प्रस्तुति


प्रस्तुत ‘अरुन्धती’ महाकाव्य के प्रणेता सारस्वत प्रतिभा सम्पन्न पौराणिक आख्यानों के मर्मज्ञ और वैदिक वाङ्मय के महाप्राज्ञ सर्वाम्नाय तुलसीपीठाधीश्वर जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामभद्राचार्य जी महाराज हैं। संस्कृत भाषा निष्णात कविपुंगव पूज्यपाद श्रीआचार्यजी ने इस महाकाव्य की सर्जनात्मक परिधि में वेदसम्मत आस्तिक दर्शन के शाश्वत सिद्धान्तों का अनुशीलन भारतीय सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में प्रतिबिम्बित करते हुए मानव जीवन की सम्पूर्ण कालावधि की विकासोन्मुख भावदशाओं का सूक्ष्मातिसूक्ष्म बिम्बनिरूपण – सृष्टि, प्रणय, प्रीति, परितोष, प्रतीक्षा, अनुनय, प्रतिशोध, क्षमा, शक्ति, उपराम, प्रबोध, भक्ति, उपलब्धि, उत्कण्ठा और प्रमोद सरिस पञ्चदश सर्गान्तर्गत शीर्षकों में करते हुए वैदिक वाङ्मय के विरल व्यक्तित्व ब्रह्मपुत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और उनकी चिरानुसंगिनी परमपुनीता परिणीता कर्दमकन्या भगवती अरुन्धती के आद्यन्त जीवनादर्शों के सन्दर्शन में पौराणिक आख्यायिकानुसार गाधिनन्दन महाराज विश्वरथ के आखेटक्रम में ब्रह्मर्षि आश्रम प्रवेश पर ऋषि-दम्पति द्वारा निमिष मात्र में आयोजित दिव्योपम राजोचित अभ्यर्थनाजन्म कौतूहलों के समाधानार्थ, तपःपूर्ण तृणशाला में वशंवदा कामधेनु की उपस्थिति से मनोवांछित सार्वकालिक सुख सम्पदा की उपलब्धि अभिज्ञात होने पर, उसे अविलम्ब हस्तगत करने की निष्फलता की प्रतिक्रिया में युद्धोन्मत होते हुए रणाङ्गण में परास्त होकर, प्रतिशोधात्मक आचरण ग्रहण करते हुए, तपस्यालीन होकर ब्रह्मर्षि पद पाने की कामना में भी मेनका और रम्भा के कामपाश में बँधकर विफल मनोरथ प्राप्ति पर, अन्ततः ईश्वरीय प्रेरणा में संयमशीलता ग्रहण कर, ब्रह्मर्षि के चरणों में श्रद्धा सुमन चढ़ाते हुए विश्वरथ से विश्वामित्र बनने तक के कथावृत्तों को संयोजित कर, मानवीय जीवन मूल्यों की शाश्वत प्रतिष्ठापना में ‘संयम’ की सर्वोच्चता प्रदान करते हुए जहाँ नारायण तक पहुँचने का आधार कहा है –

शुचि मानवीय शाश्वत मूल्यों की संयम प्राण प्रतिष्ठा है यह लोकोत्तर बहुमूल्य रत्न यत्नों की मंगल निष्ठा है। संयम मनुष्य को देवों के सिंहासन पर बिठलाता है इस नर को भी नारायण से संयम अविलम्ब मिलाता है॥ ६-१९१ ॥

  वहीँ गार्हस्थ्य आश्रम को आश्रम जीवन का सार सर्वस्व घोषित कर, मानवों को सनातन धर्मावलम्बी बनकर, अनासक्त भाव से ईश्वरोपासना और भगवद्भक्ति में लीन रह कर इन्द्रिय निग्रह और अनपेक्षित अर्थ संग्रह पर कठोर अंकुश रखते हुए प्राणिमात्र के प्रति स्नेह, सद्भाव, सदाशयता, सदाचार, करुणा और उपकार से आप्लावित होकर परमपिता परमेश्वर के चरणों में अपने आपको निमज्जित कर देने की बात भी की है। उदाहरणार्थ उपरोक्त तथ्यों के आलोक में निम्नांकित पंक्तियाँ पठनीय हैं –

  गृहस्थाश्रम से संबंधित उद्धरण –

(क) शुद्ध गृहस्थाश्रम ही सचमुच मूल आश्रमों का है जैसे सुदृढ़ बृक्ष आश्रय फल मूल संगमों का है॥ ४-८ ॥

(ख) इस गृहस्थ आश्रम को गर्हित कहता कौन मनीषी किसको विबुध वन्द्य सुरभि भी लगती अरे खरी सी। किस अभाग्यशाली को उज्जवल हिमकर दिखता पीला किसको भागीरथी पूरशित अरे भासता नीला॥ ४-२४ ॥

(ग) कौन गृहस्थाश्रम को कहता घोर नरकप्रद जटिल जघन्य परब्रह्म भी इसके कारण हो जाते हैं अतिशय धन्य। यही ब्रह्म को पुत्र बनाकर अपने अङ्क खिलाता है पलक पालने पर ईश्वर को यही सदैव झुलाता है॥ १३-४१ ॥

(घ) तीनों अन्य आश्रमों का भी यही सदैव पिता माता इसके बिना न कोई आश्रम कभी सफलता को पाता। नरक रूप होता परन्तु यह जब इसमें आती आसक्ति यही स्वर्ग अपवर्ग अनूठा जब इसमें आती हरिभक्ति॥ १३-४२ ॥

  इसी भाँति उपरोक्त तथ्यों के आलोक में ही धन-सम्पदा और सुख-समृद्धि की आसक्ति में मनुष्य उच्छृंखलता को प्राप्त कर अनियंत्रित भोग की कामना करते हुए नाना-विध समस्याओं में उलझकर ईर्ष्या, दम्भ, द्वेष और पाखंड के वशीभूत हो जीवन को नरक बना डालता है। अतएव आचार्य श्री के अनुसार निष्काम भाव से ईश्वरोपासना में लीन रहकर ही मनुष्य इस दुर्गम भवसागर को पार कर सकता है। उदाहरणार्थ –

(ङ) मानव की कुप्रवृतियाँ ही प्रस्तुत करती हैं महोत्पात उच्छृंखल इच्छाओं से ही होता अनर्थ का सूत्रपात। अनियंत्रित भोग वासना ही शैतान बनाती मानव को यह श्रीमदान्धता ही सृजती पल भर में उद्धत दानव को॥ ६-८५ ॥

(च) दुर्दान्त इन्द्रियों का समूह नर को पिशाच कर देता है आशा सुरसा का मुख संयम मारुति को भी ग्रस लेता है। जो हो न सका पल भर को भी इस मुद्रा राक्षस का शिकार वह ही कर सका सफल जग में रह कर भी प्रभु को नमस्कार॥ ६-८६ ॥

(छ) वैध्य भोग स्वीकृत है पर वह भी श्रुति-धर्म नियंत्रित चपला मृत्यु हेतु बनती यदि न हो यंत्र से यंत्रित। उच्छृंखल जीवन भी तद्वत सार हीन इस जग में सदा अपेक्षित अनुशासन है राष्ट्र-धर्म मुद मग में॥ ४-३७ ॥

(ज) आवश्यकता सुरसा मुख ज्यों ज्यों बढ़ता जायेगा दृढ़ विवेक मारुति पर त्यों त्यों संकट ही आयेगा। अतः अपेक्षाओं को कर सीमित कर्त्तव्य समीक्षित राष्ट्र-धर्म रक्षण मख में मानव हो सकता दीक्षित ॥ ४-४३ ॥

(झ) यह अर्थवाद मानव की तृष्णा को अधिक बढ़ाता। कर दानवता का सर्जन जीवन रस हीन बनाता॥ १२-८३ ॥

(ञ) सब अनर्थों का यही आसक्ति ही मूल है जननी यही भव सूल की। इस महाविष वल्लिका को शीघ्र ही ज्ञान असि से काट देना चाहिए॥ १०-३७ ॥

  अतएव आचार्य श्री ने नानाविध भोग वासना और आसक्तिजन्य दुःख दावाग्नि और पीड़ा की जटिलताओं से मुक्त होने के लिये गृहीजनों को अनासक्त भाव से ईश्वरोपासना में लीन रहने का मार्ग निर्देशित किया है। इस दृष्टि से निम्नांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –

(ट) इन जटिल समस्याओं का है समाधान एक अनुपम। आरूढ़ भक्ति नौका पर नर तर सकता भव दुर्गम॥ १२-९० ॥

(ठ) मैं कहता आसक्ति मृत्यु है अनासक्ति ही है जीवन अतः गृही जन सावधान हों अनासक्त मन करें भजन। १३-४३ ।

  इस तरह प्रस्तुत महाकाव्य के प्रकाशन क्रम में भूल सुधार (प्रूफरीडिंग) करते हुए दो-तीन बार के आद्यन्त अध्ययन मनन से हमारी अल्पमति ने जो ग्रहण किया वह पूज्यपाद गुरूदेव के श्रीचरणों में समर्पित करते हुए पाठकों के सम्मुख ‘प्रस्तुति’ के रूप में रख रहा हूँ। संभव है भक्ति वेदान्त से संबंधित इस गहन विषय को अपने विचार विधि में हम समा नहीं पाये हों, परन्तु आसक्ति और विरक्ति के कूलों को संस्पर्शित करते हुए जिस भक्ति रस गंगा को यहाँ प्रवाहित किया गया है उसमें अवगाहन करने पर ‘‘सुरसरि सम सब कर हित कोई’’ की चरितार्थता निस्सन्दिग्ध है, ऐसी मेरी धारणा है।

  अन्ततः पूज्यनीयाँ कुमारी गीता देवी जी, प्रबन्धक, श्री राघव साहित्य प्रकाशन निधि, हरिद्वार के प्रति भी हम अपना आभार व्यक्त किये बिना नहीं रह सकते जिनकी कृपा करुणा से ही इस भगवत्साहित्य सरोवर में अवगाहन करने के दायित्व निर्वाह में अपने सुख सौभाग्य को सराहते नहीं अघाते। तथास्तु –

जगतानन्द प्रसाद सिंह ‘भारतीय’ ‘स्वामिक’ भारतीय प्रकाशन काजीपुर, नयाटोला, पटना (बिहार) ८०० ००४