अनुप्रवेश


अरुन्धतीमहाकाव्यं कुर्वता शास्त्रचक्षुषा। विद्वांसो जीविताश्चैव मूर्खास्तुनिहता मया॥ जयत्यरुन्धतीभर्तृचरणाब्जरजोलसन्–। मूर्ध्ना मूर्धाभिषिक्तः श्रीरामो राजा स राघवः॥

  कविता जीवन की संवित सम्वेदना एवं अनुभूतियों का समन्वय है। यह एक निसर्ग सिद्ध विचाराभिव्यक्ति की ऐसी अद्भुत कला है जो आविद्यत पामर प्राणिमात्र को परमानन्द सहोदर परमरस की अनुभूति से धन्य बना देती है। कविता प्रयत्न करके बनायी नहीं जाती प्रत्युत वह कवि के संवेदनशील हिमाद्रिसंकाश निर्मल एवं शीतल हृदय के निस्यन्दभूत भाव प्रवाह का आलम्बन लेकर कल्पना समीरण के सहयोग से गोमुखी गंगा की भाँति निःश्रेयस महासागर के संगम पर्यन्त अविच्छिन्न गति से पतिप्रणयिनी त्वरावती युवती की भाँति द्रुतगतिशील रहती है। इसीलिए सकल कविकुल चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसे ‘‘सुरसरि सम सब कह हित होई’’ (मानस १-१४-९) कहकर परिभाषित किया है।

वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप वही होगी कविता अनजान॥

  इस सुमित्रानन्दन पन्त की पंक्ति में व्याख्यायित कविता के उद्गम की अवस्था सार्वभौम नहीं है। यह तो भवभूति के ‘एको रसः करुण एव’ (उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, ४७) की अवधारणा का अनुवाद मात्र है क्योंकि वाल्मीकि के अतिरिक्त अन्य कवि इस मनोदशा के लक्ष्य नहीं माने जाते। वस्तुतः कविता के उद्गम में श्रीगोस्वामी तुलसीदास द्वारा निर्दिष्ट मनोदशा पूर्णतः वैचारिक, समीचीन और व्यापक प्रतीत होती है। गोस्वामी जी के मत में जब समुद्र जैसे विशाल एवं अगाध विचार संपत्ति से परिपूर्ण अन्तःकरण की वृत्तियों के साथ सीपी के समान ऊर्ध्वमुखी बुद्धि तथा वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती रूप स्वाति एवं अविच्छिन्न विचाररूप वृष्टि का समन्वय होता है, उस अवस्था में स्वयं ही कविता रूप मौक्तिक मणि अनायास ही प्रादुर्भूत हो उठते हैं, यथा –

हृदय सिंधु मति सीपि समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥ जो बरषइ बर बारि बिचारू। होंहि कबित मुकता मनि चारू॥

– मानस १-११-८,९ – बालकाण्ड के ग्यारहवें दोहे की आठवीं और नौवीं चौपाई

  अरुन्धती महाकाव्य के सम्बन्ध में भी मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ क्योंकि न तो मैं वियोगी था और न ही मेरे मन में किसी प्रकार की व्यक्तिगत आह थी। मैं अपने शैशवकाल में ही सहज भाव से कविताएँ किया करता था। अपने पूज्य पितामह की कृपा से मुझे जीवन के अष्टम वर्ष में ही श्रीरामचरितमानस की कृपा प्राप्त हो गयी थी अर्थात् मैंने सम्पूर्ण रामचरितमानस कंठस्थ कर लिया था। अतः गोस्वामीजी और उनकी कविताओं से व्यासंग मेरा स्वभाव बन चुका था। संयोगवशात् पाणिनीय व्याकरण मेरे अध्ययन का विषय बना और उसमें यथासंभव मुझे सफलता भी मिली परन्तु व्याकरण की तथाकथित नीरसता मेरे मन की सरसता में बाधक न बनी और संस्कृत व्याकरण के अध्ययन काल में भी मैं कविता रचना और उसके रसास्वादन के व्यासंग से जुड़ा रहा। अध्ययन के पश्चात् जब मैं सामाजिक जीवन के परिवेश में उतरा तब गोस्वामी जी एवं अन्य मूर्धन्य मनीषी साहित्य स्रष्टाओं के साहित्यिक अनुशीलन का सुअवसर मिलने लगा तथा अब संस्कृत और हिन्दी के विविध आयामों में मैं उन्मुक्त रूप से कविता-रचना में प्रवृत्त हुआ। कभी भी मैंने प्रयास करके कविताएँ नहीं बनायीं और जान बूझकर अलंकारों को ठूंसने का प्रयास नहीं किया। भगवत् कृपा से निसर्गतः जो संभव हो सका उसे ही मैंने वाणी का प्रसाद माना। संस्कृत में अनेक गीत तथा सात शतक एवं सहस्राधिक मुक्तक श्लोकों की रचना की और हिन्दी में भी भोजपुरी, ब्रजभाषा, अवधी तथा खड़ी बोली में भी सहस्रशः भक्ति गीतों की रचना की और अपने कथाओं के क्रम में आशु कविता के रूप में बहुत से श्लोक, कवित्त, सवैया तथा गीतों के माध्यम से अपने भाव कुसुमस्तबकों द्वारा भगवान की चरण समर्चा का भी स्वर्णिम सौभाग्य प्राप्त किया। इसी क्रम में माँ शबरी, काका विदुर, हनुमत्कौतुक ये तीन भक्ति खण्डकाव्य भी लिखे परन्तु खड़ी भाषा में महाकाव्य लिखने की न तो मेरी क्षमता थी और न ही कोई प्रवृत्ति। अरुन्धती महाकाव्य की संरचना का संकल्प एक आकस्मिक घटना है जिसके स्रोत के सम्बन्ध में मैं कुछ भी नहीं कह सकता क्योंकि संस्कृत का विद्यार्थी होने के कारण और अपनी शारीरिक लेखनवाचन की अक्षमता के रहते मुझे किसी खड़ी भाषा में रचित महाकाव्य के अनुशीलन का विशेष अवसर नहीं मिला; इसलिए मैं किसी खड़ी भाषा के कविपुंगव से प्रभवित भी नहीं हो पाया। यद्यपि यह परिस्थिति इस काव्य की रचना में मेरे लिए पाथेय बनी क्योंकि सर्वथा नवीन कार्य होने के कारण मैंने निष्पक्षतापूर्वक अपने मनोभावों का उन्मुक्त प्रस्तुतीकरण किया। बिना पूर्वाग्रह के इस प्रबन्ध में जो उपादान कविता के रूप में प्रस्तुत हुए हैं उन्हें भगवत्प्रसाद ही मानना चाहिए। मैं पण्डितराज जगन्नाथ की भाँति स्वभावतः विनम्रता से यह निवेदन कर सकता हूँ कि अरुन्धती महाकाव्य के रचनाकाल में मेरे मन में जो भी विचार आये उन्हें मैंने उसी प्रकार से अपनी स्वाभाविक भाषा में प्रस्तुत किया –

निर्माय नूतनमुदाहरणानुरूपं काव्यं मयाऽत्र निहितं न परस्य किञ्चित्।

– पण्डितराज जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, १-६

  चूँकि मैं जन्मना वशिष्ठगोत्रिय सरयूपारीण ब्राह्मण हूँ इसलिए अरुन्धती पर श्रद्धा स्वाभाविक ही है, यद्यपि अरुन्धती एक वैदिक ऋषि की पत्नी हैं, पौराणिक दृष्टि से भी उनका चरित्र अत्यन्त निष्कलंक, प्रेरणास्पद तथा अनुकरणीय है। उनके चरित्र में भारतीय संस्कृति, समाज, धर्म, राष्ट्र तथा वैदिक दर्शन के बहुमूल्य तत्त्व उपलब्ध हैं जिन्हें आधार मानकर साहित्य की ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की समर्थ व्याख्या संभव है। एतदर्थ मैंने अरुन्धती के चरित्र को ही अपने महाकाव्य का केन्द्र बिन्दु माना है। वैदिक धर्म में अग्निहोत्र परम्परा का पूर्ण परिपोषण अरुन्धती और वशिष्ठ से ही हुआ है। सप्तर्षियों के बीच वशिष्ठ के साथ अरुन्धती ही समर्चणीय हैं और किसी ऋषि की पत्नी ऋषियों के बीच पूजा की अधिकारिणी नहीं बन सकी, इससे भी अरुन्धती की वैदिक धर्म के साथ निकटतम भूमिका का सहज ही मूल्यांकन किया जा सकता है।

  अरुन्धती महाकाव्य की कथावस्तु भी विभिन्न परिस्थितियों का एक समन्वय है जिसमें मैंने भागवत, वाल्मीकीय रामायण, महाभारत, वेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थों तथा अपनी कल्पना का सहयोग लेकर एक अपूर्व कथा कलेवर प्रस्तुत किया। अपनी वैचारिक प्रतिपाद्य निर्धारणा के आलोक में वैदिक वाङ्मय में बिखरे अरुन्धती सम्बन्धी समग्र घटनाक्रमों को यथासंभव संकलित करके मैंने अरुन्धती महाकाव्य की नायिका के वर्णन व्याज से वैदिक संस्कृत के समग्र आयामीय वर्णन का प्रयास किया है। अरुन्धती के जन्म की कथा शिव पुराण तथा भागवत में विभिन्न रूप से दृष्टिगोचर होती है। परन्तु मैंने भागवत में वर्णित अरुन्धती जन्म कथा को ही अपने महाकाव्य का वर्ण्य बनाया है और ब्रह्मा के आगमन और उनके उद्बोधन का प्रकरण रामचरितमानस के सप्तम सोपान से लिया तथा विश्वामित्र वशिष्ठ के विरोध-प्रकरण को वाल्मीकीय रामायण के आधार पर प्रस्तुत किया है। शक्ति का आविर्भाव एवं पराशर की उत्पत्ति के सूत्र महाभारत और ब्राह्मण ग्रन्थों से प्राप्त किये गये हैं तथा महाकाव्य का चरमभागीय कथानक वाल्मीकीय रामायण, रामचरितमानस एवं विनयपत्रिका के कथासूत्रों पर आधारित है। इन कथाओं की यथाक्रम संयोजना भगवत्प्रदत्त मेरी मनीषी और काल्पनिक अल्पना का परिणाम है।

  अरुन्धती महाकाव्य वैदिक दर्शन एवं भारतीय संस्कृति का एक सकारात्मक प्रतिपादन है। इसमें पन्द्रह सर्गों की संयोजना है। सृष्टि, प्रणय, प्रीति, परितोष, प्रतीक्षा, अनुनय, प्रतिशोध, क्षमा, शक्ति, प्रबोध, भक्ति, उपलब्धि, उत्कण्ठा और प्रमोद इन पन्द्रह बिम्बों पर मैंने यथासंभव अपनी अवधारणाओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इन बिम्बों का मानव की मनोवैज्ञानिक विकास-परम्परा से भी बड़ा घनिष्ठतम संबंध है। वैदिक धर्म प्रारम्भिक क्रम में सर्जना का समर्थक रहा है और सृष्टि के पश्चात् परस्पर प्रणय मानव का स्वभाव है। प्रणय के पश्चात् प्रीति और प्रीति के परिणाम स्वरूप परितोष से मानव जीवन रसमय होता है और वह फिर किसी अनुपम सुख की प्रतीक्षा में तल्लीन होता है। परिस्थितियों के उतार चढ़ाव के क्रम में कभी-कभी क्रोध के शमनार्थ अनुनय का सहारा लिया जाता हे और मानव कभी न कभी किसी न किसी प्रतिशोध का शिकार बनता ही है। उस समय क्षमाशील रहकर वह अलौकिक सत्य की शक्ति प्राप्त करता है और उसकी सर्वव्यापकता का बोध होने पर सुधी व्यक्ति को संसार के भोगों से स्वयं ही उपराम अर्थात् घृणाभाव हो जाता है। विषयों से विरक्त मन में संसार की असत्यता और परमात्मा की सत्यता का प्रबोध होता है। अनन्तर भक्ति से उसे परमात्मा की अनुभूति की उपलब्धि होती है और फिर वह ईश्वर के प्रत्यक्षीकरण के लिए उत्कण्ठित होकर साधन में तल्लीन होता है और उत्कण्ठा की परिपक्वावस्था में साधक को परमात्म दर्शन से इष्ट लाभ जनित परमानन्द प्रमोद की प्राप्ति होती है। यही है भारत के आस्तिक दर्शनों का शाश्वत सिद्धान्त। इसी के आधार पर अरुन्धती महाकाव्य की विषयवस्तु का निर्धारण किया जाता है। यथा अवसर राष्ट्रवाद, समाजवाद, और सनातनधर्म की शास्त्रानुमोदित व्याख्या भी की गयी है।

  काव्य के प्रथम सर्ग में भगवान के बालरूप का वर्णन और उन्हीं से सृष्टि के प्रादुर्भाव का दिग्दर्शन कराया गया है। अरुन्धती ब्रह्मपुत्र कर्दम की अष्टम कन्या हैं जिनका विवाह ब्रह्मा जी के अष्टम पुत्र वशिष्ठ से सम्पन्न होता है। वह पति परिणयिनी वशिष्ठ के व्यवहार से अतिप्रसन्न रहकर उनकी सात्त्विक प्रीति सुधा से प्राप्त परितोष से धन्यता का अनुभव कर रहीं हैं कि तब तक ब्रह्मदेव आकर ऋषि दम्पती को भगवत दर्शन का आश्वासन देकर स्वयं अन्तर्धान हो जाते हैं। ऋषि दम्पति परमेश्वर की प्रतीक्षा में जीवन का बहुत काल बिता देते हैं। इसी बीच गाधिनन्दन महाराज विश्वरथ का वशिष्ठाश्रम में आगमन होता है और महर्षि वशिष्ठ द्वारा कामधेनु के माध्यम से अपना स्वागत देख उसकी लीप्सा से राजा का मन मचल जाता है और वह बल प्रयोग से कामधेनु को लेना चाहता है। वशिष्ठ के द्वारा ब्रह्मदण्ड से दण्डित होकर ब्रह्मर्षि पद की प्राप्ति के लिए उग्र तपस्या करके विश्वरथ विश्वामित्र बन जाते हैं। उनके अनेक प्रतिशोधों के झंझावात से महर्षि वशिष्ठ विचलित नहीं होते और उनके यह अलौकिक क्षमा सौ पुत्रों के निधन के पश्चात, शक्ति जैसे पुत्र रत्न को उपस्थित करती है। विश्वामित्र द्वारा शक्ति को राक्षस के माध्यम से समाप्त करा देने पर महर्षि वशिष्ठ के मन में उपराम जागृत होता है और वे पौत्र पाराशर को आश्रम के कुलपति का भार सौंपकर वानप्रस्थ प्रक्रिया के लिये प्रस्तुत होते हैं, इसी बीच ब्रह्मा का शुभागमन होता है और उनके द्वारा गृहस्थाश्रम में रहने का आदेश और भगवद्दर्शन का सन्देश पाकर वशिष्ठ अयोध्या के निकट नये सिरे से आश्रम निर्माण करके द्वितीय आश्रम में प्रवृत्त हो जाते हैं; फिर भक्ति का साक्षात्कार होने पर श्रीराम जन्म के साथ ही अरुन्धती के गर्भ से सुयज्ञ नामक व्यूह का प्राकट्य होता है। सुयज्ञ वशिष्ठ के पुत्र हैं इसका सूत्र वाल्मीकीय रामायण में सुस्पष्ट रूप से मिलता है।

वशिष्ठपुत्रं तु सुयज्ञमार्यं त्वमानयाशु प्रवरं द्विजानाम्।

– वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग ३१ का ३७वां श्लोक

  सुयज्ञ भगवान राम के मित्र हैं और उनकी शिक्षा दीक्षा भी श्रीराम के साथ ही सम्पन्न होती है। अनन्तर विश्वामित्र के साथ जनकपुर जाकर श्रीराम भगवती सीताजी के साथ विवाह सम्पन्न करके अयोध्या लौटते हैं और श्री अवध में ही सीताजी का अरुन्धती जी के साथ प्रथम संवाद सम्पन्न होता है। कैकेयी की कुमन्त्रणा से भगवान राम चतुर्दशवर्षीय वनवास यात्रा सम्पन्न करके माँ अरुन्धती के आश्रम में ही प्रथम पारणा सम्पन्न करते हैं; यही है अरुन्धती महाकाव्य की कथावस्तु।

  भगवत्कृपा से अरुन्धती महाकाव्य में मानव जीवन के बहुशः आदर्शमय आयामों की संयोजना की गयी है। अबतक प्रचलित समस्त काव्यधाराओं के निदर्शन भी यथासंभव प्रस्तुत किये गये हैं। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली और स्वाभाविक विचारणा से उद्भूत कर्म, उपासना, ज्ञान से मण्डित परमेश्वर भक्ति के भी विविध उपादान सहजतः इस महाकाव्य में आ गये हैं। बीच बीच में गीत भी विन्यस्त किये गये हैं। राष्ट्रभक्ति और रामभक्ति के साथ-साथ प्रगतिशील विचारों को भी प्रचुर स्थान दिया गया है। ऋषि दम्पति की त्रिकालज्ञता के कारण उन्हीं के माध्यम से भावी रामकृष्णकथाओं का समायोजन महाकाव्य के औचित्य का ही आधार समझा जाना चाहिए। पूर्वाश्रम का नाम ‘गिरिधर’ मेरे काव्य जगत के नाम के रूप में स्वीकृत है; अतएव कभी-कभी प्राचीन कवियों की भाँति उसका भी कहीं-कहीं संकेत हुआ है। इस प्रकार मैंने भगवान श्रीराम की प्रेरणा से अपने आध्यात्मिक और सामाजिक अनुभवों के आलोक में राष्ट्रीय चेतना के मूल्यों को भारतीय संस्कृति के तागे में पिरोकर इस अरुन्धती महाकाव्य की संसृष्टि की है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह मेरा साहित्यिक प्रयास कवियों, मनीषियों एवं विपश्चित पुङ्गवों की मनीषा को अनुरञ्जित करने में कृतकार्य हो सकेगा।

॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥