पद ०१०


॥ १० ॥
पदपंकज बाँछौं सदा जिनके हरि उर नित बसैं॥
योगेश्वर श्रुतदेव अंग मुचु(कुंद) प्रियब्रत जेता।
पृथू परीक्षित शेष सूत शौनक परचेता॥
शतरूपा त्रय सुता सुनीति सति सबहि मँदालस।
जग्यपत्नि ब्रजनारि किये केशव अपने बस॥
ऐसे नर नारी जिते तिनही के गाऊँ जसैं।
पदपंकज बाँछौं सदा जिनके हरि उर नित बसैं॥

मूलार्थ – मैं उनके चरण­कमलोंको सेवाके लिये सदा इच्छाका विषय बनाता रहता हूँ अर्थात् उनके चरण­कमलोंकी सेवा करनेके लिये सदैव इच्छा करता रहता हूँ जिनके हृदयमें हरि अर्थात् श्रीनाथ भगवान् निरन्तर निवास करते हैं। जैसे (१) नवयोगेश्वर – कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, करभाजन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और पिप्पलायन (२) श्रुतिदेव – मैथिलब्राह्मण जिन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके पधारनेपर तन्मयतामें अपना सर्वस्व निछावर कर दिया था (३) अङ्ग, जो वेनके अत्याचारसे घर छोड़कर परिव्राजक बन गए थे (४) मुचुकुन्द, जिनको शयनमुद्रामें वर्तमान जानकर भगवान्‌ने जाकर स्वयं दर्शन दिया था, जब मुचुकुन्दकी क्रोधाग्निसे कालयवन जल गया था (५) विजयी प्रियव्रत, जिनकी चर्चा मानसकारने स्वयं की है –

लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रशंसहिं जाही॥

(मा. १.१४२.४)

(६) महाराज पृथु (७) महाराज परीक्षित् (८) पृथ्वीका भार वहन करनेवाले शेषजी (९) पुराणके वक्ता और रोमहर्षणके पुत्र सूतजी (१०) पुराणके प्रश्नकर्ता अट्ठासी हजार ऋषियोंके कुलपति शौनकजी (११) प्राचीनबर्हि नामसे प्रसिद्ध बर्हिषद्‍के दस पुत्र प्रचेतागण (१२) महारानी शतरूपा – स्वायम्भुव मनुकी धर्मपत्नी (१३) उनकी तीनों पुत्रियाँ – आकूति, देवहूति और प्रसूति (१४) सुनीति – शतरूपाजीकी प्रथम पुत्रवधू, उत्तानपादकी धर्मपत्नी और ध्रुवकी माता (१५) सभी सतियाँ – भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी पतिव्रताएँ (१६) स्वयं मदालसा – ऋतध्वजकी पत्नी और विश्वावासु गन्धर्वकी पुत्री, जिन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि उनके गर्भमें जो बालक आ जाएगा वह दुबारा गर्भमें नहीं आएगा (१७) यज्ञपत्नियाँ और (१८) श्रीव्रजाङ्गनाएँ जिन्होंने केशव अर्थात् भगवान् श्रीकृष्णको अपने वशमें कर लिया है। इनके चरण­कमलकी सेवा मुझे अभीष्ट है। अर्थात् मैं इन सभी परिकरोंके चरणकमलोंकी सेवाके लिये सदैव इच्छा करता रहता हूँ। ऐसे जितने भी नर-नारी हैं, उनके यशको मैं सतत गाता रहूँ और उनके चरण­कमलोंका निरन्तर मैं सेवाभिलाष धारण करूँ अर्थात् उनकी चरण­रेणुकी प्राप्तिकी आशा मेरे लिये सदैव बनी रहे, जिनके हृदयमें श्रीहरि निरन्तर निवास करते हैं।

इस छप्पयमें नाभाजीने जिन महाभागवतोंकी चर्चा की है उनके हृदयमें प्रभु निरन्तर निवास करते ही हैं। यहाँ सती शब्द दक्षपुत्री और शङ्करपत्नी सतीके अर्थमें नहीं प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि दक्षपुत्री सती भगवदीया नहीं थीं। वे तो भगवान्‌पर संशय करके अपने जीवनको संशयारूढ बना चुकी थीं। अतः उनमें भगवद्यशोगानकी पात्रता ही नहीं है। यहाँ सती शब्द सभी पतिव्रताओंका उपलक्षण है, न कि शङ्करपत्नी सतीका।

सभी पतिव्रताओंके साथ-साथ नाभाजी मदालसाका स्मरण करते हैं, जिन्होंने अपने प्रत्येक पुत्रको ऐसा दिव्य ज्ञान दिया जिससे वह फिर गर्भमें ही न आए। मदालसाका व्यक्तित्व बड़ा ही पावन है। मदालसा शब्दका अर्थ ही होता है मदः अलसः यया सा मदालसा अर्थात् जिनके कारण मद नीरस हो जाता है वे हैं मदालसा। स्वयं विश्वावसु गन्धर्वकी पुत्री और ऋतध्वज कुवलयाश्व महाराजकी धर्मपत्नी मदालसा अपने तीन-तीन पुत्रोंको – विक्रान्त, सुबाहु और शत्रुमर्दनको – बाल्यावस्थामें लोरी सुनाती हुईं कितना दिव्य उपदेश देती हैं। मदालसा विक्रान्तसे कहती हैं –

शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाऽधुनैव।
पञ्चात्मकं देहमिदं तवैतन्नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः॥

(मा.पु. २५.११)

अर्थात् हे बालक। तुम शुद्ध हो, विशुद्ध जीवात्मा हो। तुम्हारा कोई नाम नहीं है। यह तो कल्पनासे अभी-अभी तुम्हारे भौतिक माता-पिता हमने यह नाम विक्रान्त रख दिया है। वास्तवमें तुम विक्रान्त नहीं हो। यह पञ्चात्मक शरीर भी तुम्हारा नहीं है, और तुम इसके नहीं हो। फिर किस कारणसे रो रहे हो?

शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि संसारमायापरिवर्जितोऽसि।
संसारनिद्रां त्यज स्वप्नरूपां मदालसा पुत्रमुवाच वाक्यम्॥

तुम शुद्ध जीवात्मा हो, तुम बुद्ध हो अर्थात् सब कुछ जान गए हो, तुम निरञ्जन हो, और तुम संसारकी मायासे वर्जित अर्थात् अत्यन्त दूर हो। अतः बेटे! स्वप्नरूप संसारकी निद्राको छोड़ दो। इस प्रकार मदालसाने अपने पुत्रको संबोधित करके यह वाक्य कहा। विक्रान्त भगवत्परायण हो गए। यही परिस्थिति सुबाहुके साथ भी संपन्न हुई। यही घटना घटी। सुबाहुको भी मदालसाने यही लोरी सुनाई, सुबाहु भी भगवत्परायण हो गए। पुनः यही परिस्थिति शत्रुमर्दन नामक बालकके साथ भी आई। वहाँ भी मदालसाने यही लोरी सुनाई। शत्रुमर्दन भी भगवत्परायण विरक्त परिव्राजक बन गए। चतुर्थ बालक अलर्कने जब जन्म लिया, उस समय महाराजने मदालसासे विनती की कि मेरा वंश चलानेके लिये तो एक बालक चाहिये, इसको विरक्त मत बनाइये। मदालसाने महाराजकी बात मान ली, और अलर्कको प्रवृत्तिमार्गका उपदेश दिया। अन्ततोगत्वा मदालसाने एक पत्र लिखकर महाराज अलर्कके हाथमें विराजमान मुद्रिकाके भीतर छिपाकर रख दिया, और कहा – “जब संकट पड़े तब तुम यह पत्र पढ़ लेना।” वही हुआ। उस पत्रको पढ़कर अलर्क प्रवृत्तिको छोड़कर निवृत्तिके मार्गमें आ गए और धन्य-धन्य हो गए। धन्य हैं ये मदालसा, जिन्होंने अपने बेटोंको भगवत्परायण बना दिया।

यज्ञपत्नियाँ – भगवान् श्रीकृष्ण और ग्वालबालोंको जब भूख लगी तब यज्ञपत्नियोंसे भगवान्‌ने भोजनकी याचना कराई, और वे तुरन्त विविध प्रकारके व्यञ्जन बनाकर प्रभुके पास लेकर दौड़ पड़ीं। वहाँ भगवान्‌को निहारकर वे धन्य हो गईं। क्या ही सुन्दर दिव्य झाँकी दिखी –

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्हधातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे।
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्॥

(भा.पु. १०.२३.२२)

क्या ही सुन्दर! कोटि-कोटि बालदिवाकरोंको भी विनिन्दित करने वाले, दिव्य पीताम्बरको धारण किये हुए, वनमाला, मयूर­मुकुट, धातु, प्रवाल आदि अलंकारोंसे युक्त, अनुव्रतायाः अंसः अनुव्रतांसः तस्मिन् अनुव्रतांसे अर्थात् अनुकूल व्रतका आचरण करनेवाली राधाजीके स्कन्धपर अपना वाम करकमल धारण किये हुए, और दक्षिण करकमलसे स्वयं एक कमलपुष्पको हिलाते हुए, और कर्णोत्पलालक­कपोल­मुखाब्जहासम् अर्थात् प्रभुके दिव्य कानोंमें उत्पल, उनका वह दिव्य अलक, मुखकमलपर मन्दहास – यह देखकर यज्ञपत्नियाँ धन्य हो गईं। उन्होंने प्रभुको प्रेमसे प्रसाद पवाया और प्रार्थना की – “प्रभु! मुझे स्वीकार लीजिये।” प्रभुने कहा – “आप ब्राह्मण­पत्नियाँ हैं। आप यज्ञमें पधारें। कोई भी कुछ भी नहीं बोलेगा। आपके पति भी आपको स्वीकारेंगे।”

ब्रजनारी अर्थात् वे धन्य व्रजबालाएँ जिनके लिये नाभाजीने कहा – किये केशव अपने बसकं ब्रह्माणमीशं शिवं च वशयति इति केशवः अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मा और शिवको भी वशमें कर लिया है ऐसे जगन्नियन्ता केशवको ही व्रजनारियोंने वशमें कर लिया। इसीलिये तो रसखानने कहा –

शेष महेश गणेश दिनेश सुरेशहु जाहि निरन्तर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक ब्यास रटैं पचि हारें तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

इस प्रकारके जितने भी नर-नारी हैं, मैं उनके यशको सतत गाना चाहता हूँ। जिनके हृदयमें श्रीहरि निरन्तर बसते हैं, मैं सेवा करनेके लिये उन्हीं परम­भागवतोंके चरणकमलोंको प्राप्त करनेकी सदैव इच्छा करता हूँ। नाभाजी आगे कहते हैं –