॥ ४ ॥ (श्री)अग्रदेव आज्ञा दई भक्तन के जस गाउ। भवसागर के तरन को नाहिन और उपाउ॥
मूलार्थ – नाभाजी कहते हैं कि मुझको मेरे सद्गुरुदेव श्रीअग्रदेव अर्थात् श्रीअग्रदासजीने यह आज्ञा दी – “हे नारायणदास नाभा! तुम भगवान्के भक्तोंका ही यश गाओ, क्योंकि भवसागरसे पार होनेके लिये और कोई दूसरा उपाय है ही नहीं। एकमात्र भगवद्भक्तोंका यशोगान ही भवसागरसे तरनेका उपाय है।”
श्रीनाभाजीके जीवनवृत्तके संबन्धमें एक महत्त्वपूर्ण, प्रेरणास्पद तथा रोचक प्रसिद्धि है। हनुमान्वंश अर्थात् श्रीहनुमान्जी द्वारा प्रचारित श्रीरामभक्तिकी परम्परामें श्रीनाभाजीका जन्म हुआ। वे जन्मना ब्राह्मण थे। जन्मसे ही नाभाजीके पास दोनों नेत्रोंके चिह्न भी नहीं थे। नाभाजी अत्यन्त दीन परिवारमें जन्मे थे और उनकी दृष्टिबाधित दशा और दरिद्रताको देखकर उनकी माताजीने अपने पञ्चवर्षीय अन्धबालकको दुष्कालसे पीड़ित होनेके कारण एक निर्जन वनमें छोड़ दिया था। अनाथ नाभाजी महाराज दृष्टिहीनताकी विडम्बनामें इतस्ततः भटक रहे थे। संयोगसे वहाँसे निकल पड़े थे श्रीपतितपावन पयहारीजी श्रीकृष्णदासजीके अनन्य कृपापात्र युगलसंतचरण – श्रीकील्हदासजी एवं श्रीअग्रदासजी। उन दोनों संतोंकी दृष्टि माताके द्वारा परित्यक्त, अनाथ, निरुपाय, क्षुधा-पिपासासे व्याकुल इस दृष्टिहीन बालकपर पड़ी। संतोंका हृदय पिघल गया। वे बालकके पास आए। बालक तो उनको देख ही नहीं रहा था। पूछा – “वत्स! कहाँसे आ रहे हो?” बालकने उत्तर दिया – “श्रीसीतारामजीके चरणोंसे।” पूछा – “कहाँ जाओगे?” बालकने उत्तर दिया – “जहाँ भगवान् और आप श्रीसंतगण भेज देंगे, वहीं चला जाऊँगा।” बालककी प्रत्युत्पन्न बुद्धि देखकर संतचरण भावुक हो उठे। श्रीकील्हदासजीने करुणा करते हुए अपने कमण्डलुका जल बालकके नेत्रस्थानपर छिड़क दिया। उनकी सिद्धिके बलसे बालकके नेत्र आ गए और बालकने प्रथम बार ही नवागत नेत्रोंसे इन युगल संतचरणोंके दर्शन किये। धन्य हो गया बालक। नाभाजीको निष्किञ्चन देखकर कील्हदासजी और अग्रदासजी उसे अपने संग गलता ले आए, और कील्हदासजीने अपने छोटे गुरुभ्राता अग्रदासको इस बालकको श्रीरामानन्दीय विरक्त परम्परामें दीक्षित करनेका आदेश दिया। अग्रदासजीने बालकको विरक्त परम्परामें पञ्चसंस्कारविधिसे दीक्षित किया और इनका विरक्तपरम्पराका नाम रखा नारायणदास। नारायणदास सद्गुरुदेव भगवान्की आज्ञासे गलतेमें चल रही संतसेवामें रुचि लेने लगे। आने वाले प्रत्येक संतका वे चरणप्रक्षालन करते, उन्हें प्रसाद पवाते और उनका उच्छिष्ट अर्थात् जूठन प्रसाद लेकर स्वयं अपनी क्षुधा बुझाते थे। संतसेवासे जब अवसर मिलता तो वे अपने गुरुदेव श्रीअग्रदासजी महाराजकी सेवा भी करते थे।
एक दिन जब श्रीअग्रदासजी महाराज श्रीसीतारामजीकी मानसी सेवा कर रहे थे, उस समय नारायणदासजी पंखा झल रहे थे। संयोगसे उसी समय अग्रदासजीके किसी भक्तकी नाव समुद्रके भँवरमें अटक गई थी, फँस गई थी। उन्होंने अग्रदासजी महाराजका स्मरण किया। भक्तके मानसिक स्मरणसे अग्रदासजी महाराजकी मानसी सेवामें थोड़ी-सी बाधा पड़ रही थी। नाभाजीने उनकी मनोदशाको भाँप लिया और अपने पंखेको थोड़ा-सा वेगसे चलाया और उसकी वायुसे समुद्रके भँवरमें फँसी हुई भक्तकी नाव आगे चली गई। नाभाजीने विनम्रतासे प्रार्थना की – “गुरुदेव! आप प्रेमसे श्रीसीतारामजीकी मानसी सेवा कीजिये। आपके संकटका मैंने अपने पंखेकी वायुसे समाधान कर दिया है।” अग्रदासजी अपने शिष्यकी इस चामत्कारिक परिस्थितिको देखकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा – “बेटे! तुमने मेरी नाभिकी भी परिस्थिति समझ ली, इसलिये आजसे तुम्हारा उपनाम मैं नाभा रख रहा हूँ।”
नाभा नामके संबन्धमें संतोंके मुखसे एक और कथा सुनी गई है। वह यह कि अग्रदासजी भगवान् श्रीसीतारामजीकी मानसी सेवा कर रहे थे। मानसी सेवामें प्रभुको मुकुट धारण करवा दिया था और माला धारण करानी थी। मानसी भावनामें माला छोटी थी जो मुकुटके ऊपरसे धारण करानेमें कुछ जटिल-सी लग रही थी। अग्रदासजी प्रयास कर रहे थे, परन्तु वह माला भगवान् श्रीसीतारामजीके गलेमें जा नहीं रही थी। उसी समय नारायणदासने कहा – “गुरुदेव! पहले मानसी सेवामें मुकुट उतार लिया जाए, माला धारण कराकर फिर मुकुट धारण करा दिया जाए, सब ठीक हो जाएगा।” तब अग्रदासजीने कहा कि –“तुमने तो मेरी नाभिकी बात जान ली, आजसे तुम्हारा उपनाम नाभा होगा। और नाभा! तुम भगवान् नारायणके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए ब्रह्माजीके अवतार हो। तुममें ब्रह्माजीका अंश है। ब्रह्माजी भक्तिसंप्रदायके प्रथम आचार्य हैं। इसलिये जैसे ब्रह्माजीकी प्रेरणासे वाल्मीकीयरामायणम्की रचना हुई, उसी प्रकार तुम ब्रह्माजीके अंश हो, अत एव तुम भक्तोंका ही यशोगान करो। श्रीरामकृष्णके यशोगानके लिये तो भगवान्ने कलिकालमें तुलसीदास एवं सूरदासको नियुक्त कर दिया है। श्रीरामका यशोगान करनेके लिये नियुक्त हुए हैं गोस्वामी तुलसीदास, जिन्होंने रामचरितमानस द्वारा श्रीरामचरितकी १०० करोड़ रामायणोंका इतिवृत्त गागरमें सागरकी भाँति संक्षिप्त किन्तु विशिष्ट शैलीमें प्रस्तुत किया है। श्रीकृष्णका यशोगान करनेके लिये अद्भुतदिव्यदृष्टिसंपन्न महात्मा सूरदासजीको भगवान्ने नियुक्त किया है, जिन्होंने सूरसागरकी रचना कर दी है। अतः अब तुम भक्तोंका ही यशोगान करो, क्योंकि भवसागर के तरन को – भवसागर पार करनेके लिये और कोई दूसरा उपाय नहीं है। भवसागर कहँ नाव शुद्ध संतन के चरन (वि.प. २०३.२०)। अतः भक्तोंका यश गाओ। चिन्ता मत करना, जैसे तुमने मेरी नाभिकी बात जान ली उसी प्रकार जिन भक्तचरणका तुम वर्णन करोगे वे अपने उपयुक्त चरित्रोंको तुम्हारे मनमें स्वयं प्रतिबिम्बित कर देंगे। निर्भीक हो जाओ। भक्तोंका यश गाओ। कल्याण होगा।”
उसी आज्ञाका पालन करते हुए नाभाजी कह रहे हैं कि मैं अब भक्तमालकी रचना कर रहा हूँ।