पद ००६


॥ ६ ॥
चरन चिन्ह रघुबीर के संतन सदा सहायका॥
अंकुश अंबर कुलिश कमल जव ध्वजा धेनुपद।
शंख चक्र स्वस्तीक जम्बुफल कलस सुधाह्रद॥
अर्धचंद्र षटकोन मीन बिँदु ऊरधरेषा।
अष्टकोन त्रयकोन इंद्र धनु पुरुष बिशेषा॥
सीतापतिपद नित बसत एते मंगलदायका।
चरन चिन्ह रघुबीर के संतन सदा सहायका॥

मूलार्थ – चूँकि नाभाजी महाराज श्रीसंप्रदायानुगत श्रीरामानन्दी श्रीवैष्णव हैं और श्रीरामोपासक हैं, इसलिये भक्तमाल­लेखनके पूर्व यह उनके लिये आवश्यक हो जाता है कि वे भगवान्‌के चरणचिह्नोंका ध्यान करें। और जैसा कि हम पूर्वमें कह चुके हैं कि मुख्य रूपसे भगवत्पदवाच्य प्रभु श्रीरामजी ही हैं, इसलिये नाभाजी महाराजने भक्तमाल ग्रन्थकी रचनाके प्रारम्भमें भगवान् रामके श्रीचरणचिह्नोंका चिन्तन किया है। वे कहते हैं कि रघुकुलमें वीर अर्थात् त्यागवीरता, दयावीरता, विद्यावीरता, पराक्रमवीरता और धर्मवीरतासे युक्त भगवान् श्रीरामके श्रीचरणकमलोंके चिह्न संतोंके सदैव सहायक रहते हैं, संतोंकी निरन्तर सहायता करते रहते हैं। ये हैं – अङ्कुश अर्थात् बर्छी, अम्बर – ‘अम्बर’शब्दका तात्पर्य आकाश और वस्त्र इन दोनोंसे है, कुलिश अर्थात् वज्र, कमल, जव अर्थात् यव (धान्य विशेष), ध्वजा, धेनुपद अर्थात् गोपद, शङ्ख, चक्र, स्वस्तिक चिह्न, जम्बूफल (जामुनका फल), कलश एवं अमृतका सरोवर, अर्धचन्द्र, षट्कोण, मछलीका चिह्न, बिन्दु, ऊर्ध्वरेखा, अष्टकोण, त्रिकोण, इन्द्र अर्थात् इन्द्रदेवताका चिह्न, धनुषका चिह्न एवं विशेष पुरुष अर्थात् नित्य जीवात्माका चिह्न। अर्थात् (१) अङ्कुश (२) आकाश (३) वस्त्र (४) वज्र (५) कमल (६) यव (७) ध्वजा (८) गोपद (९) शङ्ख (१०) चक्र (११) स्वस्तिक (१२) जम्बूफल (१३) कलश (१४) अमृतसरोवर (१५) अर्धचन्द्र (१६) षट्कोण (१७) मछली (१८) बिन्दु (१९) ऊर्ध्वरेखा (२०) अष्टकोण (२१) त्रिकोण (२२) इन्द्र (२३) धनुष एवं (२४) विशेष जीवात्मा – ये चौबीसों चिह्नके रूपमें सीतापति भगवान् श्रीरामके चरणोंमें निरन्तर विराजते रहते हैं। ये निरन्तर स्मरण­मात्रसे मङ्गलदायक बन जाते हैं और ये ही भगवान् श्रीरामके चरणकमलोंके चौबीसों चिह्न संतोंके लिये निरन्तर सहायक सिद्ध होते हैं।

यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि प्रियादासजीसे प्रारम्भ करके आज तकके जितने टीकाकार हुए हैं, प्रायः सबके मतमें भगवान्‌के २२ चरणचिह्न ही कहे जाते हैं। किन्तु भगवान् श्रीरामकी कृपासे मेरे मनमें इस प्रकारकी स्फुरणा हुई कि अम्बर शब्दमें श्लेषका यहाँ प्रयोग हुआ है, और इन्द्र तथा धनु – ये दो अलग-अलग शब्द हैं। अब दोनोंको मिलाकर ये २४ चरणचिह्न बन जाते हैं, अर्थात् १२ चरणचिह्न दक्षिण चरणमें और १२ चरणचिह्न वाम चरणमें – ऐसी भी योजना की जा सकती है, अथवा दोनों चरणोंमें ये ही २४ चरणचिह्न समझने होंगे। यह तो साधकके ध्यानमें जैसे स्फुरित होंगे, वैसे उसे योजना करनी होगी। वस्तुतस्तु मेरे ध्यानमें जो स्फुरित हो रहे हैं भगवान्‌के चरणचिह्न, वे इसी प्रकार हैं कि १२ दक्षिण चरणचिह्न हैं और १२ वाम चरणचिह्न हैं।

प्रत्येक चरणचिह्नका कोई न कोई अभिप्राय है –

(१) भगवान्‌के चरणमें अङ्कुशका चिह्न इसीलिये है कि इसके ध्यानसे मन रूप मतवाला हाथी वशमें हो जाता है।

(२) अम्बर शब्द श्लिष्ट है। प्रथम अम्बरका अर्थ है आकाश, द्वितीय अम्बरका अर्थ है वस्त्र। आकाशके चरणचिह्नका अभिप्राय यह है कि भगवान् आकाशकी भाँति सबको अपने चरणोंमें अवकाश देते हैं, सबको स्वीकार करते हैं। इसलिये गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा भी – नभ शतकोटि अमित अवकासा (मा. ७.९१.८)।

(३) पुनः अम्बर शब्दका अभिप्राय वस्त्रसे है। इसका तात्पर्य है कि भगवान् अपने भक्तको कभी भी साधनहीन नहीं रखते, सबको वस्त्रादि प्रदान करके धन्य करते रहते हैं। भगवान्‌के यहाँ कोई दिगम्बर नहीं रहता, सबको अन्न-वस्त्र मिलते ही हैं।

(४) कुलिशका तात्पर्य यह है कि जैसे वज्र पर्वतको नष्ट करता है, उसी प्रकार भगवान्‌के इस वज्रचिह्नका ध्यान करनेसे पापपर्वत नष्ट हो जाता है।

(५) कमलका तात्पर्य है कि जैसे कमल सबमें सुगन्धिका संचार करता है, उसी प्रकार भगवान्‌का यह चरणचिह्न स्मरणमात्रसे भक्तकी दुर्वासना रूप दुर्गन्धको दूर करके उपासनाकी सुगन्धि उसमें ला देता है।

(६) यव संपूर्ण धान्योंका उपलक्षण है। भगवान्‌का भक्त धन-धान्यसे पूर्ण ही रहता है।

(७) ध्वजा या पताकाका दण्ड। जैसे ध्वजा पताकाको ऊपर किये रहती है, उसी प्रकार भगवद्भक्तका जीवन निरन्तर ऊर्ध्वगामी होता रहता है, सबसे ऊपर ही रहता है, वह कभी किसीके नीचे नहीं रहता।

(८) धेनुपद अर्थात् गोपदका तात्पर्य है कि भगवान्‌के चरणकमलका स्मरण करके व्यक्ति संसार-सागरको गोपदकी भाँति अर्थात् गौके खुरकी भाँति सरलतासे पार कर लेता है, और उसपर गोमाताकी कृपा बनी रहती है।

(९) शङ्ख मङ्गलका सूचक है।

(१०) चक्र स्मरण­मात्रसे भक्तको कालके भयसे छुड़ाता रहता है।

(११) स्वस्तिक मङ्गलका सूचक है। शङ्ख और स्वस्तिकमें अन्तर यह है कि शङ्ख चरणचिह्नके स्मरणसे विजयपूर्वक मङ्गल होता है और स्वस्तिक चरणचिह्नका स्मरण करनेसे और सभी मङ्गल होते रहते हैं।

(१२) जम्बूफलका तात्पर्य है कि इसके स्मरणसे व्यक्तिको सभी फल उपलब्ध होते रहते हैं। और जम्बूफल भगवान्‌के समान श्याम रङ्गका है, इसके स्मरणसे श्यामशरीर, जम्बूफलश्याम भगवान् रामका निरन्तर ध्यान होता रहता है।

(१३) कलश भी माङ्गलिक चिह्न है। व्यक्तिका हृदय-कलश भक्तिके जलसे पूर्ण रहता है।

(१४) सुधाह्रद अर्थात् अमृतका सरोवर। भगवान् श्रीराम स्मरण­मात्रसे अपने भक्तको आनन्दामृतका वितरण करते रहते हैं और उसे आनन्दसरोवरमें स्नान कराते रहते हैं।

(१५) अर्धचन्द्र – इसका तात्पर्य है कि भगवान् अपने स्मरण करने वाले भक्तको अपने अर्धचन्द्राकार बाणसे बचाते रहते हैं, उसके शत्रुओंका नाश करते रहते हैं।

(१६) षट्कोणका तात्पर्य है कि भगवान् स्मरण­मात्रसे भक्तको काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य – इन छः विकारोंसे दूर करते रहते हैं।

(१७) मीन अर्थात् मछलीका तात्पर्य है कि भगवान्‌का भक्त इस चरण­चिह्नके स्मरणसे मछलीकी ही भाँति भगवत्प्रेमी बना रहता है, अर्थात् जैसे मछली जलके बिना नहीं रह पाती, उसी प्रकार भक्त भगवान्‌के बिना नहीं रह पाता। जैसा कि गोस्वामीजी विनयपत्रिकाके २६९वें पदमें कहते हैं – राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको (वि.प. २६९.१)। यही अवधारणा श्रीरामचरितमानसके बालकाण्डके १५१वें दोहेकी ७वीं पङ्क्तिमें स्वायम्भुव मनुजी महाराज भगवान्‌के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं कि हे प्रभु श्रीराघव –

मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुमहि अधीना॥

(मा. १.१५१.७)

(१८) बिन्दु – बिन्दुका तात्पर्य है कि व्यक्तिके जीवनमें भगवदनुरागका बिन्दु उपस्थित रहता है, और वह शून्यतासे सर्वथा दूर रहता है। बिन्दु सबको दशगुणित करता है। अर्थात् जैसे एकके साथ शून्य जब जुड़ता है तो वह एकको दश गुना बना देता है। उसी प्रकार भगवन्नाम एक अङ्क है और सभी साधन शून्यके समान हैं –

राम नाम इक अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गये कछु हाथ नहीं अंक रहे दस गून॥

(दो. १०)

वह बिन्दु भगवन्नामसे जुड़कर उसके फलको दश गुना बना दिया करता है।

(१९) ऊर्ध्वरेखा – ऊर्ध्वरेखाका तात्पर्य है कि यह रेखा भगवान्‌के भक्तको स्मरण­मात्रसे सतत ऊपर उठाती रहती है।

(२०) अष्टकोणका तात्पर्य है कि स्मरण­मात्रसे यह चिह्न भगवद्भक्तको आठों प्रकृतियोंकी विडम्बनाओंसे दूर करता रहता है।

(२१) त्रिकोण – यह चिह्न स्मरण­मात्रसे भगवद्भक्तको काम, क्रोध, लोभसे दूर किये रहता है, अथवा त्रिगुणोंसे अतीत कर देता है।

(२२) इन्द्र – ये देवराज हैं। इस चरणचिह्नका तात्पर्य है कि स्मरण­मात्रसे भगवान् अपने भक्तको इन्द्र जैसा पद भी दे देते हैं, जैसे महाराज बलिको दे दिया।

(२३) धनु – यह भगवान्‌का आयुध विशेष है। इसका तात्पर्य है कि यह प्रणव है, जो स्मरण­मात्रसे व्यक्तिको वैदिक मर्यादाओंसे जोड़े रहता है। प्रणवं धनुः शरो ह्यात्मा (मु.उ. २.२.४) – प्रणव ही धनुष है, बाण ही आत्मा है, और ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते (मु.उ. २.२.४) – ब्रह्म उसका लक्ष्य है। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् (मु.उ. २.२.४) – अप्रमत्त होकर लक्ष्यकी सिद्धि कर लेनी चाहिये, अर्थात् प्रणवसे सतत जीवात्माका संपर्क बना रहना चाहिये। और दूसरी बात – धनुषका यह भी तात्पर्य है कि धनुष टेढ़ा होता है। इसका संकेत यह है कि भगवान्‌के यहाँ सीधे और टेढ़े – दोनोंको ही स्थान मिलता है। किसीको भगवान् ठुकराते नहीं, चाहे वह सीधा हो या टेढ़ा हो। और तीसरा तात्पर्य है कि जो धनुषकी भाँति झुक जाता है, उसीको भगवान् अपना आश्रय देते हैं।

(२४) पुरुष बिशेषापुरुष पद यहाँ जीवात्माका वाचक है, और जीवात्मा तीन प्रकारका होता है – बद्ध, मुक्त और नित्य। यहाँ पुरुष विशेषका तात्पर्य यह है कि भगवान्‌के स्मरण­मात्रसे जीव नित्य बन जाता है अर्थात् बद्ध और मुक्त दोनों परिस्थतियोंसे मुक्त होकर भगवान्‌की नित्य सेवामें लग जाता है। यहाँ नित्य जीवात्माका अर्थ है भगवान्‌का नित्य परिकर जैसे श्रीहनुमान् आदि।

इस प्रकार ये चौबीसों चरणचिह्न सीतापति भगवान् श्रीरामके चरणोंमें निरन्तर निवास करते रहते हैं। ये स्वयं स्मरण­मात्रसे मङ्गलप्रदान करते हैं और ये ही भगवान् श्रीरामके चौबीसों चरण­चिह्न संतोंके लिये निरन्तर सहायक बने रहते हैं।

अब चरणचिह्नोंका स्मरण संपन्न हुआ, और नाभाजीको भक्तमाल जैसे ग्रन्थकी रचना करनी है, तो उन्हें आचार्योंका स्मरण पहले कर लेना चाहिये। भागवतधर्मके बारह आचार्य हैं, जिनका स्मरण यमराजजी करते हैं भागवतजीके षष्ठ स्कन्धके तृतीय अध्यायमें –

स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः।
प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम्॥

(भा.पु. ६.३.२०)

अर्थात् हे बटुओं! (१) श्रीब्रह्माजी (२) श्रीनारदजी (३) श्रीशङ्करजी (४) सनक, सनन्दन, सनातन, और सनत्कुमार – ये चार सनकादि (५) श्रीकपिलजी (६) स्वायम्भुव मनुजी (७) श्रीप्रह्लादजी (८) श्रीजनकजी (९) श्रीभीष्मजी (१०) श्रीबलिजी (११) श्रीशुकाचार्यजी और (१२) वयम् अर्थात् मैं धर्मस्वरूप यमराज – यही बारह भागवत­धर्मोंको जानते हैं। श्रीनाभाजी उन्हींका यहाँ स्मरण कर रहे हैं –