पद ००९


॥ ९ ॥
हरिबल्लभ सब प्रारथों (जिन) चरनरेनु आशा धरी॥
कमला गरुड सुनंद आदि षोडस प्रभुपदरति।
(हनुमंत) जामवंत सुग्रीव विभीषण शबरी खगपति॥
ध्रुव उद्धव अँबरीष बिदुर अक्रूर सुदामा।
चंद्रहास चित्रकेतु ग्राह गज पांडव नामा॥
कौषारव कुंतीबधू पट ऐंचत लज्जाहरी।
हरिबल्लभ सब प्रारथों (जिन) चरनरेनु आशा धरी॥

मूलार्थ – मैं उन भागवतोंकी प्रार्थना कर रहा हूँ, जो श्रीहरिको प्रिय हैं, और श्रीहरि जिनको प्रिय हैं, जिन्होंने भगवान् श्रीहरिकी चरणरेणुको प्राप्त करनेके लिये आशा धारण की है, और मैंने अर्थात् नारायणदास नाभाने भी जिन भक्तोंके श्रीचरणोंकी धूलिको प्राप्त करनेके लिये अपने जीवनमें आशा धारण की है, आशा लगाए बैठा हूँ कि कभी-न-कभी मुझे इनके चरणोंकी धूलि प्राप्त हो ही जाएगी। ये हैं – (१) कमला अर्थात् श्रीलक्ष्मीजी (२) गरुडजी (३) सुनन्द आदि भगवान् नारायणके सोलह पार्षद (४) श्रीहनुमान्‌जी (५) श्रीजाम्बवान्‌जी (६) श्रीसुग्रीवजी (७) श्रीविभीषणजी (८) माँ शबरीजी (९) खगपति पक्षिराज श्रीजटायुजी (१०) श्रीध्रुवजी (११) श्रीउद्धवजी (१२) श्रीअम्बरीषजी (१३) श्रीविदुरजी (१४) श्रीअक्रूरजी (१५) श्रीसुदामाजी (१६) श्रीचन्द्रहासजी (१७) श्रीचित्रकेतुजी (१८) ग्राह और (१९) गजेन्द्र तथा (२०) पाण्डवनामसे प्रसिद्ध पाँचों पाण्डुपुत्र (श्रीयुधिष्ठिर, श्रीभीम, श्रीअर्जुन, श्रीनकुल, और श्रीसहदेवजी) (२१) कौषारव अर्थात् कुषारव मुनिके पुत्र श्रीमैत्रेयजी (२२) माँ कुन्तीजी एवं (२३) कुन्तीजीकी आज्ञासे अपनी जीवनचर्या चलाने वालीं द्रौपदीजी जिनके वस्त्रको दुःशासन द्वारा खींचते समय प्रभु श्रीकृष्ण भगवान्‌ने जिनकी लज्जा आहरी अर्थात् लौटा दी थी, जाती हुई लज्जा लौटा दी थी – ऐसे श्रीहरिवल्लभोंसे मैं प्रार्थना करता हूँ, कि आप दया करें, मुझपर कृपा करें, भगवत्प्रेमामृत प्रदान करें।

लक्ष्मीजीके संबन्धमें तो हम सभी जानते हैं कि वे भगवान्‌के चरणकी सेवा ही करती रहती हैं, और कुछ भी नहीं करना चाहती हैं। उनके लिये भागवतका यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है –

ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपाङ्गमोक्षकामास्तपः समचरन् भगवत्प्रपन्नाः।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ता॥

(भा.पु. १.१६.३२)

अर्थात् ब्रह्मा आदि देवता जिन भगवती लक्ष्मीके कृपाकटाक्ष­मोक्षकी कामना करते हुए भगवत्प्रपन्न होनेपर भी बहुत काल तक तपस्या किये, फिर भी लक्ष्मीजीने उन्हें एक भी बार टेढ़ी दृष्टिसे भी नहीं देखा, अर्थात् नेत्रके कोनेसे भी नहीं देखा, वही लक्ष्मीजी अपने निवास रूप कमलवनको छोड़कर अनुरक्त भावसे जिन प्रभुके चरणकमलके सौन्दर्यका ही भजन करती रहती हैं – अन्य देवपत्नियाँ अपने भिन्न-भिन्न कार्योंमें लगती हैं, जैसे पार्वतीजी भी गृहस्थधर्मका पालन करती हैं, दोनों बेटोंकी सम्भाल और शिवजीकी भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियोंमें पार्वतीजी लगती हैं, वे कभी क्रोध भी करती हैं, युद्ध भी करती हैं – परन्तु लक्ष्मीजीको हमने-आपने कभी युद्ध करते नहीं देखा होगा, क्योंकि उनको भगवान्‌के चरणकी सेवासे समय ही नहीं मिलता, बस उनके चरणका लालन ही करती रहती हैं लक्ष्मीजी।

गरुड भगवान् नारायणके वाहन हैं और ये ही अन्ततोगत्वा भगवान् रामको मेघनाद द्वारा नागपाशमें बँधे हुए देखकर भ्रमित हो जाते हैं। फिर भुशुण्डिजीके चरणोंमें जाकर वे अपना भ्रम दूर करते हैं, और भुशुण्डिजीके श्रीमुखसे श्रीरामकथाके ८४ प्रसंगोंका श्रवण करते हैं। और गरुड मुक्तकण्ठसे कहते हैं –

गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।
भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक॥

(मा. ७.६८क)

ये ही गरुडदेव संपूर्ण रामकथा सुननेके पश्चात् उपासनामें थोड़ा अन्तर करते हुए प्रतीत होते हैं। अपनी पीठपर तो वे भगवान् नारायणको विराजमान कराते हैं उनके वाहन बनकर और अपने हृदयमें भगवान् रामको विराजमान कराते हैं –

तासु चरन सिर नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड बैकुंठ तब हृदय राखि रघुबीर॥

(मा. ७.१२५क)

सुनन्द आदि भगवान् नारायणके सोलह पार्षद हैं, जिनकी चर्चा इसके पूर्व छप्पयमें की जा चुकी है।

श्रीहनुमान्‌जीकी चर्चा कौन नहीं जानता? वही एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो भगवान्‌की बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग दोनों सेवाएँ करना जानते हैं। वे भगवान्‌से दूर रहकर भी भगवद्भजन करते हैं और निकट रहकर भी, और उनके लिये वियोग और संयोग दोनों समान होते हैं। इसलिये हनुमान्‌जी जैसी प्रीति और हनुमान्‌जी जैसी सेवा – एक साथ दोनों किसीके वशकी नहीं है। सेवा लक्ष्मण कर सकते हैं, प्रीतिका निर्वहण भरत कर सकते हैं, पर दोनों निर्वहण तो हनुमान्‌जी ही करना जानते हैं, इसलिये कहा गया –

हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई॥

(मा. ७.५०.८-९)

हनुमान्‌जीके संबन्धमें यह कहा जाता है कि जब भगवान् श्रीरामके द्वारा सीताजीको यह कहा गया कि आप जिसको चाहें उसे हार दे दें, तो सीताजीने हनुमान्‌जीको अपना हार दे दिया। और यहाँ लोगोंका कहना है कि हनुमान्‌जीने उसकी सारी मणियाँ तोड़-तोड़कर नीचे गिराईं। जब लोगोंने पूछा – “इतने बहुमूल्य हारको आपने क्यों तोड़ डाला?” तब हनुमान्‌जीने कह दिया – “इसमें रामनाम नहीं है।” तब लोगोंने कहा – “तो क्या आपके हृदयमें रामनाम है?” तब उन्होंने अपनी छाती चीरकर दिखा दी। यह उक्ति सुननेमें रोचक लगती है, परन्तु इसका हमें अभी कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है। और यह भी मानना ठीक नहीं होगा कि सीताजी द्वारा दिया हुआ वह हार रामनाममय न हो, राममय न हो। यह आख्यान कुछ अतिरञ्जना जैसा लगता है, अतिशयोक्ति जैसा लगता है। इसलिये यहाँ मेरा तो यही निवेदन है कि हनुमान्‌जीकी भक्तिके लिये अनेक उद्धरण वाल्मीकीय­रामायण, रामचरितमानस, महाभारत और किं बहुना वाल्मीकि द्वारा लिखित सौ करोड़ रामायणोंमें पर्याप्त रूपसे वर्णित हैं, तो हनुमन्त­लालजीके संबन्धमें तो कुछ भी और कहनेकी आवश्यकता ही नहीं है।

जाम्बवान् – ये परम भागवत हैं और भगवान्‌के प्रति इनकी अत्यन्त भक्ति है। स्वयं ब्रह्माजी ही तो जाम्बवान्‌के रूपमें आए। शिवजी हनुमान्‌जी बनकर और ब्रह्माजी जाम्बवान् बनकर। गोस्वामीजी कहते हैं –

जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान।
पुरुषा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥

(दो. १४३)

वही जाम्बवान् श्रीरामको जब मिलते हैं, समय-समयपर भगवान्‌के कार्यमें पूर्ण सहायता करते हैं। अङ्गदको विचलित हुआ देखकर जाम्बवान् उन्हें भगवत्कथा सुनाकर एक बहुत मङ्गलमय सिद्धान्तको प्रस्तुत करते हैं। जाम्बवान् कहते हैं – “अङ्गद! तुम समझ नहीं रहे हो। हम सभी सेवक अत्यन्त बड़भागी हैं, जो सतत सगुण साकार ब्रह्म श्रीरामजीके चरणोंमें अनुराग रखते हैं। भगवान् अपनी इच्छासे और अपने भक्तोंकी इच्छाका पालन करनेके लिये पृथ्वी, देवताओं, गौओं और ब्राह्मणोंके हितके लिये अवतार लेते हैं, और जब-जब भगवान् अवतार लेते हैं, तब-तब हम सगुणोपासक भक्तजन मोक्षसुखको त्यागकर प्रभुके अवतारकालमें उनकी लीलाके उपकरण बन जाते हैं,” –

तात राम कहँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥
हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥
निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोक्ष सुख त्यागि॥

(मा. ४.२६.१२-४.२६)

जाम्बवान् द्वापर तक भगवान्‌की सेवामें रहते हैं और अन्ततोगत्वा स्यमन्तक­मणिके सन्दर्भमें गुफामें प्रविष्ट हुए भगवान् श्रीकृष्णसे तुमुल युद्ध करके उन्हें श्रीराम रूपमें पहचान कर उनसे क्षमा माँगते हैं और त्रेतासे भगवान्‌की प्रतीक्षा कर रहीं और तपस्या कर रहीं अपनी प्रिय पुत्री जाम्बवतीजीको भगवान्‌को सौंप देते हैं।

सुग्रीव – ये भगवान्‌के अन्तरङ्ग सखा हैं। सूर्यनारायण ही भगवान्‌की सेवा करनेके लिये सुग्रीवके रूपमें प्रस्तुत हुए हैं। सुग्रीव ही तो कहते हैं –

अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजन करौं दिन राती॥

(मा. ४.७.२१)

विभीषणजीका तो कहना ही क्या! ये तो परम भागवत हैं ही। ये रावणके अत्याचारसे खिन्न होकर भगवान्‌की शरणमें आते हैं। परन्तु इसके पहले भी तो जब ब्रह्माजीने रावण, कुम्भकर्ण और विभीषणजीके पास जाकर भिन्न-भिन्न प्रकारसे वरदान माँगनेके लिये उन्हें प्रेरित किया था, तब दोनों भाइयोंने भिन्न-भिन्न वरदान माँगे, परन्तु विभीषणने तो ब्रह्माजीसे भगवान् श्रीरामके चरणकमलमें निर्मल अनुराग ही माँगा –

गएउ विभीषण पास पुनि कहेउ पुत्र बर माँगु।
तेहिं माँगेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥

(मा. १.१७७)

यही विभीषण हनुमान्‌जीसे कहते हैं –

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दशनन महँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहैं कृपा भानुकुल नाथा॥

(मा. ५.७.१-२)

परम­भागवत विभीषण समराङ्गणमें प्रेमकी अधिकताके कारण जब माधुर्य­भावसे भावित होकर प्रभु श्रीरामके प्रति सन्देह कर बैठते हैं – “आपके पास युद्धके उपकरण नहीं हैं, आप कैसे रावणको जीत पाएँगे,” तब भगवान् विभीषणको धर्मरथका उपदेश करते हैं।

माँ शबरी क्या ही विलक्षण महिला हैं! भले ही वे भिल्लकुलमें उत्पन्न हुई हों, कोई वैदिक संस्कारके उनको अधिकार न मिले हों, परन्तु इतना तो है कि भगवान् श्रीरामने उन्हें माँका गौरव दिया, माँ माना। भामिनी शब्द माताके लिये पहले ही प्रयुक्त हुआ है। कपिलदेवने देवहूतिको भागवतमें भामिनी कहा –

भक्तियोगो बहुविधो मार्गैर्भामिनि भाव्यते।
स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते॥

(भा.पु. ३.२९.७)

हनुमान्‌जीने वाल्मीकीय­रामायणमें सीताजीको भामिनी कहा –

रामो भामिनि लोकस्य चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता।
मर्यादानां च लोकस्य कर्ता कारयिता च सः॥

(वा.रा. ५.३५.११)

इसी प्रकार भगवान् रामने शबरीजीको मानसमें तीन बार भामिनी कहा –

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥

(मा. ३.३७.४)

सोइ अतिशय प्रिय भामिनि मोरे।

(मा. ३.३८.७)

जनकसुता कइ सुधि भामिनी।

(मा. ३.३८.१०)

शबरीको प्रभुका मातृस्नेह प्राप्त हुआ, माता बनाया भगवान्‌ने शबरीको। भावुकजन विशेष जाननेके लिये मेरे द्वारा रचित माँ शबरी ग्रन्थ पढ़ें।

खगपति अर्थात् जटायुजी – यही खगोंमें श्रेष्ठ हैं। यद्यपि खगपति शब्दसे गरुड अभिहित होते हैं, परन्तु भक्तमालकारने खगपति जटायुजीको ही कहा, सबसे श्रेष्ठ यही हैं, यही पक्षिराज हैं, जिन्हें परमात्माने अपना पिता बनाया और दशरथजीकी अपेक्षा दशगुनी अधिक भक्तिसे युक्त होकर भगवान्‌ने जटायुजीका दाहसंस्कार अपने ही हाथसे किया –

दसरथ तें दसगुन भगति सहित तासु करि काज।
सोचत बंधु समेत प्रभु कृपासिंधु रघुराज॥

(दो. २२७)

श्रीरामने जटायुको गोदमें लिया – ऐसे परमभक्त जटायु, जिन्होंने भगवान्‌से कुछ नहीं माँगा और एक बात कह दी – “प्रभो! पिताकी मर्यादामें मुझे भी तो रहना पड़ेगा। आपके जीवनमें दो पिता आए – चक्रवर्ती महाराज दशरथ और मैं जटायु। दशरथजी पुत्र­वियोगमें अपने प्राण त्याग सकते हैं, तो मैं भी पुत्रवधूके वियोगमें अपने प्राण त्याग दूँगा, क्योंकि सीताजीकी रक्षा मैं नहीं कर पाया।” जटायुके लिये ही शुकाचार्यने श्रीरामके संबन्धमें प्रियविरहरुषा (भा.पु. ९.१०.४) कहा। प्रियविरहरुषाका तात्पर्य है प्रियेण जटायुषा विरहः प्रियविरहः तेन रुट् प्रियविरहरुट् तया प्रियविरहरुषा। अर्थात् अपने अत्यन्त प्रिय पिता श्रीजटायुसे जब वियोग हुआ, तब भगवान् रामको क्रोध आ गया और उन्होंने रावणके वधकी प्रतिज्ञा कर ली।

इसके पश्चात् ध्रुव जिन्हें पाँचवें वर्षमें ही दर्शन देनेके लिये भगवान्‌को एक नया अवतार सहस्रशीर्षावतार लेना पड़ा –

त एवमुत्सन्नभया उरुक्रमे कृतावनामाः प्रययुस्त्रिविष्टपम्।
सहस्रशीर्षापि ततो गरुत्मता मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः॥

(भा.पु. ४.९.१)

ऐसे ध्रुव।

उद्धव – जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीके परम मित्र हैं, उनके लिये कहा जाता है –

वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा।
शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः॥

(भा.पु. १०.४६.१)

अम्बरीष – इनकी चर्चा भागवतमें नवम स्कन्धमें चौथे और पाँचवें अध्यायमें की गई है। चरणामृतका महत्त्व ख्यापित करनेके लिये महर्षि दुर्वासा पारणाकी अवधिका उल्लङ्घन करके अम्बरीषके पास आए, तब तक अम्बरीषजीने वसिष्ठजीके अनुरोधसे भगवान्‌का चरणामृत लेकर पारणा कर ली थी। कुपित होकर दुर्वासाने कृत्याका प्रयोग किया, जो सुदर्शन चक्र द्वारा विफल किया गया, और सुदर्शन चक्रने दुर्वासाका पीछा किया। सर्वत्र भ्रमण करनेपर भी जब दुर्वासाकी कहींसे रक्षा नहीं हो सकी, तो भगवान् नारायणने कह दिया कि तुम अम्बरीषके पास जाओ, वहीं तुम्हारी रक्षा सम्भव है। दुर्वासा अम्बरीषके पास आए और अम्बरीषने प्रार्थना कर ली, दुर्वासाकी रक्षा हो गई। अन्यत्र तो दुर्वासाने कोप करके अम्बरीषको दस जन्मका शाप दिया तो भगवान्‌ने अम्बरीषके शापको स्वयं स्वीकार करके दशावतार स्वीकार कर लिया –

अम्बरीष हित लागि कृपानिधि सो जन्मे दस बार।

(वि.प. ९८.५)

विदुर – जो व्यासजीके संकल्पसे विचित्रवीर्यकी एक दासीके गर्भसे जन्मे। मुनि माण्डव्यके शापसे स्वयं यमराज ही विदुर बनकर आए थे। उनकी प्रीतिका वर्णन तो तब स्पष्ट हो जाता है, जब भगवान् कृष्ण दुर्योधनको समझानेके लिये दूत बनकर हास्तिनपुर आते हैं, और वहाँ दुर्योधनका आमन्त्रण ठुकराकर भगवान् विदुरजीके यहाँ जाकर केलेका छिलका और बथुएका साग खाते हैं। प्रसिद्ध ही है – दुर्योधन घर मेवा त्यागे साग बिदुर घर खाई। इनका विशेष चरित्र जाननेके लिये मेरे द्वारा लिखा हुआ काका विदुर नामक खण्डकाव्य पढ़िये।

अक्रूर – ये भगवान्‌के परम अन्तरङ्ग हैं। कंसके द्वारा जब इन्हें भेजा गया, इनके मनका एक मनोरथ था – मां वक्ष्यतेऽक्रूर ततेत्युरुश्रवाः (भा.पु. १०.३८.२१)। एक बार भगवान् मुझे काका कह दें, मैं धन्य हो जाऊँगा। भगवान्‌ने वैसा ही किया। श्रीव्रजभूमिमें भगवान्‌की चरण­रेखाओंको देखकर अक्रूरके मनमें जो उद्गार प्रकट हुआ, वह तो देखते ही बनता है –

पदानि तस्याखिललोकपालकिरीटजुष्टामलपादरेणोः।
ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकानि विलक्षितान्यब्जयवाङ्कुशाद्यैः॥
तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसम्भ्रमः प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः।
रथादवस्कन्द्य स तेष्वचेष्टत प्रभोरमून्यङ्घ्रिरजांस्यहो इति॥

(भा.पु. १०.३८.२५-२६)

भागवतजीके दशम स्कन्धके अड़तीसवें अध्यायका यह प्रकरण देखने ही लायक है। अक्रूरने जब श्रीव्रजमें भगवान्‌के चरणचिह्नोंके दर्शन किये, उससे उनके मनमें सात्त्विक भाव जगा, उन्हें रोमाञ्च हो उठा, और उनके नेत्रोंसे अश्रुपात होने लगा। अक्रूर रथसे लुढ़ककर व्रजभूमिकी उस धूलिमें लोटने लगे, जिसे आज रमण रेती कहा जाता है।

सुदामा – भगवान् श्रीकृष्णके विद्यार्थी-मित्र हैं। दोनों विद्याध्ययन करके अपने-अपने प्रवृत्तमें संलग्न हुए। प्रभु द्वारकाधीश बन बैठे और सुदामाजीको लक्ष्मीजीकी बड़ी बहनने वरण कर लिया अर्थात् वे दरिद्र हो गए, दरिद्रापति हो गए। एक दिन सुदामाजीकी धर्मपत्नीने यह कहा – “यदि भगवान् आपके मित्र हैं तो आप उनके पास जाएँ, वे आपको बहुत-सा धन देंगे।” सुदामाने जब धनके प्रति अनिच्छा व्यक्त की तो सुशीलाजीने कहा – “तो आप दर्शनके लिये तो उनके पास जा ही सकते हैं।” द्वारकाधीशके पास सुदामाजी आए। द्वारकाधीशजीने उनका बहुत सम्मान किया, गले मिले और उनके चरणोंको अपने हाथसे धोया। क्या ही नरोत्तमदासने कहा है –

ऐसे बेहाल बेवाइन ते पद कंटक जाल लगे पुनि जोये।
हाय महादुख पायो सखा तुम आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानि परात को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल सों पग धोये॥

सुदामाजीका चरित्र भागवतजीके दशम स्कन्धके ८०वें और ८१वें अध्यायोंमें उपनिबद्ध है, अद्भुत झाँकी है। यद्यपि भागवतजीमें इनका सुदामा नाम नहीं लिखा है, परन्तु अन्य पुराणोंसे यह नाम स्पष्ट हो जाता है। स्कन्दपुराणके रेवाखण्डमें सत्यनारायण­व्रतकथामें स्पष्ट लिखा ही गया है –

शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो बभूव।

(स्क.पु.रे.ख.स.क. ५.१९)

चन्द्रहास – इनकी कथा जैमिनीयाश्व­मेध­पर्वमें महाभारतमें लिखी गई है। क्या व्यक्तित्व है चन्द्रहासका! जन्मते ही पिता-माताका वियोग हुआ, अनाथवत् भ्रमण करते रहे। एक दिन कुन्तलपुर राज्यके मन्त्री धृष्टबुद्धिके यहाँ प्रीतिभोजमें चन्द्रहास भी आ गए। ज्योतिषियोंने कह दिया कि यही निष्किञ्चन बालक धृष्टबुद्धिकी बेटीका पति बनेगा। धृष्टबुद्धिने उन्हें मारनेके लिये वधिकोंको आदेश दिया। चन्द्रहास नारदजी द्वारा दिये हुए शालग्रामजीकी सेवा किया करते थे और फिर अपने मुखमें रख लेते थे। उस दिन भी उन्होंने यही किया। वधिकोंसे कहा – “पहले मुझे शालग्रामकी सेवा कर लेने दो, फिर मुझे मार डालना।” भावनासे सेवा की और तब यह कहा – “प्रभु! आज यह अन्तिम सेवा है।” सेवा करके मुखमें भर लिया और वधिकोंको चरणामृत दिया। वधिकोंकी बुद्धि बदल गई, उन्होंने केवल चन्द्रहासजीकी छठी उँगली काटकर धृष्टबुद्धिको दिखा दिया। संयोगसे चन्दनावतीके राजा इन्हें अपने घर ले आए, वे निःसंतान थे, उन्होंने इनको राजा बना दिया। और अब तो कुन्तलपुरको कर देना क्या, चन्द्रहास स्वयं राज्य करने लगे। कुन्तलपुरके उपराज्यमें धृष्टबुद्धि आया और उसने चन्द्रहासको देखा। वह पहचान गया कि यह तो वही बालक है। अन्तमें उसने इनसे कहा – “मैं थोड़ा यहाँ विश्राम करूँगा, तुम मेरे पुत्रको जाकर यह संदेश दे आओ।” धृष्टबुद्धिने एक श्लोक लिखा –

विषमस्मै प्रदातव्यं त्वया मदन शत्रवे।
कार्याकार्यं न द्रष्टव्यं कर्तव्यं खलु मे प्रियम्॥

अर्थात् “हे मदनसेन! इस शत्रुको तुम विष दे देना,” – यह पत्र लिखकर दिया। चन्द्रहास कुन्तलपुरके निकट एक बागमें आकर भगवान्‌की सेवा करके थोड़ा-सा विश्राम करने लगे। संयोगसे धृष्टबुद्धिकी पुत्री विषया वहाँ आई, चन्द्रहासके सौन्दर्यको देखकर वह मुग्ध हुई। सहसा उसकी दृष्टि पड़ गई चन्द्रहासकी पगड़ीपर, जिसमें यह पत्र रखा था। उसने कुतूहलवशात् पत्र निकालकर पढ़ा कि अरे! मेरे पिताने इस युवकको विष देनेको कह दिया? अपनी आँखके काजलसे ‘म’को उसने ‘या’ बना दिया, और ‘प्रदातव्यं’के स्थानपर ‘प्रदातव्या’ कर दिया अर्थात् विषयास्मै प्रदातव्या कर दिया जिसका अर्थ हुआ – “इस युवकको तुम मेरी विषया नामक कन्या दे देना।” मदनसेनको चन्द्रहासने वह पत्र दिया। मदनसेन प्रसन्न हुए। विवाहका आयोजन हुआ और अपनी बहनको उन्होंने प्रेमपूर्वक चन्द्रहासजीको प्रदान कर दिया। संयोगसे थोड़े दिनके पश्चात् जब धृष्टबुद्धि आया, तो यहाँ तो कुछ परिस्थिति ही बदल गई थी। चन्द्रहास धृष्टबुद्धिके जामाता बन गए थे। उसने मदनसेनसे पूछा तो मदनसेनने कह दिया – “आपने पत्रमें यही लिखा है।” पत्र दिखा दिया, उसे आश्चर्य हुआ, बोला – “कोई बात नहीं!” अन्तमें उसने कुछ वधिकोंको कहा कि आज जो देवीपूजनमें आए उसका वध कर देना और चन्द्रहाससे कह दिया – “आप अकेले जाकर देवीपूजन कर आइये।” चन्द्रहासको क्या? ये तो चल पड़े। उधर कुन्तलपुरके राजाने भी यह कह दिया कि मेरे पास कोई सन्तान नहीं है, अब मैं यह राज्य चन्द्रहासको सौंपना चाहता हूँ। राजाने मदनसेनसे कहा – “तुम तुरन्त जाकर अपने जीजाको राजसभामें ले आओ।” मदनसेन आए और उन्होंने चन्द्रहाससे कहा – “भगवन्! आप कुन्तलपुरकी राजसभामें पधारें, आपका राज्याभिषेक होगा। आपके स्थानपर मैं ही देवीपूजन कर लेता हूँ।” धृष्टबुद्धिके निर्देशानुसार वधिकोंने वही किया। उनको क्या पता था कि जो देवीपूजन करने आया है वह चन्द्रहास है या मदनसेन। वधिकोंने मदनसेनकी हत्या कर दी। यह समाचार जब धृष्टबुद्धिको मिला, तो उसने भी छातीपर पत्थर मारकर अपनी हत्या कर ली। अन्तमें चन्द्रहासजीने देवीके समक्ष स्वयं तलवार लेकर अपनी हत्या करनी चाही, तो भगवतीजीने रोका। फिर चन्द्रहासजीने कहा कि तब इन दोनोंको जिला दिया जाए। देवीने दोनोंको जिला दिया। चन्द्रहास­प्रसंगपर गोस्वामी तुलसीदासजीने तुलसी सतसईमें एक दोहा लिखा –

जाके पग नहि पानहीं ताहि दीन्ह गजराज।
बिषहिं देत बिषया दई राम गरीब निवाज॥

(तु.स.)

चन्द्रहासके पश्चात् चित्रकेतुजीकी कथा भागवतजीके षष्ठ स्कन्धमें प्रसिद्ध ही है। ग्राह और गजकी कथा भी भागवतजीके अष्टम स्कन्धमें द्वितीयसे लेकर चतुर्थ अध्याय तक बहुत व्यापक रूपमें कही गई है। और पाण्डवोंकी कथा संपूर्ण महाभारतमें प्रसिद्ध ही है। पाण्डवोंके लिये एक श्लोक बहुत प्रसिद्ध है –

धर्मो विवर्धति युधिष्ठिरकीर्तनेन शत्रुर्विनश्यति वृकोदरकीर्तनेन।
तेजो विवर्धति धनञ्जयकीर्तनेन माद्रीसुतौ कथयतां न भयं नराणाम्॥

(पा.गी. २)

अर्थात् युधिष्ठिरजीका संकीर्तन करनेसे धर्म बढ़ता है, भीमसेनजीका संकीर्तन करनेसे शत्रुओंका नाश होता है, अर्जुनजीका संकीर्तन करनेसे तेजोवृद्धि होती है और माद्रीपुत्रोंका स्मरण करनेसे मनुष्य अभय हो जाता है। इस प्रकार पाण्डव धन्य हैं, जिनके लिये भगवान् क्या-क्या नहीं करते? कभी दूत बन जाते हैं, कभी सूत बन जाते हैं, कभी मन्त्री बन जाते हैं। स्वयं भागवतजीके सप्तम स्कन्धके दशम अध्यायके ४८वें श्लोकमें प्रह्लाद­कथाका उपसंहार करते हुए नारदजी कहते हैं कि पाण्डवों! इस संसारमें आप लोग बहुत भाग्यशाली हैं। आप लोगोंके घरमें साक्षात् भगवान् परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रजी अपने ऐश्वर्यको छिपाकर मनुष्य रूपमें विराज रहे हैं। देख रहे हो, जिन्हें योगी लोग ध्यानमें नहीं पाते, वे ही आज आपके राजसूय यज्ञमें नाई बनकर जूठन उठा रहे हैं और ब्राह्मणोंका चरण­प्रक्षालन कर रहे हैं –

यूयं नृलोके बत भूरिभागा लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति।
येषां गृहानावसतीति साक्षाद्गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम्॥

(भा.पु. ७.१०.४८)

कौषारव अर्थात् मैत्रेय। मैत्रेयजीके पिताका नाम है कुषारव, उनके पुत्र होनेसे इन्हें कहते हैं कौषारव। कौषारव वेदव्यासजीके मित्र हैं और गोलोक­प्रस्थान करते समय भगवान् श्रीकृष्णने उद्धवको यह संकेत किया था कि वे विदुरजीसे कहें कि वे जाकर मैत्रेयजीसे ही भागवतजीका श्रवण कर लें।

कुन्ती – ये भगवान् श्रीकृष्णकी बुआ हैं। परन्तु इनकी रीति विलक्षण है, सब तो भगवान्‌से संपत्ति माँगते हैं, और इन्होंने भगवान्‌से विपत्ति माँगी –

विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्॥

(भा.पु. १.८.२५)

हे प्रभु! आप हमें निरन्तर विपत्ति ही दीजिये, जिससे आपके दर्शन होते रहें। यही कुन्ती हैं, जिन्होंने अर्जुनके मुखसे जब भगवान्‌का लीला­संवरण सुना और उनकी गोलोक­यात्रा सुनी, तुरन्त अपने प्राण छोड़ दिए। यथा –

पृथाप्यनुश्रुत्य धनञ्जयोदितं नाशं यदूनां भगवद्गतिं च ताम्।
एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे निवेशितात्मोपरराम संसृतेः॥

(भा.पु. १.१५.३३)

कुन्तीवधू – द्रौपदीजीके लिये भक्तमालकार कुन्तीवधू इसलिये कहते हैं कि ये कुन्तीकी वास्तविक पुत्रवधू हैं। कुन्तीके ही अनुरोधपर इन्होंने पाँच पतियोंको स्वीकारा, सब कुछ अपना मिटा डाला, लौकिक कलङ्क भी सहा, कर्णके व्यङ्ग्यवचन सहे – यह सब केवल कुन्तीजीके कारण। इसलिये इन्हें कुन्तीवधू कहा गया। पट ऐंचत लज्जाहरीमें लज्जाहरी शब्दमें लज्जा आहरी – यह पदच्छेद समझना चाहिये, अर्थात् जब दुःशासन द्रौपदीजीके वस्त्रोंको खींच रहा था, तब भगवान्‌ने उनकी लज्जाका आहरण किया अर्थात् लज्जा लौटा दी।

ऐसे जो श्रीहरिको प्रिय हैं और जिनको श्रीहरि प्रिय हैं, उनसे नाभाजी प्रार्थना करते हैं – जिन चरनरेनु आशा धरी, जिन्होंने भगवान्‌के चरण­कमलोंकी धूलिको प्राप्त करनेके लिये अपनी आशा धारण की अर्थात् जीवन­यात्रा सतत रखी है कि कभी-न-कभी चरणधूलि मिलेगी, और जिन चरनरेनु आशा धरी, नाभाजी कहते हैं कि इन्हीं हरिवल्लभोंके चरण­कमलकी धूलिको प्राप्त करनेके लिये मैंने भी अपने जीवनकी आशा धारण की है कि कभी-न-कभी इनकी चरण­धूलि मुझे मिलेगी।