॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ प्रकाशकीय ॥
वदनं प्रसादसदनं हृदयं सदयं सुधामुचो वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्या:॥
जिनका दर्शनीय मुखारविन्द प्रसनता का निवासस्थान है, अत्यन्त विशाल हृदय दयालु है, परम पावनकारी वाणी अमृत की वर्षा करने वाली है तथा जिनके जीवन के समस्त कार्य परोपकार से सुसम्पन्न हैं, ऐसे मूर्धन्य महापुरुष को कौन वन्दन नहीं करेगा? वे सदा सर्वदा सार्वकालिक सर्वजनों के वन्दनीय हैं।
इन्हीं महापुरुषों में से “काका विदुर” नामक हिन्दी साहित्य में अद्वितीय खण्ड-काव्य के रचयिता, जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज हैं। १९८० में श्रीराघवेन्द्र के अनुष्ठानार्थ पुष्कर के चालीस दिवसीय निवास-काल में, श्रीरामभद्र की प्रेरणा से संस्कृत भाषा में काव्य रचना सामर्थ्य होते हुए भी, आपके हृदय में हिन्दी साहित्य सेवा की प्रस्फुरणा हुई। यद्यपि इसके पूर्व पू. आचार्यश्री ने गीर्वाणगिरा में विविध स्तवन, श्लोक तथा गीतों की रचना की है, तथापि इस क्रम में “काका विदुर” पर हिन्दी रचना यह आपका स्तुत्य प्रयास है।
यह १०८ कवित्त एवं सवैय्या छन्दों में निर्मित खड़ी भाषा का खंडकाव्य है। इसके नायक श्री विदुर, जो एक दासी-पुत्र होते हुए भी परम भागवत हैं, विषम परिस्थितियों में एक प्रशस्त संघर्षकर्ता दृष्टिगोचर होते हैं, जिनका परिचय कविश्री कितनी चातुरी से देते हैं –
कृष्णद्वैपायन का पावन उपायन जो दासीसुत रूप में पधारे यमराज सुर।
पाले गये पाण्डु धृतराष्ट्र संग राजकुल में फिर भी रहा करुणा भक्ति से परिपूर्ण उनका उर।
सुलभा सी सुलभ वधू पाकर मुकुन्द पद प्रेम सुधा के लिये जो संतत रहा विदुर।
कौन जानता था भारत का इतिहास इन्हें गर्व से कहेगा कृष्णचन्द्र का काका विदुर॥ ७ ॥
श्री विदुरजी, साहित्यिक मीमांसा के अनुसार, इस काव्य के धीरप्रशान्त नायक हैं। प्रस्तुत काव्य में कवि ने अपनी प्रतिभा को सामाजिक संकीर्णता के दायरों से उन्मुक्त, स्वच्छन्द, सुमृदुल कल्पनाओं के रमणीक उद्यान में देखने का प्रयास किया है।
लोगों की दृष्टि में समाज की परिस्थितियों से अनभिज्ञ इन प्रतिभासम्पन्न कवि ने, अपने समग्र काव्य में जैसे सजीव चित्रण किये हैं, उनसे आपकी नैसर्गिक प्रतिभा एवं ईश्वरीय कृपा का ही अनुभव होता है। अतः इनसे अपरिचित व्यक्तियों को इनके बाल्यकालीन दृष्टिराहित्य पर सन्देह होना स्वाभाविक है। पर भगवत्कृपा से आपको सब साध्य है, जिसका प्रस्तुत काव्य में भलीभाँति गान किया गया है।
कवि के जीवन में नारी जगत के दो नाते अनुभूत हो सके हैं, माँ तथा बहिन का, जिस नाते का परिचय इस काव्य के दो वर्णनों से प्राप्त होता है। प्रथम श्रीकृष्ण एवं द्रौपदी संवाद में।
भ्राता एवं भगिनी के परम पवित्र, भावग्राही, सुमधुर तथा निस्वार्थ नाते को कवि ने जिस भावुकता, कुशलता, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक मर्यादा के परमपावन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है, सत्य ही वह वर्णन कवि के स्वानुभव का तो प्रमाणभूत है ही, पर साथ ही साथ इसे विश्व के साहित्य में एक नवीनतम रूप में देखा जा सकता है।
द्रौपदी श्रीकृष्ण की छोटी बहिन, अपने केशों की लज्जा का भार अपने भैय्या कन्हैया पर अर्पित करती है। उधर श्रीकृष्ण भी बहिन को श्रद्धा की मूर्ति मानकर इस नाते को सर्वतोविशिष्ट बताते हैं।
क्या यह कवि का मधुर हृदयाकर्षक मनोवैज्ञानिक वर्णन भावी संतति को निर्मल प्रेरणा का स्रोत नहीं बनेगा?
वैसे ही विदुर पत्नी सुलभा को श्रीकृष्ण के द्वारा काकी का मंजुल संबोधन दिलाकर, एवं पुत्रहीना उस महिला के शुष्क मरुमानस में वात्सल्य रस तरंगिणी का प्रस्तुतीकरण, कवि के व्यक्तित्व में भावुकता का संकेत करता है।
तथा साथ-ही-साथ श्रीकृष्ण द्वारा उनके भावपूर्ण अर्पित किये हुए कदली छिलके का स्वीकार एवं सुलभा द्वारा बार-बार उनके मुखारविन्द का चुम्बन तथा पुत्र भाव से त्रिलोकीनाथ को अपने आँचल में छिपाना, ये सभी भावुक वर्णन कवि की स्वानुभूति एवं भारत-वर्ष की परम पावन मातृ-संस्कृति की झाँकी का दर्शन कराते हैं।
चक्रवर्ती सम्राट के संरक्षक होकर भी स्वयं श्रीकृष्ण का, दुर्योधन की सत्ता तथा उसके राजोचित छप्पन भोगों को ठुकराकर, निरीह विदुर के घर पधारकर भोली-भाली काकी के हाथ से केले के छिलके का सप्रेम खाना, भगवान की भक्त-वत्सलता के साथ एक लोकनायक, समाज सृष्टा महापुरुष के संकीर्णता रहित परम निर्मल एवं विशाल हृदय का आदर्श प्रस्तुत करता है।
भावविभोर सुलभा की वस्त्रविस्मृति पर, कवि की प्रस्तुत आध्यात्मिक भावभंगिमा, तथा प्रभु के पीताम्बर ओढ़ाने में की हुई कवि की भक्ति एवं वेदान्त की भावनाओं से मिश्रित भावुक उत्प्रेक्षा, कवि की पटुता एवं उनकी सूक्ष्म दार्शनिकता, भक्तिमयता एवं काव्यकला-नैपुण्य को अभिव्यक्त करती है।
कवि का जीवन सिद्धान्तवादी होता हुआ भी दुराग्रहवादी नहीं है। यही इस दासीपुत्र विदुर के साथ जगदीश्वर श्रीकृष्णचन्द्र के सामञ्जस्य वर्णन से प्रतीत होता है।
भाषा सरल, सुसंस्कृत, सारगर्भित तथा प्रभावपूर्ण है। कहीं-कहीं सामासिक संस्कृत शब्द एवं ब्रजभाषा के शब्द सहजतया आकर भी परम मृदुल भाव व्यञ्जक होने के कारण काव्य को रुचिकर बना देते हैं।
काव्य भावमयी वर्णन शैली से परिपूर्ण है। इसमें सहजता से श्लेष, रूपक, उपमा, यमक आदि अलंकार समुचित स्थानों पर प्रयुक्त हुए हैं।
रसानुकूल भावनापूर्ण शब्दों की सर्जना ही इस काव्य का एक महत्वपूर्ण विषय है। इसमें शान्त रस की प्रधानता होते हुए भी यथास्थान नवों रसों का दर्शन होता है।
वर्णन में इतनी सजीवता एवं नैसर्गिकता है कि मानो कविश्री प्रत्येक परिस्थिति को अन्तरङ्ग दृष्टि से देखते हुए अपनी कल्पना तूलिका से शब्दों को माध्यम बनाकर पाठक के सामने ठीक वही चित्र उपस्थित कर देते हैं।
मैं आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास रखती हूँ कि अन्य महत्त्वपूर्ण हिन्दी साहित्य सामग्री के रहते हुए भी यह लघुकाय काव्य, दूध में शक्कर की भाँति विद्वज्जनों को पूर्ण संतोष देगा।
मैं पूज्य आचार्यचरण की बड़ी बहिन होने के नाते इस ग्रन्थ का सम्पादन करती हुई परम गौरव का अनुभव करती हूँ।
इति मङ्गलमाशास्ते
डॉ. कु. गीतादेवी
प्रबन्धन्यासी
श्री तुलसीपीठ सेवा न्यास
तुलसीपीठ आमोदवन
चित्रकूट धाम, सतना (म.प्र.)
गुरु पूर्णिमा
२८.७.१९९८