(१) प्रत्येक कार्य की सफल सिद्धि संकल्पों पर निर्भर होती सामान्य शुक्ति से कभी नहीं प्रकटा करती मंजुल मोती। ६-१५४ ।
(२) वस्तुतः क्रोध मानव मन का होता सपत्न सबसे उत्कट इसके कारण ही मँड़राते जीवन पर संकट मेघ विकट। प्रतिशोध अनल में जल जाते क्षण में ही मानव मूल्य सभी इसकी झंझा में उड़ जाते सद्गुण सुरपादप तुल्य सभी॥ ६-१५९ ॥
(३) सच पूछो तो दुःख का कारण अपनी ही स्वयं अपेक्षा है इससे सौगुनी भली होती जगती में स्वयं उपेक्षा है॥ ६-१७९ ॥
(४) यह एक विलक्षण देवी है जिसको हम आशा कहते हैं हो विमुख शान्ति पाते जिससे सम्मुख हो दुःख से दहते हैं। ६-१८० ।
(५) शुचि मानवीय शाश्वत मूल्यों की संयम प्राण प्रतिष्ठा है यह लोकोत्तर बहुमूल्य रत्न यत्नों की मंगल निष्ठा है। संयम मनुष्य को देवों के सिंहासन पर बिठलाता है इस नर को भी नारायण से संयम अविलम्ब मिलाता है॥ ६-१९१ ॥
(६) वे सन्त नहीं जो चाटुकार पूंजीपति के अभिमानी दम्भी दुर्मदान्ध मिथ्यामति के। लोलुप सन्तत आसक्त दास विषयारति के वे कभी नहीं हैं पात्र जगत्पति सद्गति के॥ ७-२६ ॥
(७) उच्छृंखल पशु के लिये दंड ही शिक्षा है अति नीच नराधम हेतु यही शुभ दीक्षा है। उद्धत भुजंग को कथमपि उचित उपेक्षा है उसके उपमर्दन की ही यहाँ अपेक्षा है॥ ७-३९ ॥
(८) विश्वास साधक को कभी मन का न करना चाहिए चंचल तुंरग की रश्मि को कसकर पकड़ना चाहिए। है हार मन की हार मन की जीत शाश्वत जीत है वह भोगता है जन्म भर इसका बना जो मीत है॥ ८-२० ॥
(९) अधिकार की मदिरा बनाती मनुज को मदमत्त है सामान्य की क्या बात होता मान्य भी उन्मत्त है॥ ८-२८ ॥
(१०) यह वासना मदिरा अहो नर के पतन का हेतु है जो भग्न कर देती निमिष में संकल्प संयम सेतु है॥ ८-४१ ॥
(११) मैं कहता आसक्ति मृत्यु है अनासक्ति ही है जीवन। १३-४३ ।