व्याधस्याचरणं धुवस्य च वयो विद्या गजेन्दस्य का
कुब्जायाः किमतीव रूपमतुलं किंवा सुदाम्नो धनम्।
वंशः को विदुरस्य यादवपतेरुग्रस्य किं पौरुषं
भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्तिप्रियो माधवः॥
जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज द्वारा प्रणीत “काका विदुर” नामक इस लघुकाय ग्रन्थ में उपरोक्त श्लोक में नामतः संकीर्तित श्री विदुर जी पर भगवान् की अहैतुकी कृपा का पूर्ण दर्शन होता है।
उक्त ग्रन्थ “काका विदुर” के नाम से लोगों की दृष्टि में आ रहा है, इसलिए कि भगवान् श्यामसुंदर श्रीकृष्णचन्द्र ने इनसे भतीजे का नाता जोड़ा। इसकी कथावस्तु महाभारत के उद्योग-पर्व से ली गई है।
इसमें प्रथम कतिपय छंदों में, कवि की दीनता एवं अपने इष्ट के शुभदर्शन की मधुर आकांक्षा तथा मूक क्रंदन के साथ अपने इष्ट श्रीरामभद्र के प्रति मधुर उपालम्भ दृष्टिगोचर होता है।
अनन्तर कौरवों के षडयन्त्र से अभिभूत पाण्डव, अपने द्वादश-वर्षीय वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास को पूर्णकर, पुनः पाँच गाँव की संधि हेतु दूत रूप में भगवान् श्रीकृष्ण को, हस्तिनापुर भेजने का उपक्रम करते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण को रथारूढ़ देखकर, व्यथितहृदया द्रौपदी साश्रुनयन से श्रीकृष्ण को अपने कष्टों से अवगत कराती है, तथा दुःशासन द्वारा कर्षित केशों की लज्जा की रक्षा का भार सौंपती है। इसके पश्चात् भगवान् कृष्ण ऐश्वर्य की मुद्रा में, अपनी लाडली बहन को आश्वासन देकर तथा भाई-बहिन के सुमधुर एवं निर्मल सम्बध की अद्वितीयता एवं विशिष्टता का श्रीमुख से ख्यापन करते हैं। और द्रौपदी आंसुओं से आर्द्र कुमकुम का टीका लगाकर, अपने भैय्या कन्हैया को विदा करती हैं।
मार्ग में जाते हुए श्री कृष्णचन्द्रजी की बांकी झांकी एवं उनके रथ की मनोज्ञ छवि का वर्णन तथा काका विदुर व सुलभा काकी के प्रति श्रीकृष्ण के मन में उत्पन मधुर कल्पनाओं का वर्णन, कवि की वर्णन चातुरी एवं भावुकता का परिचायक है।
अनन्तर गंगातट पर संध्या करके भगवान् श्यामसुंदर, दुर्योधन की राजसभा में पधारते हैं। वहाँ दुर्योधन से किया हुआ, श्रीकृष्ण का निर्भीक, सारगर्भित एवं सत्य वत्सलता पूर्वक, सुस्पष्ट संवादक्रम कवि की सुस्पष्टता एवं सत्यक्रान्ति का द्योतक है।
दुर्योधन की कटूक्ति सुनकर तथा विराटस्वरूप दर्शन द्वारा, उसके निग्रह प्रयास को विफल कर, भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण रथारूढ़ होकर, द्रोण भीष्म आदि के निमंत्रण को ठुकराकर, विदुरजी की कुटी पर पधारे। यह पूर्वार्ध का कथासार है।
उत्तरार्ध में श्री विदुरजी की धर्मपत्नी परमभक्त हृदया सुलभा के रात आये मधुर सपने तथा परम उत्कंठा एवं विह्वलता से प्रभु की भक्तिपूर्ण प्रतीक्षा का अत्यन्त मार्मिक, मनोवैज्ञानिक एवं ह्रदयग्राही सुमधुर चित्रण है।
माधव प्रतीक्षारत विदुर पत्नी, स्नानमिस भवन में प्रविष्ट होती हैं, तत्काल श्यामसुंदर उनके द्वार पर पधारते हैं। किवाड़ का खटखटाना सुनकर, वे परम आतुर होकर वस्त्र विस्मृत पूर्वक श्रीकृष्ण के चरणों में लिपट जाती हैं तथा ससम्मान उन्हें अपने भवन में ले आकर यथाविध भावपूर्वक पूजन करती हैं एवं श्यामसुंदर के अनुरोध पर विभोर होकर केले के छिलके खिलाने लगती हैं और श्रीकृष्ण भी परभ भाव से उन्हें स्वीकार करते हैं।
इस प्रसंग का वर्णन भी कवि की परम अन्तरंगस्थिति, ईश्वर निष्ठा, सूक्ष्मदर्शन एवं सुमधुर वाणीविलास का परिचय देता है।
इस प्रसंग में श्रीकृष्णचन्द्रजी के प्रति सुलभा काकी का मातृत्व एवं प्रेम पारखी श्रीकृष्णजी का उनके प्रति मातृवत्सलत्व वर्णन भी अतीव सरस रीति से किया गया है।
इस बीच दुर्योधन की दुर्नीति का विरोध करने के कारण उससे अपमानित विदुरजी भी वहाँ पहुँच जाते हैं।
भार्या की इस भाव-विभोरता से युक्त, विषम परिस्थिति की देखकर, उनके द्वारा छिलके खिलाने का कारण पूछे जाने पर, सुलभा का मार्मिक उत्तर एवं बीच में ही श्रीकृष्ण का भावना पूर्ण समाधान भी कवि के हृदय की निगूढ़ एवं प्रभु के प्रति अनन्य भावना तथा सरस कथन-शैली का द्योतन करता है।
अनन्तर श्रीकृष्ण को रोककर, निरस शब्द कहकर, पति के प्रति सुलभा का मधुर कटाक्ष, काव्य को भक्ति एवं सुमधुर दाम्पत्य विनोद से समलंकृत कर देता है।
तत्पश्चात् श्रीकृष्णचन्द्र भक्त दम्पति से विदा लेकर पाण्डवों के शिविर में आकर, क्षुब्धा बहिन कृष्णा को सान्त्वना देते हैं।
यही इस ग्रन्थ की संक्षिप्त कथावस्तु है।
डा० कु गीतादेवी