सभी भक्तोंकी चर्चा करके भी यदि भरतजीकी चर्चा नहीं करेंगे तो यह ग्रन्थ अधूरा रहेगा। इसलिये भक्तमालके अध्येताओंसे मेरा विनम्र निवेदन है कि यहाँ भरत शब्दसे उन्हें न तो ऋषभ-जयन्ती पुत्र भरतका ग्रहण करना चाहिये, और न ही दुष्यन्त-शकुन्तला पुत्र भरतका ग्रहण करना चाहिये। वस्तुतः यहाँ भरतशब्दसे दशरथनन्दन, श्रीरामके छोटे भाई, भावते भैया भरतका ही ग्रहण करना चाहिये। श्रीभरतकी भक्तिके संबन्धमें हमारी भरत महिमा पुस्तक और हमारे प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्ही, सब बिधि भरत सराहन जोगू आदि प्रबन्धग्रन्थ पढ़ने चाहिये।
इसी प्रकार उदार दधीचि जिन्होंने देवताओंके लिये अपना अस्थिदान कर दिया था।
सुरथ और सुधन्वाकी कथा महाभारतके जैमिनीयाश्वमेधपर्वमें उपलब्ध होती है। जब युधिष्ठिरजीका अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ हुआ और उनके अश्वकी रक्षामें पृथानन्दन अर्जुन नियुक्त हुए, उस समय सुरथ और सुधन्वाके पिताने उन्हें युद्धमें भेजना चाहा। सुधन्वा एकनारीव्रत थे। अपनी माताके आदेशका पालन करते हुए वे पत्नीके द्वारा की जा रही आरती उतरवानेमें थोड़े-से विलम्बित हो गए। तब उन्हें शङ्ख और लिखित जैसे कुटिल मन्त्रियोंकी सम्मतिसे खौलते हुए तेलकी कढ़ाहीमें महाराजने फिंकवा दिया। परन्तु सुधन्वा यथावत् बचे रहे। उनको कोई हानि नहीं हुई। यह आश्चर्य देखकर शङ्ख और लिखितने एक नारियल कढ़ाहीमें फेंककर उनकी परीक्षा ली। नारियलके टुकड़े उन्हींके सिरपर जाकर टकरा गए। वही सुधन्वा, भगवान्के साथ उपस्थित हुए अर्जुनसे युद्ध करनेके लिये आए। घोर युद्ध किया। अर्जुनके हाथों सुधन्वाने वीरगति प्राप्त की और अर्जुनको पकड़े-पकड़े वे भगवान्के चरणपर गिर पड़े। उनका सिर भगवान्ने फेंक दिया, जिसे शिवजीने मुण्डमालामें लगा लिया। इसी प्रकार सुरथने भी अर्जुनसे घोर युद्ध किया और भगवान्का नाम लेकर जब अर्जुनने सुरथपर बाण चलाया तो सुरथको यह अनुमान लगाते विलम्ब न लगा कि प्रभु ही मुझे लेनेके लिये आए हैं। तुरन्त सुरथने दौड़कर अर्जुनको पकड़ लिया और अर्जुन द्वारा मारे जानेपर सुरथका सिर नीचे गिरा भगवान्के चरणों में। भगवान्ने वह सिर गरुडके द्वारा प्रयाग भिजवाया। उसे भी शिवजीने अपनी मुण्डमालामें लगा लिया।
महाराज शिबिका महाभारत के भिन्न-भिन्न पर्वोंमें वर्णन है। अग्नि और इन्द्रके द्वारा कबूतर और बाजके रूप में ली गई महाराज शिबिकी परीक्षा तो सर्वविदित है ही, जिसका वर्णन महाभारतके वनपर्वमें है। शरणमें आए हुए कबूतरके प्राणोंकी रक्षाके लिये महाराज शिबिने बाजके द्वारा कबूतरके भारके समान उनका मांस माँगे जानेपर स्वयं अपने शरीरका मांस काट-काटकर तराजूपर तोला। कबूतरके उत्तरोत्तर भारी होनेपर जब महाराज शिबिके पास काटनेको मांस नहीं बचा, तो वे स्वयं तराजूपर चढ़ गए। तभी अग्नि और इन्द्र अपने मूलरूपमें प्रकट हुए और उन्होंने राजा शिबिको आशीर्वाद दिया। अनेक वर्षोंतक भगवद्भक्त राजा शिबिने धर्मानुसार पृथ्वीका पालन किया।
बलिकी पत्नी विन्ध्यावली, जिनको नाभाजीने सुमति कहा, ये सुन्दर बुद्धिवाली हैं। उनके पति अर्थात् बलिका भगवान्ने सब कुछ ले लिया, फिर भी उन्हें क्रोध नहीं आया। और उन्होंने प्रभुकी कृतज्ञताका बोध किया – “धन्य हैं प्रभु, मेरे पतिके अहंकारको आपने समाप्त कर दिया और मेरे पतिके सिरपर आपने चरण रख दिया, उन्हें अपना कृपाभाजन बना लिया। मैं भी एक वरदान आपसे माँगती हूँ कि आप पातालमें विराजें और प्रातःकाल मैं जिस द्वारपर निहारूँ उस द्वारपर आपके दर्शन हो जाएँ।” धन्य हैं वे विन्ध्यावलीजी।
नीलध्वज, मोरध्वज, ताम्रध्वज और अलर्ककी कीर्तिमें मैं रच जाऊँ, उनकी कीर्तिमें मैं मग्न हो जाऊँ। नीलध्वज बड़े प्रतापी राजा थे। जब युधिष्ठिरका अश्वमेधीय अश्व महाराज नीलध्वजकी राजधानीमें आया तब अग्निदेवके कहनेपर नीलध्वजने अर्जुनसे युद्ध नहीं किया और उन्हींकी सहायतामें लग गए।
मोरध्वज अद्भुत प्रतापी राजा थे। उनकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान्ने स्वयं एक ब्राह्मणका रूप बनाया, अर्जुनको बालक बनाया, यमराजको सिंह बनाया, और मोरध्वजसे कहा – “यदि तुम्हारा शरीर तुम्हारे बेटे द्वारा आरेसे चीरा जाए और वह प्रसन्नतासे यह विधि संपन्न करे और तुम्हारे भी मनमें किसी प्रकारकी ग्लानि न हो तो उसी मांसको मेरा सिंह खाएगा, तब मैं बालकके साथ भोजन कर लूँगा।” मोरध्वजने यह बात स्वीकार कर ली। उनके पुत्र ताम्रध्वजने हँसते-हँसते आरा चलाना प्रारम्भ किया। मोरध्वज जयगोविन्द, श्रीगोविन्द, हरिगोविन्द जैसे दिव्य भगवन्नामोंका उच्चारण करते रहे। अन्ततोगत्वा वाम आँखमें थोड़ा-सा आँसू आ गया। तब भगवान्ने कहा – “अब तो मेरा सिंह भोजन नहीं करेगा।” तब मोरध्वजने टूटे स्वरमें कहा – “भगवन्! आप मेरे वाम अङ्गको नहीं स्वीकार रहे थे, इसकी निरर्थकतापर मेरे वाम नेत्रमें आँसू आ गए थे।” भगवान् प्रसन्न हो गए, और मोरध्वजको जीवित कर दिया। किन्हीं-किन्हींके मतमें मोरध्वजने अपने पुत्र ताम्रध्वजके ही शरीरको अपने हाथसे आरेसे चीरा था और भगवान्ने ताम्रध्वजको जीवित कर दिया था। इस कथाका संदर्भ सत्यनारायणव्रतकथामें वेदव्यासने इस प्रकार दिया है –
धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्।
देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह॥
(स्क.पु.रे.ख.स.क. ५.२२)
महाराज अलर्क, जिनकी माताकी चर्चा पूर्व छप्पयमें आ गई है, मदालसाके चतुर्थ पुत्र हैं। ऋतध्वजकी प्रार्थनापर मदालसाने इन्हें प्रवृत्तिमार्गमें लगा दिया था। स्वयं मदालसा जब वन जाने लगीं तब उन्होंने दो श्लोक लिखकर इनकी कलाईमें बाँध दिया था। जाते-जाते मदालसा यह कह कर गईं थीं कि जब संकटमें पड़ना तब मेरे इन दोनों श्लोकोंको पढ़ लेना। इधर सुबाहु आदि राजकुमारोंने अलर्कपर आक्रमण करवा दिया और महाराज संकटमें पड़ गए। मदालसाकी बात स्मरणमें आई और उन्होंने अपने हाथमें बँधे हुए श्लोकोंको खोलकर पढ़ा। मदालसाने दो अनुष्टुप् लिखे थे। प्रथम श्लोक था –
सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्यक्तुं न शक्यते।
स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम्॥
(मा.पु. ३७.२३)
अर्थात् कभी भी किसीसे आसक्ति अथवा लगाव नहीं रखना चाहिये। यदि वह न छूट सके तो वह लगाव संतोंके साथ करना चाहिये। संतोंका संग ही भवरोगका बहुत बड़ा भेषज है, दवा है, औषधि है। द्वितीय श्लोक था –
कामः सर्वात्मना हेयो हातुञ्चेच्छक्यते न सः।
मुमुक्षां प्रति तत्कार्यं सैव तस्यापि भेषजम्॥
(मा.पु. ३७.२४)
कभी भी मनमें किसी प्रकारकी कामना नहीं करनी चाहिये। यदि कामनाका त्याग न हो सके तो उसको मुमुक्षाके प्रति करना चाहिये अर्थात् मोक्षकी कामना करनी चाहिये, क्योंकि वही कामना संसारके रोगोंका भेषज है।
इस प्रकार प्राचीनबर्हि, सत्यव्रत, रहूगण, सगर, भगीरथ, महर्षि वाल्मीकि, योगिराज सीरध्वज जनक, रुक्माङ्गद, हरिश्चन्द्र, दशरथनन्दन श्रीरामभक्त श्रीरामानुज भरत, उदार दधीचि, सुरथ, सुधन्वा, शिबि, अत्यन्त शुद्ध बुद्धिवाली बलिकी पत्नी विन्ध्यावली, नील अर्थात् नीलध्वज, मोरध्वज, ताम्रध्वज और अलर्ककी कीर्तिमें मैं सतत मग्न रहूँगा और इन्हींके चरणकमलकी धूलिकी मैं जन्म-जन्मान्तर पर्यन्त याचना करता रहूँगा।