द्वितीय सर्ग – प्रणय


वनदेवि वन्दिता पति प्रिय शुचि प्रणय मूर्ति-सी अरुन्धती सेवा करती गुरुता पूर्वक पति के संयम को न रुन्धती। सविनय सानन्द समर्चा कर अपने को मान भाग्य भाजन निज निष्ठा रति परिचर्या से सजनी थी रिझा रही साजन॥ २-१ ॥ अनुकूल भर्तृका भाग्यवती पति शुश्रूषा में थी तन्मय तन मन वाणी से अनुप्राणित भावना भाविता कलित विनय। झट हो प्रबुद्ध अभिषव करके कर उटज स्वच्छ अवलोक उषा कर जाती सपद व्यवस्थित वह ऋषि पंच-पात्र औ समिध कुशा॥ २-२ ॥

पति इंगितज्ञ भामिनी भद्र रख वस्तु वास्तु सब यथास्थान छाया-सी रहती जागरूक सेवा में सन्तत सावधान। कर भूमि परिष्कृत सलित स्वच्छ दर्भासन पावन पंचपात्र ऋषि की सुविधा का ध्यान सदा रखती सात्त्विक तापस कलत्र॥ २-३ ॥

रखती वह वातावरण शान्त निज पति को लख स्वाध्याय निरत सात्त्विकता से संयोग सदा करती रखती अक्षत ऋषिव्रत। अवलोक समाधि मग्न प्रिय को आँचल से व्यजन डुलाती थी संयम शीतल ऋषि नायक में शीतलता वह ले आती थी॥ २-४ ॥

कामादि दुर्गुणों का किञ्चित् भामिनी के मन में लेश न था प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसको कुछ क्रोधावेश न था। तुलसी को निज सहचरी बना रखती कुसुमों से निचित उटज सेवा सरसी में सरसाती निज दयित प्रणय का नव नीरज॥ २-५ ॥

पति सेवा शम-दम-नियम निरत परितोषितपतिका वनिता थी सन्तत सन्ध्या के हवन हेतु पति का पत्नीत्व निभाती थी। दिवसावसान अवलोक सती हो शुचि वल्लभ समीप जाती कर साथ-साथ वह हवन दिव्य मानस में अतिशय हरषाती॥ २-६ ॥

पढ़ते ऋषि-वर्य मन्त्र सस्वर स्वाहा वह साथ बोलती थी कर कामधेनु-घृत की आहुति मधुरस सानन्द घोलती थी। मुनिराज स्वयं हुनते दशांक वह घृत का करती दिव्य हवन सन्तुष्ट देख वैश्वानर को होती प्रसन्न थी मन ही मन॥ २-७ ॥

आनन्द सलिल पूरित अम्बक तन पुलकित आनन पद्म खिला चिरकाल समीक्षित साधक को साधन का शुभ फल सकल मिला। मख में पति का सहयोग सदा जो अडिग भाव से है करती है वही धर्म-पत्नी पति में जो नित सात्त्विक मधु रस भरती॥ २-८ ॥

हा हन्त मूढ पामर कैसे पत्नी में लखते कुवासना वस्तुतः नारि वह मन्दिर है जिसमें समधि श्रित उपासना। साधन की स्वर्ण वर्त्म-भूता सात्त्विक पत्नी की अधर सुधा जो करती पति का दूर पतन हर लेती भीषण विषय क्षुधा॥ २-९ ॥

नारी नारायण की जननी यह प्रेम कल्पतरु की वसुधा यह स्थली भक्ति भागीरथि की यह मूर्त विरति वात्सलय सुधा। जीवन्त चित्रशाला अद्भुत पाणिगृहीत सात्त्विक नारी जो पति का चित्र सजीव करे दस मास मध्य सुषमा न्यारी॥ २-१० ॥

यह कौन मनीषी कह सकता नारी नरकों का द्वार अरे नारी नारायण की प्रापक जो जन-जन में शुचि भक्ति भरे। ईश्वर भी रह न सके क्षण भर नारी सत्ता के बिना यहाँ अभिराम राम को पाला है कौसल्या ने पय पिला जहाँ॥ २-११ ॥

कुन्तल क्या बन्ध हेतु ना ना ये कुन्त मत्त मन कुन्जर के दृग नहीं बाण निर्वाण सदन मन्दिर में वात्सल्य सुधाकर के। क्या नर प्रमाद का हेतु अहो आनन चुम्बन ललना जन का वह बना स्वाद का हेतु कहो कैसे फिर यशुमति-नन्दन का॥ २-१२ ॥

अविवेकी नर के लिये बने परिरम्भ सुखद जो नारि हृदिज उन कुम्भों से होता सम्भव वैराग्य-महित वात्सल्य घटज। है नारी सचमुच विगत-दोष यह दोष मलिन पाशवी दृष्टि इसकी अदोषता से सम्भव निर्दोष प्रणयमय सकल सृष्टि॥ २-१३ ॥

पर क्या धाता की विडम्बना सुखकर दोषाकर भी सदोष कोई न जना हो जगत मध्य जो पूर्ण रूप से हो अदोष। कुछ कहो विधे क्यों मौन बने क्या तेरे जग की परिभाषा है अमृत उताहो विष विरंचि क्या मूक तुम्हारी यह भाषा॥ २-१४ ॥

अविराम तैल-यन्त्रित चलता कैसा यह जन्म-मरण चक्कर कितना बीभत्स घृणित नश्वर छन्दों का दुर्निवार्य टक्कर। पीकर विमोह मदिरा पामर राघव पद पंकज भूल अरे शतियों से रमते भोगों में वासना धूल से नयन भरे॥ २-१५ ॥

पर अरे भोग लोलुप लखते वासना हेतु तुम नारी को कौसल्या सम गुणशीला को सीता सम निज महतारी को। ओ मकरकेतु किंकर नृशंस नरपशु हो जाओ सावधान नारी में बरतो मातृ दृष्टि छोड़ो विडम्बना का विधान॥ २-१६ ॥

निज क्रूर वृत्ति परितोषण को कहते मिथ्या तुम प्रणय प्रणय आसक्ति चाटुकारिता वचन रे शठ तुझको भासते विनय। निज पारतन्त्र्य बन्धन में तुम कब तक रखोगे नारी को कब तक मानोगे विषय भोग पुत्तली निरीह बिचारी को॥ २-१७ ॥

पर आँख खोल करके देखो नारी का पावन मुख मण्डल जिसको आँसू जल से धोये शत बार राम सेवक-वत्सल। करती तुझको हा क्यों घायल नारी की नूपुर कल सिंजन जिससे होता है निर्विकार मानव में श्रद्धा का सर्जन॥ २-१८ ॥

कब तक सोओगे तुम अचेत अब गई निशा नर मूढ जगो रख मातृ बुद्धि ललना जन में प्रणयामृत से निज हृदय पगो। सुन लो अब कान खोल करके क्या दिव्य प्रणय की पूत विधा निज देह त्याग कर भी रखता प्रणयी प्रणयास्पद की सुविधा॥ २-१९ ॥

जब तक वासना रजो रूषित रहता है नर का मनो मुकुर तब तक उपासना कामधेनु रखती न वहाँ निज मञ्जुल खुर। भासता नहीं मल युत मन में निष्कलुष प्रणय का मधुर बिम्ब इसकी अनुपस्थिति में नर क्या धो सकता कटु कल्मष कदम्ब॥ २-२० ॥

निष्कलुष निरापद निर्विकार होता शुचि मनो गगन जिस क्षण उग जाता पावन प्रणय अर्क वासना घोर तम हर उस क्षण। यह शुद्ध भाव की परिणति है चिर संस्कृति की आधारशिला यह प्रणय राम रोलम्ब हेतु विश्राम सद्म नव पद्म खिला॥ २-२१ ॥

यह मरु मरीचिका का नाशक कीनाश पाश का है त्रासक उद्भावक हृदय व्योम का ये वासना भुजंगिनी का शासक। है निष्कलंक मन का तोषक निष्कलुष हृदय का परिपोषक पूषा समान तेजोनिधान मद मोह सलिल का संशोषक॥ २-२२ ॥

ब्रह्मानुभूति का सारभूत भावानुमेय विश्रुत विधूत भूतेषु भूतिकर भूतनाथ भावित भविष्णु भव प्रणय पूत। यह मन मन्दिर का दिव्य देव जिसका है लोचन अश्रु अर्घ्य यह परम रम्य रत्नाधिराज मुनिजन सेवित मञ्जुल महार्घ्य॥ २-२३ ॥

इस भाँति विचार हिंडोले पर वह झूल-झूल ललना ललाम सानन्द होम सम्पादित कर, आई कुटिया में पूर्णकाम। भामिनी भद्र भावना महित आया था साक्षात स्वर्ग उतर हो विविध वृन्द मञ्जुल विहंग यश गान हेतु थे किमपि मुखर॥ २-२४ ॥

पद्मिनी विरहिणी बिलखाई अवलोक अर्क प्रियतम निर्गम सानन्द प्रफुल्लित कैरविणी उस ओर छेड़ती मृदु सरगम। नवनील गगन में किमपि किमपि अरुणिमा मधुर छबि सरसाई नीले निचोल कर पाटल के बूटों की ज्यों सुषमा छाई॥ २-२५ ॥

कल-कल करते निज नीड़ ओर, सानन्द उड़ रहे विहग वृन्द था चलता मर-मर मलय मरुत सुरभित शीतल मधु मन्द-मन्द। संध्या में अब ये दीख रहे शित, श्याम, अरुण वर तीन रंग मानो प्रयाग में विलस रहे पावन त्रिवेणी का त्रय तरंग॥ २-२६ ॥

झिल्ली कुल की झनकार मधुर मंगल संगीत रचाती थी वह अरुन्धती के नूपुर की मुनिवर को सुरति कराती थी। मानिनी नवोढा वनिता-सी आई निशीथिनी इठलाती निज दयित इन्दु से मिलने को नक्षत्र मालिनी बलखाती॥ २-२७।

जो मुनि दयिता के केशों का निज रुचि मिस सारण कराती थी पति द्वारा मुनि को अरुन्धती आनन की याद दिलाती थी। सुन्दरी शर्वरी दयित संग रति रंग निमग्न विलसती थी विरहार्त कोक दम्पति पर वह कर-कर आक्षेप विहसती थी॥ २-२८ ॥

इस मधुर प्रकृति के सरगम से मनु की समाधि सहसा टूटी अब प्रणय कल्पतरु में मञ्जुल अभिनव रस शाखायें फूटी। था मन्द-मन्द चलता समीर थी शरद चन्द्र रंजिता निशा लेती अँगड़ाई प्रकृति वधू पुलकायमान थी सर्वदिशा॥ २-२९ ॥

अज्ञात प्रणय वर्धक शशांक मुनि मनो जलधि का उद्दीपन दोलायमान कुछ हुआ हृदय उन्मिषित हुआ रस संदीपन। अब आर्ष भाव में भी मञ्जुल दाम्पत्य सूत्र का पात हुआ कल्पना विपिन में आज अहा ऋृतु पति का मधुर प्रभात हुआ॥ २-३० ॥

पति वृत्त निरीक्षण हेतु वहाँ, श्री अरुन्धती तत्क्षण आई सुमधुर उत्कण्ठा को लायी मन में हल्की-सी सकुचाई। नववधू चेतना नई तरल, यौवन विभावना नयी-नयी नूतन उमंग नूतन तरंग प्रिय मिलन भावना नयी-नयी॥ २-३१ ॥

था राग नया अनुराग नया अवयव विभाग भी नया-नया था नया भाग था नया याग कल्पना बाग भी नया-नया। अधरों पर आज मचलती थी मुस्कान मधुर हलकी लाली थे गात सिहरते पुलक पूर्ण कर में थी पूजा की थाली॥ २-३२ ॥

चलती थी हँस गमन मन्थर खोयी-सी कुछ अलसायी-सी सोयी-सी भाव तल्प पर वह अकुलायी-सी शरमायी-सी। धरती पर वह धीरे-धीरे करती थी पायल धुन छम-छम अब छेड़ रही मुनि मानस में प्रणयिनी गीत का स्वर-सरगम॥ २-३३ ॥

हरषी प्रमदा प्राणेश्वर को अवलोक अपर पावक समान सुन्दर समुद्र से धैर्यवान पवमान सदृश्य पावन-महान। स्वाध्याय निरत साधक अमान योगीन्द्र विरतिमय विमल ज्ञान वे आर्य-धर्म से मूर्तिमान ओजो निधान तेजो निधान॥ २-३४ ॥

कर नीराजन प्रिय साजन की पद-पंकज में करके प्रणाम सापेक्ष भाव से बैठ गयी मुनि वाम भाग वामा ललाम। नव स्वाति जलद से सलिल बिन्दु चातकी चतुर थी चाह रही शारद शशांक से विभावरी संगम अभिलाष निबाह रही॥ २-३५ ॥

चाहती कल्प लतिका थी अब मृदु पारिजात का संश्लेषण सरिता अभिलषती थी अनुरक्षण सागर तरंग का आश्लेषण। ऋृषि ने डाली सतृष्ण सहसा निज वामभाग दिशि प्रणय दृष्टि हो गयी सरस भावना मयी तत्क्षण अवितर्कित सुखद सृष्टि॥ २-३६ ॥

देखा वशिष्ठ ने आज यहाँ सस्पृह अरुन्धती बैठी है अति मञ्जु मनोरथ स्यंदन पर भावातिरेक में पैठी है। अवलोक प्रिया का बदन चन्द्र उमड़ा मुनि मानस प्रणय सिंधु सुस्मित मुख से रस में बोले कैसे आई हो दयित बन्धु॥ २-३७ ॥

तुम मधुर कल्पनामय निसर्ग या शुद्ध प्रेम की हो प्रतिमा या परम प्रीति की कल गंगा या विमल नीति की हो प्रथिमा। या घनीभूत चेतना तत्त्व या आर्य सभ्यता की प्रतीक या तुम हो विग्रहिणी करुणा या सात्त्विक श्रद्धा निर्व्यलीक॥ २-३८ ॥

बनदेवी ही प्रत्यक्ष यहाँ आई मुझको करने सनाथ या मूर्त तपस्या ही मेरा दे रही आज है सुखद साथ। या लोचन गोचर हुई अहा आर्यों की सुस्थिर संस्कृति है या अनुलक्षित हो रही सरस मुझको नव जीवन निष्कृति है॥ २-३९ ॥

या स्वयं भद्र महिला बन कर इस कानन में रति ही आई या सुन्दरता ने ही सुन्दर अपनी सुषमा है सरसाई। तुम सुर ललना या नाग-वधू बोलो-बोलो क्यों हुई मौन क्या अरुन्धती या अन्य शुभे आई कैसे तुम कहो कौन॥ २-४० ॥

बनिता मन में थी अति प्रसन्न प्रिय की लख बचन चातुरी को कुछ सस्मित विस्मित हुई देख पति को संप्रश्न आतुरी को। दृग मोड़ तनिक मुसका तिरछे अवलोक छिपा मुख अञ्चल में बोली कोकिल स्वर में बनिता भर कर नव-नेह दृगंचल में॥ २-४१ ॥

उस काल सोहता था मुखड़ा घूँघट से उसका ढका हुआ शारद शशांक नवनील जलद संवृत मधु-रस से छका हुआ। अंचल के मध्य विलसते थे नीले पीले समरुण बूटे नीरद में सुरपति चाप छिपे ज्यों शशिकर से अमृत लूटे॥ २-४२ ॥

नव नील विलोचन के अंजन दिखते अंचल के कोने से ये असित-पुष्प में छिपे हुए लगते मृदु मधुकर छौने से। कर कर-सरोज संपुट भामिनी कुछ मंद मंद हँस कर बोली मुनिवर मानस मानस-सर में दाम्पत्य सुधा-रस को घोली॥ २-४३ ॥

ओ जन्म-जन्म के प्रिय सहचर अब पूछ रहे मेरा संस्तव सरिता का परिचय कहो भला विस्मृत करता क्या सलिलार्णव। आश्चर्य अहो यह महाश्चर्य ज्योत्सना को शशि जानता नहीं हा हन्त अंशुमाली भ्रम-वश छाया को पहचानता नहीं॥ २-४४ ॥

क्या कहो कोक करता कदापि कोकी परिचय की मीमांसा कर रहा हन्त हंसावतंश हंसिनी जन्म की जिज्ञासा । सर्वज्ञ पुरुष को क्या कदापि कुछ प्रकृति विषय का ज्ञान नहीं चिर संगत सागर कन्या का अब नारायण को ध्यान नहीं॥ २-४५ ॥

दुर्भाग्य समाधिष्ठित तनु का विस्मरण हो गया आत्मा को निज पदाधीन का स्मरण अहो कुछ भी न रहा परमात्मा को । कंचन-मृग के अन्वेषण में सीता को राम भूल बैठे क्या कुब्जा के प्रणयाजिर में राधा को श्याम भूल बैठे॥ २-४६ ॥

रोहिणी सरी-सी दयिता को अब विस्मृत कर जाता मृगांक निज नित्य सेविका गौरी को अब भूल रहे भ्रम-वश वृशांक। हम दोनों तब से हैं संगत जब से यह चली अनंत सृष्टि है ब्रह्मजीव-सी निरुपद्रव ममता द्रव-मय दाम्पत्य दृष्टि॥ २-४७ ॥

मुनिवर्य तुम्हारी नित्य सिद्ध मैं जन्म-जन्म की हूँ दासी मैं नित्य प्रणयिनी गृहिणी हूँ तुम बनो भले ही सन्यासी। छाया में सदा एक रसता रबि में होते है विपरिणाम राधिका नित्य एक रस होती बहुरूपी होते सदा श्याम॥ २-४८ ॥

मैं उस समुद्र की आभा हूँ जिसमें न कभी भी परिवर्तन उस परमधाम की निष्ठा मैं जिसमें न कभी पुनरावर्तन। मैं उस नारद की वीणा हूँ जो सदा एकरस में बजती मैं वह वशिष्ठ की अरुन्धती जो संयम से ही नित सजती॥ २-४९ ॥

तुम पुरुष पुरातन निर्विकार मैं सदा आप की शुद्ध प्रकृति तुम सहज चेतना बिम्बभूत मैं सदा आपकी हूँ अनुकृति। तुम चन्द्र चन्द्रिका मैं निर्मल तुम दिनकर तो मैं पुण्य विभा तुम हो सौन्दर्य मंजु विग्रह मैं हूँ छबि कलित दिब्य आभा॥ २-५० ॥

तुम दिव्य ज्योति के उद्बोधक मैं भी वह अद्भुत जागृति हूँ, तुम सद्विचार मृदु मानस के मैं भी चिर अर्चित संस्कृति हूँ। तुम हो नवयौवन के रहस्य तो मैं उसकी हूँ मादकता। तुम साधन के हो मूर्त्त रूप मैं सदा आपकी साधकता॥ २-५१ ॥

तुम धर्म तो मैं हूँ विरति और तुम अर्थ तथा मैं हूँ व्यापृति धर्माविरूद्ध तुम काम सदा मैं सतत सहचरी निर्मल रति। तुम निराबाध मोक्ष स्वरूप मैं निरुप्रद्रव हूँ भक्ति सती तुम ज्ञान और मैं बोध विधा तुम मनन और मैं मंजु मती॥ २-५२ ॥

तुम वेदमंत्र तो मैं स्वर हूँ तुम यज्ञ और मैं सुदक्षिणा तुम हो हुताश मैं हूँ स्वाहा तुम हो अर्चन मैं प्रदक्षिणा। तुम हो सुकर्म मैं हूँ चेष्टा तुम महापुण्य मैं सुफल क्रिया तुम चित्रकला के चिर कौशल मैं मूक सुभग प्रेरणा प्रिया॥ २-५३ ॥

तुम गहन भाव गंभीर अर्थ मैं हूँ कलकंठ सुगीत गिरा तुम अन्तरंग जल मैं तरंग तुम चतुरानन मैं दिव्य इरा। तुम अति निगूढ़ ध्वनि व्यंग भाव व्यंजनावृत्ति मैं हूँ छाया तुम हो मायापति महामान्य मैं भी शुचि संचालक माया॥ २-५४ ॥

तुम परम विलक्षण महाकाव्य मैं कमन कल्पना की सुषमा तुम परम धर्ममय सजग शेष मैं तुम पर धारित रम्य क्षमा। तुम राम तथा मैं हूँ सीता तुम भव मैं स्वयं भवानी हूँ तुम प्राणनाथ मैं हूँ पत्नी कर्दम की सुता अयानी हूँ॥ २-५५ ॥

सुनि प्रिया बचन ऋषि हुए मुदित छाया मानस में विश्रंभण आजानबाहु से किया त्वरित वनिता का सादर परिरंभण। अब पोंछ अश्रुओं को कर से निज बाम भाग में बिठा लिया कह स्नेहिल वचन विविध ऋषि ने मानिनी मनः सम्मान किया॥ २-५६ ॥

वह पारिजात से आलिंगित माधवी लता सी थी लसती सौभाग्य शालिनी सती आज सुर बालाओं पर थी हँसती। बोले वशिष्ठ हो आनन्दित मुनि सुते शुभे दे कान सुनो भद्रे त्यागो आमर्ष पूर्व दत्तावधान निज हृदय गुनो॥ २-५७ ॥

मेरे परिहास विजल्पित को तुमने माना सहसा यथार्थ आपात रम्य वाक्यों से भी तुमने खीँचा गंभीर अर्थ। भामिनी सत्य तेरी विस्मृति मेरी समग्रता का विनाश तेरी सत्ता के बिना कहो कैसे मैं कर सकता विकास॥ २-५८ ॥

क्या ज्योत्स्ना से व्यतिरिक्त चन्द्र नभ-मंडल में करता प्रकाश क्या बेला विरहित वरुणालय करता उत्तुंग तरंग लास। लखने हित तुमको प्रणय कुपित इस मिस मैंने कुछ छेड़ दिया तुमने भी उसे यथार्थ मान अपने सब भाव उड़ेल दिया॥ २-५९ ॥

क्या कोप काल में भी सुन्दरि आनन तेरा रमणीय बना नव अरुण चारु रजनी-कर को सौरभ प्रवाल ने मनो जना। बस शान्त शान्त आक्रोश तजो मृगलोचनि किंचित मुसुकाओ मेरे मृदु मनो मरूस्थल में अब प्रणय जाह्नवी सरसाओ॥ २-६० ॥

वस्तुतः वासना से वर्जित दाम्पत्य सूत्र कितना निर्मल जिसमें बँध जाते अनायास परमेश्वर व्यापक भी निष्कल। यह स्वर्ग-द्वार सोपान दिव्य यह मोक्ष वर्त्म निष्काम नव्य मन शुद्धि हेतु यह पंच गव्य दाम्पत्य मनुज शृङ्गार भव्य॥ २-६१ ॥

अंगने स्वप्न में भी क्या मैं तुझको कदापि ठुकराऊँगा विस्मृत कर निज शरीर को क्या क्षण भर जीवित रह पाऊँगा। सप्तर्षित मध्य हो समधिष्ठित तुम जग को ज्योतिष्मान करो बन अरुन्धती तारा मेरे ही साथ ब्रह्म का ध्यान धरो॥ २-६२ ॥

नव दम्पति तुझको प्रथम देख जब सफल करेंगे-निज लोचन मेरे ही साथ सदा रह कर करती रह तू भव-मय मोचन। युग युग तक चलती रहे अमर दाम्पत्य प्रीति विमलित संगा अविराम काव्य भू पर लहरे पावन प्रणयास्पद कल गंगा॥ २-६३ ॥

॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥