पद ००७


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इनकी कृपा और पुनि समुझे द्वादस भक्त प्रधान॥
बिधि नारद शंकर सनकादिक कपिलदेव मनु भूप।
नरहरिदास जनक भीषम बलि शुकमुनि धर्मस्वरूप॥
अन्तरंग अनुचर हरिजू के जो इनको जस गावै।
आदि अंतलौं मंगल तिनको श्रोता बक्ता पावै॥
अजामेल परसंग यह निर्णय परम धर्म के जान।
इनकी कृपा और पुनि समुझे द्वादस भक्त प्रधान॥

मूलार्थ – (१) श्रीब्रह्मा (२) श्रीनारद (३) श्रीशङ्कर (४) श्रीसनकादि (सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार) (५) श्रीकपिलदेव (६) महाराज स्वायम्भुव मनु (७) नरहरिदास अर्थात् नरसिंह भगवान्‌के दास श्रीप्रह्लाद (८) श्रीजनक (जो भगवती सीताजीके पिताजी हैं) (९) पितामह भीष्म (१०) श्रीबलि (११) श्रीशुकाचार्य और (१२) धर्मस्वरूप श्रीयमराजजी – ये बारह श्रीहरिके अन्तरङ्ग अनुचर हैं। जो इनका यश गा रहे हैं या गाएँगे, उनके लिये आदिसे अन्त पर्यन्त मङ्गल ही मङ्गल होगा। और इनका यशोगान करके श्रोता और वक्ता आदिसे अन्त पर्यन्त मङ्गल प्राप्त करते रहेंगे। अजामिलका यह प्रसंग परम धर्म अर्थात् भक्तिके निर्णयका ही प्रसंग समझना चाहिये। इन्हींकी कृपासे और लोग भी भक्तिका रहस्य समझ सकते हैं, क्योंकि ये ही प्रधान द्वादश भक्त हैं।

यहाँ मनुसे स्वायम्भुव मनु समझना चाहिये और जनक पदसे भगवती सीताजीके पिता सीरध्वज जनकको समझना चाहिये, जिनके संबन्धमें मानसकार कहते हैं –

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहु॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥

(मा. १.१७.१-२)

पितामह भीष्म भी भागवतधर्मके आचार्य हैं। ये नवम आचार्य हैं। कदाचित् इसीलिये भागवतकारने पितामह भीष्मका वर्णन भागवतजीके प्रथम स्कन्धके नवम अध्यायमें ही किया है। भीष्मके संबन्धमें एक जिज्ञासा स्वाभाविक है कि जब वे इतने बड़े भागवत­धर्माचार्य हैं, तो उन्होंने द्रौपदीकी चीरहरण­परिस्थितिको मूकदर्शक होकर क्यों देखा? दुर्योधनका विरोध क्यों नहीं किया? इसका मुझे जो उत्तर सूझ रहा है, वह यह है कि भीष्म अपनी मूकदर्शकतासे भगवान्‌की महिमाका आख्यान करना चाहते हैं, भगवान्‌की महिमाको लोगोंके समक्ष प्रकट करना चाहते हैं। यदि वे दुर्योधनका विरोध कर देते, तब द्रौपदीजीका चीरहरण तो रुक जाता, परन्तु भगवान्‌की चीरवर्धन­लीलाको जनताके समक्ष कैसे प्रकट किया जाता? इसलिये मूकदर्शक रहकर पितामह भीष्मने दिखाया कि भगवान् अपने भक्तकी कैसे रक्षा करते हैं। यहाँ भगवान्‌ने द्रौपदीकी लज्जाको रखनेके लिये ग्यारहवाँ वस्त्रावतार स्वीकार कर लिया, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी दोहावलीके १६७वें दोहेमें कहते हैं –

सभा सभासद निरखि पट पकरि उठायो हाथ।
तुलसी कियो इगारहों बसन बेस जदुनाथ॥

(दो. १६७)

बलि – जो आत्मनिवेदन जैसी भक्तिके एकमात्र उदाहरण हैं।

शुकाचार्यका तो कहना ही क्या! उन्होंने तो जन्मसे ही संसारकी असारताका अनुभव कर लिया था, इसलिये संसारमें किसीसे संबन्ध ही नहीं रखा। उनके स्मरणका यह कितना रोचक श्लोक है, जो भागवतके प्रथम स्कन्धके द्वितीय अध्यायके द्वितीय श्लोकके रूपमें प्रस्तुत हो रहा है –

यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥

(भा.पु. १.२.२)

अर्थात् जो जन्म लेनेके पश्चात् किसीके पास भी नहीं गए, जो अपने संपूर्ण कृत्योंको समाप्त किये हुए थे, और कभी न आनेके लिये जाते हुए जिनको देखकर विरहसे व्याकुल होकर द्वैपायन वेदव्यासजीने पुत्र! इस प्रकार चिल्लाया, और उन्हींकी भावनासे भावित होकर वृक्ष भी जिनको जाते हुए देखकर पुत्र! पुत्र! कहकर चिल्लाने लगे और फिर भी जो अपने निश्चयसे नहीं डिगे और नहीं लौटे – उन्हीं संपूर्ण प्राणिमात्रके हृदयमें विराजमान और संपूर्ण प्राणिमात्रको भगवान्‌के चरणमें आकृष्ट करने वाले भगवान् शुकाचार्यके चरणकमलमें मैं आदरपूर्वक नमन कर रहा हूँ। ऐसे शुकाचार्य, जिन्हें यहाँ ग्यारहवें आचार्यके रूपमें कहा जा रहा है।

धर्मस्वरूप यमराज – जो पापियोंको दण्ड देनेके लिये यम बन जाते हैं और धार्मिकोंके लिये धर्मके रूपमें रहते ही हैं।

ये बारहों परम­भागवत­धर्मके वेत्ता आचार्य हैं। ये बारहों भगवान् श्रीहरिजूके अन्तरङ्ग अनुचर हैं। इनके स्मरण, मनन, कीर्तन और गानसे श्रोता और वक्ता आदिसे अन्त पर्यन्त मङ्गल ही प्राप्त करेंगे। चूँकि इनकी अजामिल­प्रसंगमें वेदव्यासजीने चर्चा की है, इसलिये इस प्रसंगको परमधर्मका निर्णय­प्रसंग समझना चाहिये और इन्हींकी कृपासे और लोग भी भक्तिका सिद्धान्त समझ सकते हैं।

अब भक्तमालका प्रारम्भ हो रहा है। जैसा कि हम प्रथम ही कह चुके हैं कि श्रीनाभाजी इस ग्रन्थमें भगवत्पदसे अर्थात् भगवान्‌से तीन विशेष भगवान्‌को अभिप्रेत करते हैं – श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीनारायण। इन्हीं तीनों भगवानोंकी छत्रच्छायामें इस भक्तमालका पल्लवन होता है, यद्यपि अवतारी तो भगवान् श्रीराम ही हैं। अत एव जब यहाँ भगवान् श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीनारायणके भक्तोंकी चर्चा करनी है, तो पहले श्रीनारायणके सोलह पार्षदोंकी चर्चा अनिवार्य हो जाती है। इसलिये भक्तमालकार नाभाजी कहते हैं –